राजस्थानी चित्रकला का उद्भ्व और विकास
. दरवारी चित्रकला राजस्थानी चित्र राजमान में आल पारा बनाये रेखा | रित शैलाश्यों को * राजरथाने में चित्रकला । डर कर रही थी । राजस्थान नियुक्ति वृत्ति ' एवं ' दस वैकाति नानी चित्रकला का उद्भव और विकास 4 में आलनिया दर्रा ( कट ) , वैराठ ( जयपुर ) तथा दर ( मात्रा माये रेखांकन इस प्रदेश की प्रारंभिक चित्रण परम्परा को उ | कोरा में चम्बल घाटी और दरी , झरनाबाद के निकट में है धयों की खोज की । ( Source : Cultural Countem of india ) ) प्र । त ? : पर सिंध म में चित्रकला की मूल रूप रहा था , उस समय अन रमत तशा और में ति दी थी । राजस्थान में सर्वाधिक प्राचीन उपना दित ग्रंथ मलमेर भरडा में । वनि एवं ' दस वकालिका मात्र चूर्ण मिले हैं । इन जगत के रर । में या इन ग्रंथों में लक्ष्मी , इंद्र , हाथी की है । सत्र चर्णि ' ( 1260 ई . ) में प्राप्त हुआ है ।
इस ग्रंथ 5 दिन आकृतिया अत्यन्त मुदर है मेट में आ । आ आ चरियम ' ( पाश्र्वनाथ चरित्र - 1423 ई . ) देलवाड़ा में भित्रित हुआ । इनके अक १५ोधपूण , भो के अमर दूसरी लेखनीय चित्रित ५ हैं । जथे अरब आक्रमण हुआ तो अनेक काका इ में उन्होंने भी अजन्ता परम्परा की शैली को स्थानीय शैलियों से आमद किये और किस कम हो कि प रि इस क्रम में अनेक चित्रपट ' और ' चित्रित ग्रंध ' बनने लगे । । राजस्थान में जहां पहले ही चित्रकला अछे विकसित रूप में थी , इस रत परत में प्रभ * इजरात के कलाकार मेघाह एवं मरिया पहुंचे और इन्होंने इन भागों में बस हुई । इस र किया । इस समिर से तक चित्रकला में एक नवीनता की गई । इस शैली में पापक रुप पनि कया । इसके न ग्रंथ चित्रित हुए साथ ही यह माना गया कि इन्हें जैन साधुओं ने बनाया था ।
अतः उसे जैन शैली का र से पता कि अनेक अर्जुन राशी ( दुर्गासप्तशती , गीतगोविन्द शादि ) को न चि ने चित रहेको माती शैली ' कहा गया । लेकिन , जब उस युग के अनेक चित्र पश्चिमी भारत में मिलने ली से इस स्थिति के कारण । पर रोली के स्थान पर पश्चिमी भारतीय शैली ’ मामकाण किया गया । जी ही वज ने इस हैरी क र रहा | गुजरात - माला से लेकर कांगह - नेपाल ( लघु - पहाडी ) तक मिली । उस समय के । कत है तो इस शैली को ' अपभ्रंश शैली ' कहा जाने लगा । इस प्रकार राजन में प्रति म जन गरात शैली ' , ' पश्चिमी भारत शैली ' , ' अपॉश इलाकार । । * पम्प की कला का सामंजस्य विभिन्न रूपों में दिखाई देता है । पानी का घर है गया । का उद्भव अपभ्रश से गुजरात एवं भेवाह में कश्मीर शला के प्रभाव दारा 5 मद में । _ शैली का प्रारम्भ 5वीं सदी के उत्तरार्द्ध से 16वीं सदी के पुत्र के बाद 1500 ई . के लगभग माना जाता है।इतर राजस्थान की कि हाणार - संपतय माना है । इसे तो राजस्थान राजस्मन को ओपन आर्ट लिग भी करते है । नामकाया व कालक्रम - जिरी धिक ३ गत मा वि में हो गई है ।
राजधानी पिया के | यामधयों में राजा बना दियाय , मतान्द , र संग्राम सिकात पर कुर को इसमें द र ण । जो कि कब पी रानिक जिवन गाग , वैत ३ स्वामी ने ' राजपूत पेटिग्ना ' आमक पुस्तक में सन् 1916 में कया । कुमार स्वारी पिली है । र म प अ य के मैन युग में पूर्ण उत्पनी । । सबसे पुराने कारण बन रहद में मन रागमाला में दो सिम्प्ट में हैं जिन्हें “ बोस्टम् ती है । मय जाप करने से राजपत राजा व इरीर में कामत ने प्राय मा इ हर्मन गोप्डन ने चित्रों में काय या वेश भूषा के आधार पा 161620 के गभग मोटर उत्पत्ति मानी डा र स्वामी इरा उत्पति शिरियत रूप से रोटी शती से मामले । इ ३ र इसका प्रादुर्भाव मृगता में परमात माना कि पश्चिम भारत शैली में मुगल शैली के मिश्रण से इसका न्यू एच ब्राइन ने अपने पथ ' इण्डियन पेंटिंगम ' में इस प्रदे को धिकला का नाम राजपूत क जबकि एम . मी . मेहता ने स्टडीज इन इण्डियन पेंटिंग्स में से हिन्दू चित्र शैली को संज्ञा दी है । जी ' में न मतों का धरना इसे राजधानी चित्रकला को जाम दिया । : रघरम्मत से राजस्थानी नाम वीर या गपा है । अनेक विद्वानों ने राजस्थान की विभिन्न शैलि पर पुग्तक प्रकाशित की गई । रम्यापित करने में सहयोग दिया है
, शिम भषा पर सभी को मोतीचन्द , र अरे , आरहे । किशनगह पर कि दिनान । हो फैयाजली . बँदो - कोर पर श्री प्रमोदचन्द्र , इथल्प जी . आर्चर इय अजेन्द्रसिंह फोटा का नाम उल्लेनोप है । विशेषताएँ । । शोक जीवन का सानि , भाग वगता को प्रगुता , विषय - रत की विविधता , वर्ण वैविध्य , प्रकृति पर । काल के अनुरूष आदि विशेषताओं के पी पर इसकी अपनी अलग पहचान है । 2 पार्मिक और सांस्कृतिक रमलों में पति चित्ता में लोक शीषन को भावनाओं को पास भी है । सीव दिए ता पटोले , चमकदर और दीपि रंगों का संयोजन विशेष रूप से दिखाई देता है । राजभान का चित्रकला गहा के माता , किाता , मदरों और हथेलियों में अधिक देखी जा सकती है । | जिरी हिरों में विभिन्न शाओं का पंगारिक चित्रण कर उनकी मान्य जीवन पर पड़ने की । त हैं ।
5 . मूणत काल से प्रभावित राजस्थानी चित्रकला में राजकाँग हक - हक , विलारिता , अन्त : पर के रा त । मन्त्रों का प्रदर्शन हिरोष रूप से दिखाई देती है । 6 . । मि गंगन में भगा दशगमान होती हैं । चित्र में ऑकत भी वस्तुएँ विषय से संगति शी । कृति एवं प्रभूमि को समान मात्ती रहती है । राजस्थानी भित्रका में प्रकृति का मानगौकरण देखने को मिलता है । चित्र में जो भवि नागरुनायिका है । रहता है , उसी के अनुरूप प्रकृति को भी प्रतिबिम्बित किया गया है । मातीत राजस्थानी चित्रकला का कलेवर प्राकृतिक सौन्दर्य के दिल में रहने के कारण अधिक मनोरम हो गया
इस ग्रंथ 5 दिन आकृतिया अत्यन्त मुदर है मेट में आ । आ आ चरियम ' ( पाश्र्वनाथ चरित्र - 1423 ई . ) देलवाड़ा में भित्रित हुआ । इनके अक १५ोधपूण , भो के अमर दूसरी लेखनीय चित्रित ५ हैं । जथे अरब आक्रमण हुआ तो अनेक काका इ में उन्होंने भी अजन्ता परम्परा की शैली को स्थानीय शैलियों से आमद किये और किस कम हो कि प रि इस क्रम में अनेक चित्रपट ' और ' चित्रित ग्रंध ' बनने लगे । । राजस्थान में जहां पहले ही चित्रकला अछे विकसित रूप में थी , इस रत परत में प्रभ * इजरात के कलाकार मेघाह एवं मरिया पहुंचे और इन्होंने इन भागों में बस हुई । इस र किया । इस समिर से तक चित्रकला में एक नवीनता की गई । इस शैली में पापक रुप पनि कया । इसके न ग्रंथ चित्रित हुए साथ ही यह माना गया कि इन्हें जैन साधुओं ने बनाया था ।
अतः उसे जैन शैली का र से पता कि अनेक अर्जुन राशी ( दुर्गासप्तशती , गीतगोविन्द शादि ) को न चि ने चित रहेको माती शैली ' कहा गया । लेकिन , जब उस युग के अनेक चित्र पश्चिमी भारत में मिलने ली से इस स्थिति के कारण । पर रोली के स्थान पर पश्चिमी भारतीय शैली ’ मामकाण किया गया । जी ही वज ने इस हैरी क र रहा | गुजरात - माला से लेकर कांगह - नेपाल ( लघु - पहाडी ) तक मिली । उस समय के । कत है तो इस शैली को ' अपभ्रंश शैली ' कहा जाने लगा । इस प्रकार राजन में प्रति म जन गरात शैली ' , ' पश्चिमी भारत शैली ' , ' अपॉश इलाकार । । * पम्प की कला का सामंजस्य विभिन्न रूपों में दिखाई देता है । पानी का घर है गया । का उद्भव अपभ्रश से गुजरात एवं भेवाह में कश्मीर शला के प्रभाव दारा 5 मद में । _ शैली का प्रारम्भ 5वीं सदी के उत्तरार्द्ध से 16वीं सदी के पुत्र के बाद 1500 ई . के लगभग माना जाता है।इतर राजस्थान की कि हाणार - संपतय माना है । इसे तो राजस्थान राजस्मन को ओपन आर्ट लिग भी करते है । नामकाया व कालक्रम - जिरी धिक ३ गत मा वि में हो गई है ।
राजधानी पिया के | यामधयों में राजा बना दियाय , मतान्द , र संग्राम सिकात पर कुर को इसमें द र ण । जो कि कब पी रानिक जिवन गाग , वैत ३ स्वामी ने ' राजपूत पेटिग्ना ' आमक पुस्तक में सन् 1916 में कया । कुमार स्वारी पिली है । र म प अ य के मैन युग में पूर्ण उत्पनी । । सबसे पुराने कारण बन रहद में मन रागमाला में दो सिम्प्ट में हैं जिन्हें “ बोस्टम् ती है । मय जाप करने से राजपत राजा व इरीर में कामत ने प्राय मा इ हर्मन गोप्डन ने चित्रों में काय या वेश भूषा के आधार पा 161620 के गभग मोटर उत्पत्ति मानी डा र स्वामी इरा उत्पति शिरियत रूप से रोटी शती से मामले । इ ३ र इसका प्रादुर्भाव मृगता में परमात माना कि पश्चिम भारत शैली में मुगल शैली के मिश्रण से इसका न्यू एच ब्राइन ने अपने पथ ' इण्डियन पेंटिंगम ' में इस प्रदे को धिकला का नाम राजपूत क जबकि एम . मी . मेहता ने स्टडीज इन इण्डियन पेंटिंग्स में से हिन्दू चित्र शैली को संज्ञा दी है । जी ' में न मतों का धरना इसे राजधानी चित्रकला को जाम दिया । : रघरम्मत से राजस्थानी नाम वीर या गपा है । अनेक विद्वानों ने राजस्थान की विभिन्न शैलि पर पुग्तक प्रकाशित की गई । रम्यापित करने में सहयोग दिया है
, शिम भषा पर सभी को मोतीचन्द , र अरे , आरहे । किशनगह पर कि दिनान । हो फैयाजली . बँदो - कोर पर श्री प्रमोदचन्द्र , इथल्प जी . आर्चर इय अजेन्द्रसिंह फोटा का नाम उल्लेनोप है । विशेषताएँ । । शोक जीवन का सानि , भाग वगता को प्रगुता , विषय - रत की विविधता , वर्ण वैविध्य , प्रकृति पर । काल के अनुरूष आदि विशेषताओं के पी पर इसकी अपनी अलग पहचान है । 2 पार्मिक और सांस्कृतिक रमलों में पति चित्ता में लोक शीषन को भावनाओं को पास भी है । सीव दिए ता पटोले , चमकदर और दीपि रंगों का संयोजन विशेष रूप से दिखाई देता है । राजभान का चित्रकला गहा के माता , किाता , मदरों और हथेलियों में अधिक देखी जा सकती है । | जिरी हिरों में विभिन्न शाओं का पंगारिक चित्रण कर उनकी मान्य जीवन पर पड़ने की । त हैं ।
5 . मूणत काल से प्रभावित राजस्थानी चित्रकला में राजकाँग हक - हक , विलारिता , अन्त : पर के रा त । मन्त्रों का प्रदर्शन हिरोष रूप से दिखाई देती है । 6 . । मि गंगन में भगा दशगमान होती हैं । चित्र में ऑकत भी वस्तुएँ विषय से संगति शी । कृति एवं प्रभूमि को समान मात्ती रहती है । राजस्थानी भित्रका में प्रकृति का मानगौकरण देखने को मिलता है । चित्र में जो भवि नागरुनायिका है । रहता है , उसी के अनुरूप प्रकृति को भी प्रतिबिम्बित किया गया है । मातीत राजस्थानी चित्रकला का कलेवर प्राकृतिक सौन्दर्य के दिल में रहने के कारण अधिक मनोरम हो गया
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