Wednesday, June 26, 2019

अंतरराष्ट्रीय विश्व व्यवस्था में परिवर्तन के कारण

विश्व व्यवस्था पुरातन सी लगने लगी । नवीन अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था की पृष्ठभूमि में शीतयुद्ध को । समाप्ति व सोवियत संघ का पूर्वी यूरोप में प्रभावहीन हो जाना था । अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के विशेषज्ञों का यह मत है कि बीसवीं शताब्दी में तीन ऐसे अवसर आए जबकि अन्तर्राष्ट्रीय राजनीतिक व्यवस्था में आमूल - चूल परिवर्तन हुआ । प्रथम अवसर , प्रथम विश्वयुद्ध की समाप्ति के बाद सन् 1919 के बाद , द्वितीय अवसर द्वितीय महायुद्ध सन् 1945 के बाद आया , तथा तृतीय अवसर , सन् 1991 में सोवियत संघ के विघटन के बाद विश्वशक्ति में संतुलन में बुनियादी परिवर्तन के रूप में दृष्टिगोचर हुआ । अतः अन्तर्राष्ट्रीय राजनीतिक व्यवस्था में समय - समय पर नई प्रवृत्तियों के मुद्दों के उदय के कारण बदलाव होता रहा है और अन्तर्राष्ट्रीय राजनीतिक व्यवस्था निरन्तर बदलती रही है ।

 व्यवस्था में परिवर्तन के प्रमुख कारण निम्न बिन्दुओं से स्पष्ट किए जा सकते हैं 1 . शीतयुद्ध का अन्त ( End of Cold War ) द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद की विश्व राजनीति की प्रमुख विशेषता संयुक्त राज्य अमेरिका और सोवियत संघ के बीच शीतयुद्ध की राजनीति का चलन था । शीतयुद्ध एक वैचारिक संघर्ष था जिसमें दो विरोधी जीवन पद्धतियाँ , उदारवादी लोकतन्त्र तथा सर्वाधिकारवादी साम्यवाद , सर्वोच्चता प्राप्त करने के लिए संघर्ष करने । लगे । 1990 के बाद पूर्वी यूरोप तथा सोवियत संघ से साम्यवादी शासनों को विदाई दे दी गयी . साम्यवादी दलों पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया । इसके साथ ही शीत युद्ध का अन्त हो गया । 2 . एकधुवीय विश्व ( Uni - Polar World ) - द्वितीय विश्व युद्ध के बाद विश्व दो शक्ति गुटों में विभाजित हो गया जिनमें एक गुट का नेता संयुक्त राज्य अमेरिका और दूसरे गुट का नेता सोवियत संघ था ।

 किन्तु 21वीं शताब्दी के इस दशक में ऐसा लगता है कि विश्व में मात्र एक ही महानतम शक्ति है और वह है , संयुक्त राज्य अमेरिका । अब विश्व राजनीति दो भीमाकार दैत्यों के बीच का संघर्ष नहीं रह गयी । साम्यवाद के अवसान के साथ ही दूसरे भीमाकार दैत्य की अकाल मृत्यु हो गयी । वस्तुतः खाड़ी युद्ध एवं इराक युद्ध में अमरीकी विजय ने उसकी शक्ति , प्रभाव एवं वर्चस्व में अभूतपूर्व वृद्धि कर दी । यही कारण है कि आज अमरीका भारत और रूस जैसे देशों को धमकी देने लगा है । 3 , साम्यवाद का अवसान ( Collapse of communism ) - वर्ष 1990 - 91 में एक महान क्रान्ति हुई । पूर्वी यूरोप में कम्युनिज्म को कब में गाड़ दिया गया । 7 नवम्बर , 1989 को हंगरी में , 29 जनवरी , 1990 को आयरलैण्ड में 18 मार्च , 1990 को पूर्वी जर्मनी में 23 मई , 1990 को रोमानिया में , 11 जून , 1990 को चैकोस्लोवाकिया में , साम्यवादी शासन का अन्त हो गया ।

 फरवरी , 1990 में सोवियत संघ कम्युनिस्ट पार्टी की केन्द्रीय समिति ने लेनिनवाद को ध्वस्त करने का क्रान्तिकारी मार्ग अपनाया । उसने सोवियत संविधान के उस अनुच्छेद 6 के विलोपन का संकल्प किया जिसमें सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी के सत्ता पर एकाधिकार की गारण्टी दी । गयी थी । साथ ही प्रशासन की कार्यकारी शक्ति ( प्रशासन शक्ति ) महासचिव के स्थान पर राष्ट्रपति को सौंपकर सरकार पर पार्टी के नियन्त्रण को निष्प्रभावी करने का निश्चय किया गया । । 12 फरवरी , 1990 को सोवियत संसद ने माक्र्सवाद के एक मूल सिद्धान्त को स्पष्टतः स्विीकार कर दिया । उसने घोषणा की कि “ पार्टी का विचार है कि उत्पादन के साधनों के स्वामित्व सहित निजी सम्पत्ति का अस्तित्व देश के आर्थिक विकास की वर्तमान अवस्था में प्रतिकूल नहीं है ।

 " साम्यवादी दलों के पतन के बाद बहुदलीय व्यवस्था , स्वतन्त्र निर्वाचन , बाजारोन्मुख अर्थव्यवस्था अपनाने से पूर्वी यूरोप और सोवियत गणराज्यों में स्वतन्त्रता की बहार आ गयी ।३ . जर्मनी की एकीकरण ( Unification of Germany ) - 3 अक्टबर , 19 जर्मनी को एकीकरण हो गया । बिना युद्ध और संदर्भ के 45 वर्ष बाद दो राष्ट्रों का हर्षोल्लासपूर्ण की । एकीकरण आधुनिक इतिहास की महत्त्वपूर्ण घटा है । अगस्त , 1961 में ' बर्लिन की दीवार खड़ी होने के बाद तो वहाँ माइन्स बिछाकर तारों की मइ लगाई गयी थी ताकि कोई सीमा पार न कर सके । लेकिन 9 नवम्बर , 1999 को बर्लिन की दीवार तोड़ने से पूर्व के बीच के लगभग 20 वर्षों में , 1 , 78 , 182 लोग इसको लाँधकर या इसके नीचे से दूसरी तरफ भाग निकले ।

 40 , 101 ने अपनी जान जोखिम में डाली और इस कोशिश में 192 लोगों ने अपनी जान गंवाई । जर्मनी के एकीकरण के प्रयलों में सबसे पहली सफलता उस समय मिली जब 9 नवम्बर , 1999 को बर्लिन को दो भागों में बाँटने वाली ‘ बर्लिन की दीवार को तोड़ने का काम शुरू हुआ । इसके बाद 18 मार्च , 1990 को पूर्वी जर्मनी में पहली बार स्वतन्त्र चुनाव हुए , फिर 1 जुलाई , 1990 को दोनों जर्मनियों का आर्थिक एकीकरण हुआ और दोनों की मुद्रा एक हो गयी । 4 अक्टूबर , 1990 को चांसलर हेल्मुट कोल के नेतृत्व में एकीकृत जर्मनी की नई सरकार पदारूढ़ हो गयी । क्षेत्रफल में फ्रांस से छोटा किन्तु आबादी के लिहाज से 7 . 8 करोड़ लोगों का देश एकीकृत जर्मनी यूरोप में सबसे शक्तिशाली केन्द्र बन गया । 5 . गुटनिरपेक्ष आन्दोलन की प्रासंगिकता ( Relevance of NAM ) - अन्तर्राष्ट्रीय राजनीतिक व्यवस्था में आए परिवर्तनों से गुटनिरपेक्ष आन्दोलन ( NAM ) की प्रासंगिकता का प्रश्न विचारणीय मुद्दा बन गया है ।

शीतयुद्ध के अन्ज , द्विध्रुवीय विश्व व्यवस्था के स्थान पर एकधुवीय व्यवस्था के उद्य , सोवियत संघ के पतन , आदि से सहज ही में यह प्रश्न किया जाता है । कि क्या निर्गुट आन्दोलन अप्रासंगिक तो नहीं हो गया है ? एक आलोचक के अनुसार , “ कहने को तो निर्गुट राष्ट्रों के आन्दोलन में अब भी 120 देश हैं पर वे हैं इस समय बिल्कुल बेबस हैं । उसमें पहले भी कोई विशेष दमखम नहीं था । पर शीतयुद्ध के चलते दोनों महाशक्तियाँ कम - से - कम इसकी बात अवश्य सुन लेती थीं । अब इस आन्दोलन की इतनी पूछ भी नहीं है । हो , निर्गुट आन्दोलन की बैठकें बराबर हो रही हैं । पर इसके सदस्य देशों की माली हालत इतनी नाजुक है कि इनके नेता हर समय विश्व बैंक से कर्जे की अजी लिए वाशिंगटन में मौजूद रहते हैं । विश्व बैंक में अकेले अमरीका का सर्वाधिक 20 प्रतिशत हिस्सा है । उसकी मर्जी के बिना वहाँ से किसी को कौड़ी भी नसीब नहीं हो सकती ।

 इसलिए ये देश फिलहाल अमरीका के सामने खड़े होने की हैसियत में नहीं हैं । आर्थिक तंगी , भ्रष्टाचार , बढ़ती हुई गरीबी और जन असन्तोष के कारण निर्गुट आन्दोलन के देश राजनीतिक अस्थिरता से पीड़ित हैं , इसलिए यह आन्दोलन मृत है । " आज गुटनिरपेक्ष आन्दोलन समय के साथ हो रहे परिवर्तनों के अनुरूप अपनी प्राथमिकताओं को नया रूप देने का प्रयास कर रहा है । । 6 . संयुक्त राष्ट्र संघ का बड़ता परिवार ( Increasing Mernbership of the N . 0 . ) - 1945 में संयुक्त राष्ट्र संघ के सदस्यों की संख्या 50 थी और आज यह संख्या 193 " मी है । आज न केवल संयुक्त राष्ट्र की सदस्य संख्या में वृद्धि हुई है वरन् अन्तर्राष्ट्रीय जनीति में उसकी सक्रियता भी बढ़ी है । संयुक्त राष्ट्र , उसके 17 विशेष अभिकरण एवं मुख्य कार्यक्रम और निधियाँ विश्व के किसी भी कोने के प्रायः सभी मानवों से सम्बद्ध है ।

के युद्ध की समाप्ति में नामीबिया की स्वतन्त्रता में , कुवैत को इराक से मुक्त कराने में , या में शान्ति बहाल कराने में , अफगानिस्तान में शान्ति बहाल कराने में तथा इराक में , संयुक्त राष्ट्र संघ की महत्त्वपूर्ण उपलब्धियाँ रही है । कम्बोडिया में शान्ति बहाल करा. सैनिक टिवन्दियों का घटता मह व ( Decline of Military Picti ) _ विती । विश्वयुद्ध के बाद सैनिक गुटबन्दियों का जल बिछाने की प्रवृत्ति थी । उन्हीं दिनों नाटो , सीटो । वारसा पैक्ट जैसी सैनिक सन्धियाँ अस्तित्व आयीं । अब इनका ह्रास प्रारम्भ हो गया है । वारसा पैक्ट का अन्त कर दिया गया है और आटो भी मात्र नाम का संगठन बना हुआ है । नाटो के स्वरूप में बुनियादी परिवर्तन कर दिया गय है ।

 8 . बाजारोन्मुख अर्थव्यवस्था ( Market Economy ) - मुक्त अर्थव्यवस्था या पूँजीतन्त्र ने अपनी क्षमता को विश्व में पिछली दो शताब्दियों से सिद्ध किया हुआ है । अतीत और वर्तमान में अनेक प्रतिस्पद्धत्मिक प्रणालियों पूंजीवाद की प्रणाली को समाप्त कर इसकी जगह लेने आती रही किन्तु कोई भी प्रणाली इतनी उत्पादनशील नहीं सिद्ध हुई जितनी कि मुक्त बाजार अर्थव्यवस्था का सिद्धान्त और उसकी कार्यप्रणाली । ऐसा इसलिए हुआ कि पूँजीवाद ( मुक्त अर्थव्यवस्था ) ( एक साम्यवाद जैसा कृत्रिम सिद्धान्त न होकर ) प्राकृतिक शक्ति है जो मानवीय स्वभाव में गहरी बैठी हुई है । इसके साथ ही पूँजीवाद में नई स्थितियों एवं वातावरण को बदलने का प्रशंसनीय लचीलापन है । आज जिस पूँजीवाद को हम अमेरिका या पश्चिमी यूरोप में देखते हैं वह पहले जैसा पुरातनपंथी न होकर बहुत उन्नत , प्रगतिशील और मानवीय आर्थिक प्रणाली के रूप में है । संक्षेप में , अब त्वरित आर्थिक विकास के लिए दुनिया के अधिकांश देशों ने पूँजीवादी मॉडल या बाजारोन्मुख अर्थव्यवस्था का सिद्धान्त अपना लिया है ।

पूँजीवादी अर्थव्यवस्था की विशेषताएँ है — मुक्त व्यापार , प्रतियोगिता , स्वतन्त्र समझौते बाजारू तथा बाजार समाज , आर्थिक क्षेत्र में राज्य का कम - से - कम नियन्त्रण , निजी सम्पत्ति और आर्थिक स्वतन्त्रता । । । 9 . यूरोप के एकीकरण की दिशा में बढ़ते चरण ( Stens towards Integration of Europe ) - पिछले एक दशक से यूरोप के एकीकरण की प्रक्रिया काफी तीव्र हुई है । साम्यवाद । और पूंजीवाद , पूर्व और पश्चिम यूरोप , नाटो और वारसा देशों का कृत्रिम विभाजन अब समाप्त हो गया है । यूरोपीय संघ का निर्माण प्रगति पर है और स्वतन्त्र यूरोपीय मुद्रा संस्थान की स्थापना हो गई है तथा संयुक्त यूरोपीय मुद्रा का चलन प्रारम्भ हो गया है ।

 11 दिसम्बर , 1991 को सम्पन्न राष्ट्रीय मेस्ट्रिच सन्धि यूरोपीय एकीकरण की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण सीमाचिह्न है । । यूरोपीय संघ के निर्माण में यूरोपीय समुदाय की प्रभावकारी भूमिका होगी । शीघ्र ही दुनिया की यह समूह विशालतम - बाजार हो जाएगा । ऐसा कहा जाता है कि संगठित युरोप अमरीका के लिए । सबसे बड़ी चुनौती होगा । 1 मई , 2004 को यूरोप के इतिहास में एक नई घटना हुई और 10 नए । राज्यों ने यूरोपीय संघ की सदस्यता ग्रहण की । ये देश है — हंगरी , साइप्रस , चेक गणराज्य , इस्तोनिया , लातविया , लिथुआनिया , माल्टा , पोलैण्ड , स्लोवाकिया और स्लोवेनिया । इनमें से आठ देश तो पूर्व सोवियत गुट के सदस्य रह चुके है ।

 1 जनवरी , 2007 को दो नए ( वलारियों एवं रोमानिया ) ने संप की सदस्यता स्वीकार की । दिसम्बर 2011 को विय सा । पर हस्ताक्षर करने के बाद शिया संभ का 28त सदस्य बन गया । क्रोशिया की सदस्य 1 जुलाई , 2013 में अस्तित्व में । अब यूरोपीय संघ के सदस्यों की कुल संख्या 28 हो । 10 , नव - उपनिवशवाद ( Neoluperialism ) - विकासशील देश उपनिवेश विरोध कर रहे हैं और न अन्तर्राष्ट्रीय महानिदेशक आर केल के प्रस्ताव में नव - उपनिवेशवाद का खतरा बढ़ गया है । पर व व्यवस्था ' थापना चाहते हैं । सिन् । रूप से ' गेट केवल चतुओं के पार से सम्बन्धित नियम ही बनाता रहा है जिनम् । कठिना साथ ‘ सार्क ( उत्तरी विश्व सीटो । नाफ्टा और उ सरकार खिला दिया । आधि बर्बरत भजपूर | | चाहते हैं ।

किन्तु ' गेट के | बढ़ गया है । परम्परागत बनाता रहा है जिनमें मुख्यनिर्मित माल ही सम्मिलित हैं । जबकि उरुग्वे वार्ता के आठवें दौर में परम्परा से हटकर वार्ता क्षेत्र । में विस्तार किया गया तथा पहली बार वार्ता सूची में चार नए क्षेत्रों को शामिल किया गया । ये । क्षेत्र है ) व्यापार से सम्बन्धित निवेश उपाय , ( i ) बौद्धिक सम्पत्ति अधिकार के पहलुओं से सम्बन्धित व्यापार , ( iii ) सेवाओं में व्यापार , तथा ( iv ) कृषि । गैट वार्ता की सूची में यह क्षेत्र । विकसित देशों के आदेश से शामिल किए गए । विकासशील देशों की दृष्टि में इंकेल प्रस्तावों का सर्वाधिक ऋणात्मक पहलू यह है कि यह केवल व्यापार तक ही सीमित नहीं है । इसमें कृषि सब्सिडी , बौद्धिक सम्पदा अधिकार ( पेटेण्ट्स , कॉपीराइट , ट्रेडमार्क आदि ) , विदेशी निवेश उपायों तथा सेवाओं को भी शामिल कर लिया गया है ।

 इस प्रस्ताव में विकासशील देशों की मांगों तथा आवश्यकताओं पर अधिक ध्यान नहीं दिया गया है , केवल विकसित देशों के व्यापार प्रसार तथा हितों को ही आगे बढ़ाने की चेष्टा की गयी है । | 11 , अमेरिका की नई विश्व व्यवस्था ( New World Order ) - खाड़ी युद्ध की समाप्ति के बाद राष्ट्रपति बुश ने ' नई विश्व व्यवस्था ' के निर्माण की बात कही थी , किन्तु उस समय इनकी ' नई विश्व व्यवस्था की अवधारणा स्पष्ट नहीं थी । ऐसा लगता है कि उनकी नई विश्व व्यवस्था का अर्थ है संयुक्त राष्ट्र संघ , विश्व बैंक तथा अन्तर्राष्ट्रीय मुद्राकोष जैसी संस्थाओं पर अमरीकी वर्चस्व स्थापित करना ; अणु अप्रसार सन्धि पर फ्रांस , चीन और भारत जैसे देशों को हस्ताक्षर करने के लिए बाध्य करना ; पश्चिम एशिया समस्या का समाधान अमरीकी घॉस से करना ; भारत को रॉकेट टेक्नोलॉजी देने की मंशा रखने वाले रूस को धमकी देना ।

 आज अमरीका समूचे विश्व को आर्थिक सुधारों के नाम पर पूँजीवादी विकास मार्ग पर धकेलने का । मानस बना चुका है । अमरीकी नीतियों का विरोध करने वाले राष्ट्र को आर्थिक और वित्तीय कठिनाइयों झेलने के लिए तैयार रहना होगा । | 12 , नए संगठनों का आविर्भाव - सीटो , वारसा पैक्ट जैसे संगठनों के पराभव के साथ - साथ राष्ट्रों के मध्य आपसी सहयोग के नए संगठनों ( समूहों ) का निर्माण हुआ है । इनमें ' सार्क ' , ग्रुप - 8 , ग्रुप - 15 , ग्रुप - 24 , ' एशिया प्रशान्त आर्थिक सहयोग संगठन ( एपेक ) ' , नाफ्टा ( उत्तरी अमरीका मुक्त व्यापार समझौता ) हिमतक्षेस , बिम्सटेक , डी - 8 , शंघाई - 6 , एसीडी , जी - 3 , विश्व सामाजिक मंच , खाड़ी सहयोग परिषद आदि के नाम उल्लेखनीय हैं । नाटो , वारसा पैक्ट , सीटो आदि सैन्य संगठन जो शीतयुद्ध की उपज थे अब अप्रासंगिक हो गए हैं और उनका स्थान नाफ्टा , साफ्टा जैसे आर्थिक स्वरूप के संगठनों ने ले लिया है ।

 | 13 . अरब देशों में जनक्रांतियाँ बनाम तानाशाही - 25 जनवरी , 2011 से शुरू अहिंसक और जनवादी आन्दोलन ने 18 दिन के भीतर मिस्र में चली आ रही वर्षों की तानाशाही की सरकार का अन्त कर एक नया इतिहास रचा है । इस क्रांति ने न केवल 30 वर्षों से सत्ता पर काबिज राष्ट्रपति मोहम्मद होस्नी सईद मुबारक को हटाया , बल्कि पूरे विश्व में तानाशाही के खिलाफ लड़ने के लिए जनता को एक नया रास्ता भी दिखाया । वहीं दूसरी तरफ लीबिया में कनल गद्दाफी के विरुद्ध भी जन - आन्दोलन करके 2012 में वहां की जनता ने उन्हें पद से हटा दिया । आज यमन , ईरान , सऊदी अरेबिया हर जगह तानाशाहों के खिलाफ गुस्सा चरम पर है । थक विकास का न होना , युवाओं के सामने रोजगार के अवसर न होना , तानाशाहों का बरतापूर्ण आक्रामक रवैया आदि ऐसे कारण हैं जिन्होंने जनता को जनक्रांति करने के लिए मजबूर कर दिया । ration of | साम्यवाद अब समाप्त की स्थापना 1991 को नाचिह्न हैं

। दुनिया का का के लिए और 10 नए गणराज्य , । इनमें से नए राज्यों लय संधि सदस्यता गई है । शवाद का ' गैट ' के रम्परागत 7 मुख्यतः 14 . दुनिया में एशिया महाद्वीप का बढता प्रभाव - वैश्विक आर्थिक संकट से निकलने में दुनिया की बजाय एशिया महाद्वीप काफी तेजी से आगे बढ़ रहा है । पिछले पांच सालों मेंवैश्विक सकल घरेलू उत्पाद ( जीडीपी ) में चीन की भागीदारी एक - तिहाई तक पहुँच गई है । भारत का हिस्सा 6 फीसदी से बढ़कर 16 फीसदी हो गया है । आज कोई भी अन्तर्राष्ट्रीय समझौता चीन , जापान और भारत के बिना सम्भव नहीं है । यदि एशियाई देश ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन की सीमा को लेकर प्रतिबद्धता दिखाएँ तो कोपेनहेगन शिखर वार्ता में जलवायु परिवर्तन को लेकर सन्धि पर मुहर लग सकती है ।

 इससे भी ज्यादा यदि चीन , भारत और आसियान देश म्यांमार के लोगों के लिए हाल ही पारित प्रस्ताव को आगे बढ़ाएँ या चीन परमाणु हथियारों को लेकर उत्तर कोरिया पर दबाव बढ़ाए तो यह दुनिया कहीं अधिक सुरक्षित महसूस की जा सकती है । भारत - पाकिस्तान , चीन - जापान , जापान - कोरिया जैसी जोड़ियाँ कई मसलों पर गम्भीर रूप से विभाजित हैं । इन विवादों के समाधान में भी भारत और चीन प्रमुख भूमिका निभा सकते हैं । 15 . शंघाई - सहयोग संगठन – ‘ शंघाई - 5 ' पाँच राष्ट्रों के इस समूह का गठन 1996 में सीमा सम्बन्धी समस्याओं के मामले में विश्वास अर्जित करने के लिए किया गया था । वर्तमान में इसका रूपान्तरण शंघाई सहयोग संगठन के रूप में कर दिया गया है तथा इसके सदस्यों की संख्या भी बढ़कर 6 हो गई है ।

 ये 6 राष्ट्र में रूस , चीन , किर्गिस्तान , ताजिकिस्तान , उज्वेकिस्तान एवं कजाखस्तान । 16 . बहुधुवीय विश्व की ओर बढ़ते कदम - 2001 में स्थापित शंघाई सहयोग संगठन तथा उसके जून 2006 में सम्पन्न हुए सम्मेलन ने बहुधुवीय विश्व का संकेत दे दिया है । जैसे - जैसे इस संगठन का विस्तार होगा , समूचे विश्व से अमरीकी वर्चस्व कमजोर होकर बहधुवीय विश्व में बदल जाएगा । निष्कर्ष – अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति गतिशील है , उसमें द्रुतगति से बदलाव आ रहा है । जहाँ । एक ओर पिछले कुछ वर्षों में नई प्रवृत्तियाँ उभरी हैं वहीं दूसरी ओर मुद्दे भी बदले हैं ।

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