पानीपत के तृतीय युद्ध के कारण
बालाजी बाजीराव के पेशवा बनने के पश्चात् भारत में मराठा शक्ति का निरन्तर विकास और विस्तार होता गया । उसके नेतृत्व में मराठों ने भारत के उत्तरी तथा दक्षिणी भागों पर अपना प्रभुत्व स्थापित करके सुदृढ़ मराठा राज्य की स्थापना की । सन् 1760 में मराठों ने सदाशिवराव भाऊ के नेतृत्व में दिल्ली पर अधिकार कर लिया , तत्पश्चात् उन्होंने लाहौर को भी अपने अधीन कर लिया । उन दिनों अहमदशाह अब्दाली भारत पर निरन्तर आक्रमण कर रहा पा । उसने चार बार आक्रमण किया था । मराठों की साम्राज्य विस्तारवादी नीति से दुखी होकर मुगल सरदारों ने मराठों की शक्ति पर नियन्त्रण लगाने के उद्देश्य से अहमदशाह अब्दाली को मराठों पर आक्रमण करने को आमन्त्रित किया । इस प्रकार पाँचवीं बार अब्दाली ने सन् 1761 में भारत पर आक्रमण किया । इस युद्ध को पानीपत का तृतीय युद्ध कहा जाता है ।
| पानीपत के तृतीय युद्ध के मुख्य कारण ( 1 ) दिल्ली दरबार में मराठों का हस्तक्षेप – दिल्ली के राजसिंहासन और उत्तरी भारत की राजनीति में मराठों का हस्तक्षेप सन् 1752 से प्रारम्भ हुआ था । उस वर्ष पेशवा बालाजी बाजीराव ने मुगल बादशाह के साथ एक सन्धि की थी जिसके आधार पर मराठों को सम्पूर्ण भारत से चौध वसूल करने का अधिकार मिल गया और मराठों ने आवश्यकता के समय मुगल बादशाह को सहायता देने का आश्वासन दिया था । इस प्रकार मराठों का दिल्ली तथा उत्तरी भारत की राजनीति से प्रत्यक्ष सम्बन्ध स्थापित हो गया । दूसरी ओर परवर्ती मुगल शासकों की दुर्वलता के कारण सत्ता के प्रश्न पर मुसलमानों के मध्य जो संघर्ष प्रारम्भ हुआ , उस संघर्ष में भी मराठों को हस्तक्षेप करना पड़ा । इस प्रकार उनके बढ़ते हुए राजनीतिक हस्तक्षेप के कारण मुसलमान के लि , वर्ग को उनके प्रति ईष्र्या उत्पन्न हुई और इस वर्ग ने मराठों के विरुद्ध अगटशाह अब्दाली को आमन्त्रित किया था
। ( 2 ) मुगल बादशाह की दुर्बलता - औरंगजेब की सन् 1707 में मृत्यु होने के पश्चात् मुगल राजवंश उत्तरोत्तर पतन की ओर बढ़ता गया । इसी मध्य सन् 1737 में नादिरशाह ने दिल्ली ८२ आक्रमण किया । इस घटना ने मुगलुवंश के शासन की रीढ़ को तोड़ दिया । इसके फलस्वरूप यादशाह की स्थिति इतनी अधिक कमजोर हो गई थी कि कोई भी शक्तिशाली आक्रमणकारीआक्रमण करके मगल साम्राज्य पर अधिकार कर सकता था ने पानीपत के तृतीय युद्ध की भूमिका को तैयार किया था । | ( 3 ) मुगल साम्राज्य में अराजकता का वर के कारण अपनी सुरक्षा के उदेश्य से मराठी का संरक्षण स्वीकार साधनों के कारण मराठे मुगल साम्राज्य में शान्ति व व्यवस्था । सहयोग न कर सके , जिसके फलस्वरूप पूरे साम्राज्य में विशेषज्ञ अराजकता का वातावरण उत्पन्न हो गया । ऐसे वातावरण में बाटी करने के लिए प्रेरित होना स्वाभाविक था ।
रक्षण स्वीकार कर लिया था कि मैं का गति व व्यवस्था कायम रखने में सम्राट को कि ने साम्राज्य में विशेषत : दिल्ली और निकटवर्ती ॥ गया । ऐसे वातावरण में बाहरी आक्रमणकारी का अ ॐ ॥ ९ में पट समाट को अपने के हस्तक्षेप को गरम का प्रश्न उपस्थि युद्ध व के मध्य पानी अहमदशाह में का नेतृत्व स तथा लगभग 14 मराठा सेना - मारे गए । इ परिवार ऐसा को तीव्र आ पराजय की किन्तु अप पराजय के सेना आ | ( 4 ) अहमदशाह अब्दाली की महत्त्वाकांक्षा - पानीपत के युद्ध से पूर्व अफ शाह अब्दाली भारत पर चार बार आक्रमण कर चुका था । वह महान योद्धा व विजे बाजीरावे । माघ एक महत्त्वाकांक्षी सम्राट था । भारत में मराठा शक्ति के उत्कर्ष को उसने । विरुद्ध एक सशक्त चुनौती के रूप में स्वीकार किया और उस शक्ति का दमन करने का निश्च किया ।
अहमदशाह अब्दाली को यह बात कभी स्वीकार नहीं हो सकती थी कि दिल्ली पंज नादौर आदि क्षेत्रों पर मराठा शक्ति का ध्वज फहराता रहे । वह मराठों के इस कार्य को अपने लिए चुनौती समझता था । अहमदशाह अब्दाली अपनी विजयों को सुरक्षित रखने के लिए तर । पान अपनी साम्राज्यवादी महत्त्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए अत्यन्त विशाल सेना रखता था । जिसका खर्च वहन करना अत्यन्त दुष्कर कार्य था । इस व्यय की पूर्ति के लिए उसने पंजाब के उपजाऊ प्रदेश पर अधिकार करने तथा भारतीय सम्पदा को लूटकर धन एकत्र करने का निश्चय किया । इसी निश्चय की परिणति पानीपत के तृतीय युद्ध के रूप में हुई थी । | ( 5 ) मराठों की त्रुटिपूर्ण विदेश नीति – मराठों की विदेश नीति मुख्य रूप से तीन सिद्धान्तों पर थी ) आर्थिक लाभ , ( ब ) मुगल साम्राज्य की सुरक्षा , तथा ( स ) मराठा शक्ति का । प्रसार । इन तीनों सिद्धान्तों को क्रियान्वित करने के उद्देश्य से मराठों ने जिस प्रकार की राजनेर । को अपनाया , उसके फलस्वरूप मुगल , राजपूत तथा अफगान सभी मराठों के शत्र बन गए ।
मराठों ने दिल्ली दरबार की राजनीति के क्षेत्र में चल रही सामन्तों की प्रतिद्वन्द्विता में अनुचित हस्तक्षेप करके मुगलों को अपना शत्रु बना लिया । राजस्थान के राजपूत शासकों के साथ मराठ ने अमानवीय एवं अदूरदर्शितापूर्ण नीति को अपनाया । फलस्वरूप राजपूत , जाट सभी मराठों से । रुष्ट हो गए । इसके अतिरिक्त उन्होंने पंजाब तथा काबुल तक के क्षेत्र पर अधिकार करने की सेना = योजना बनाई , उससे अहमदशाह अब्दाली की राजनीतिक व साम्राज्यवादी महत्त्वाकांक्षा को गहरा आघात पहुंचा । इन योजनाओं ने अब्दाली को मराठों का कट्टर शत्र बना दिया । इस तथ्यों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि मराठों की त्रुटिपूर्ण विदेश नीति ने काफी सीमा तक पानीपत । के तृतीय युद्ध की पृष्ठभूमि का निर्माण किया था । ( 6 ) अफगानों और पेशवाओं की परम्परागत शत्रुता - अफगानों और पेशवाओं के मध्य परम्परागत शत्रुता धीं । सन् 1752 में अहमदशाह अब्दाली ने भारत के रुहेला सरदारों के प्रोगहन पर भारत में प्रवेश किया और लाहौर तथा मुल्तान की सीमाओं को मिला लिया । ।
पंजाब से आधिपत्य समाप्त होने पर मुगल बादशाह चिन्तित होने लगा और उसने मुगल साम्राज्य की सुरक्षा के लिए मराठी के संरक्षण में रहना उचित समझा । पेशवा बालाजी बाजीराव ने मुगल बादशाह को संरक्षण प्रदान किया । इसके अतिरिक्त होल्कर व सिंधिया जैसे मराठी सरदारों को चौथ देना भी मुगल बादशाह ने स्वीकार कर लिया । इन घटनाओं ने अहमदशाह अब्दाली और पेशवा के मध्य शत्रुता को और अधिक बढ़ा दिया । वस्तुतः अब्दाली स्वयं मुगलसम्राट को अपने अधीन करना चाहता था , किन्तु दूसरी ओर पेशवा भी मुगल साम्राज्य से अपने तक्षेप को समाप्त करने को तैयार नहीं था । इस प्रकार अफगानों व पेशवाओं के मध्य अस्तित्व प्रश्न उपस्थित हो गया जिसका निर्णय पानीपत के युद्ध में हुआ । युद्ध का प्रारम्भ और अन्त – उपर्युक्त परिस्थितियों के अन्तर्गत अफगानों व पेशवाओं के मध्य पानीपत के तृतीय युद्ध की पृष्ठभूमि तैयार हुई ।
मुगल सरदारों का निमंत्रण पाकर अहमदशाह अब्दाली अपनी सेना के साथ पानीपत के मैदान में आ डटा । दूसरी ओर मराठा सेना का नेतृत्व सदाशिवराव भाऊ तथा विश्वासराव कर रहे थे । विश्वासराव पेशवा बालाजी बाजीराव का पुत्र था । दोनों पक्षों की सेनाएँ नवम्बर , 1760 ई . में युद्ध के मैदान में पहुँच गई थीं । तथा लगभग दो माह तक युद्ध किए बिना आमने - सामने खड़ी रहीं । | 14 जनवरी , 1761 ई . को मराठों की सेना ने अफगानों पर आक्रमण किया । इस युद्ध में मराठा सेना का व्यापक संहार हुआ । विश्वासराव , सदाशिवराव , तुकोजी सिंधिया आदि युद्ध में । मारे गए । इस युद्ध में मराठों की भीषण पराजय हुई । यह कहा जाता है कि महाराष्ट्र का एक भी । परिवार ऐसा नहीं था जिसके किसी न किसी सदस्य की इस युद्ध में मृत्यु न हुई हो ।
| पानीपत के तृतीय युद्ध में मराठों की पराजय तथा व्यापक विनाश से बालाजी बाजीराव को तीव्र आघात पहुंचा जिसके कारण 23 जून , 1761 ई . को उसकी मृत्यु हो गई । | पानीपत के युद्ध में मराठों की पराजय के कारण पानीपत का तृतीय युद्ध ऐतिहासिक दृष्टि से जितना महत्त्वपूर्ण है . उस युद्ध में मराठों की पराजय की घटना भी उतनी ही महत्त्वपूर्ण है । उस समय भारत में मराठा शक्ति चरमोत्कर्ष पर थी । किन्तु अफगानों के विरुद्ध युद्ध में उसे भीषण पराजय को स्वीकार करना पड़ा । मराठों की पराजय के मुख्य कारण निम्नलिखित थे ( 1 ) वित्तीय संकट और पेशवा की उदासीनता - यह सर्वविदित है कि उस समय मराठा सेना आर्थिक अभाव से ग्रस्त थी ।
इस संकट को दूर करने के लिए मराठा सरदार सदाशिवराव भाऊ ने पेशवा बालाजी बाजीराव के समक्ष कुछ सुझाव प्रस्तुत किए थे , किन्तु पेशवा ने उन सुझावों पर गम्भीरतापूर्वक विचार नहीं किया । धनाभाव की परिस्थिति में ही पेशवा ने भाऊ को सेना ले जाने का निर्देश दे दिया । इस प्रकार वित्तीय संकट जैसी गम्भीर समस्या से ग्रस्त मराठा सेना अफगानों का सामना किस प्रकार कर सकती थी । पेशवा की उदासीन नीति ने मराठों की पराजय का मार्ग प्रशस्त कर दिया था । । ( 2 ) कुशल नेतृत्व का अभाव - मराठों की पराजय के लिए सदाशिवराव भाऊ के नेतत्व को सर्वाधिक उत्तरदायी माना जाता है । यद्यपि वह वीर व साहसी था ,
तथापि उसके व्यक्तित्व में कूटनीतिक योग्यता का सर्वथा अभाव था । पानीपत के मैदान में उसने मराठा सेना को दो महीने तक अनावश्यक रूप से रोककर अफगानों को युद्ध की तैयारी करने का पूरा अवसर प्रदान कर दिया । जब युद्ध में विश्वासराव मारा गया तो भावावेश में आकर भाऊ स्वयं युद्ध में कूद पड़ा । उसका यह निर्णय उचित नहीं था । उसने किसी रिजर्व सेना की व्यवस्था नहीं की जिसका प्रयोग विपत्ति के समय किया जाता । यद्यपि मराठा सेना के पास शत्रु सेना की तुलना में अश्व सेना तथा खाना श्रेष्ठ स्थिति में थे . तथापि सदाशिवराव भाऊ उनका उचित उपयोग नहीं कर सका । इन कारणों से भाऊ की नेतृत्व क्षमता एवं कुटनीतिक योग्यता पर प्रश्नचिह्न लग जाता है । * अनेक इतिहासकारों ने अकुशल नेतृत्व को पानीपत के युद्ध में मराठों की पराजय के रने की ने गहरा थ्यों के नीपत मध्य रों के या । गुगल राव लिए उत्तरदायी बताया है ।( 3 ) दोषपूर्ण प्रशासन – मराठों की प्रशासनिक व्यवस्था दोषपूर्ण थी ।
उ के विस्तार से पूर्व अपनी राजनीतिक व आर्थिक स्थिति को सुदृढ़ बनाने की ओर से दिया । जैसे - जैसे मराठा राज्य का विस्तार हुआ प्रत्येक मराठा सामन्त स्वयं अपनी का बन गया । उन सामन्तों ने सुदूर भागों पर अपना व्यक्तिगत प्रभाव स्थापित कर लिया । चलकर उन्होंने उन क्षेत्रों को अपना स्वतन्त्र कार्य - क्षेत्र बना लिया । इस पर प्रशासनिक व्यवस्था के कारण मराठी संघ पूर्णतः शक्तिहीन हो गया । इस दोष का उल्ले हा डॉ एस एन . सेन ने लिखा है - " मराठा साम्राज्य अन्ततोगत्वा पवित्र रोमन साम्राज्य की बन गया और मराठा संघ महत्वाकांक्षी सामन्तों का एक ढीला - ढाला संघ बन गया । " | ( 4 ) सैन्य संगठन का अभाव - मराठा - इतिहास के प्रसिद्ध विद्वान डॉ . सेन का यह मत । कि पानीपत के तृतीय युद्ध में मराठों की पराजय के लिए जितना दोषपूर्ण मराठा प्रशासन था । उससे अधिक उत्तरदायी उनका त्रुटिपूर्ण सैन्य संगठन था ।
मराठों ने दक्षिण में छापामार नीति का प्रयोग किया था । वस्तुतः वे इसी युद्ध - कला में निपुण थे । किन्तु उन्होंने उत्तरी भारत में इस नीति का परित्याग कर दिया । इसके विपरीत अफगानों को खुले मैदान में आमने - सामने युद्ध करने की । कला का पूर्ण ज्ञान था । इसीलिए मराठों को पानीपत के युद्ध में पराजय का मुंह देखना पड़ा । ( 5 ) अहमदशाह अब्दाली की सैनिक योग्यता - सैनिक योग्यता की दृष्टि से अहमदशाह अब्दाली अपने समय का अद्वितीय रणनीतिज्ञ था । वह कुशल सेनानायक एवं महान योद्धा था । उसकी योग्यता के विषय में नादिरशाह ने कहा था - ईरान , तूरान , अथवा हिन्दुओं में मैंने अहमदशाह के समान चरित्र और क्षमता वाला व्यक्ति नहीं देखा । " अब्दाली ने महान दूरदर्शिता । का परिचय देते हुए मराठा सैनिकों को पहुँचने वाली खाद्य एवं अन्य रसद सामग्री के स्रोतों एवं मार्गों पर अपना अधिकार कर लिया और मराठा सेना की पराजय को सुनिश्चित कर दिया ।
| ( 6 ) पर्याप्त सेना का अभाव - अफगानों की तुलना में मराठा सैनिकों की संख्या काफी कम थी । अफगान सैनिकों की संख्या 60 हजार थी जबकि मराठा सेना 45 हजार थी । इसके बावजूद मराठा शिविर में ऐसे नर - नारियों की बहुत बड़ी संख्या थी जिनका युद्ध से कोई सम्बन्ध नहीं था । इस बेकार की भीड़ के होने के दो दुष्परिणाम हुआ — प्रथम सेना के व्यय का भार अनावश्यक रूप से बढ़ गया जबकि सेना धनाभाव के संकट से ग्रस्त थी , तथा द्वितीय , अनावश्यक भीड़ के कारण युद्ध की तैयारी में व्यवधान उत्पन्न हो गया । | ( 7 ) मराठा सरदारों का विश्वासघात एवं असहयोग - निस्संदेह यह कहा जा सकता है । कि पानीपत के तृतीय युद्ध में यदि मराठा सरदार मल्हारराव होल्कर बुन्देला सरदार गोविन्द पंत ।
आदि सरदारों का विश्वास व सहयोग मराठा सैनिकों और सेनानायकों को प्राप्त होता तो उस युद्ध में मराठों की पराजय नहीं होती । मराठा सरदार होल्कर ने भाऊ को युद्ध के मैदान में सहयोग नहीं किया तथा विश्वासघात करके वहाँ से भाग गया । इसी प्रकार गोविन्द पंत बुन्देले ने भाऊ के यातायात का उचित प्रबन्ध ने करके तथा वांछित धन की आपूर्ति की व्यवस्था न करके मराठों की पराजय को आसान कर दिया । | ( 8 ) मराठों में अनुशासन का अभाव - मराठा सरदारों और सैनिकों में अनुशासन एवं टीम भावना का सर्वथा अभाव था । उन्होंने अहमदशाह अब्दाली के विरुद्ध संगठित होकर सुनियोजित ढंग से युद्ध नहीं लड़ा । समान शत्रु के विरुद्ध संकट के समय एक सर्वमान्य नेतृत्व के अन्तर्गत यदि मराठी शक्ति ने युद्ध में भाग लिया होता तो सम्भवतः परिणाम कुछ और ही होता !
| पानीपत के तृतीय युद्ध के मुख्य कारण ( 1 ) दिल्ली दरबार में मराठों का हस्तक्षेप – दिल्ली के राजसिंहासन और उत्तरी भारत की राजनीति में मराठों का हस्तक्षेप सन् 1752 से प्रारम्भ हुआ था । उस वर्ष पेशवा बालाजी बाजीराव ने मुगल बादशाह के साथ एक सन्धि की थी जिसके आधार पर मराठों को सम्पूर्ण भारत से चौध वसूल करने का अधिकार मिल गया और मराठों ने आवश्यकता के समय मुगल बादशाह को सहायता देने का आश्वासन दिया था । इस प्रकार मराठों का दिल्ली तथा उत्तरी भारत की राजनीति से प्रत्यक्ष सम्बन्ध स्थापित हो गया । दूसरी ओर परवर्ती मुगल शासकों की दुर्वलता के कारण सत्ता के प्रश्न पर मुसलमानों के मध्य जो संघर्ष प्रारम्भ हुआ , उस संघर्ष में भी मराठों को हस्तक्षेप करना पड़ा । इस प्रकार उनके बढ़ते हुए राजनीतिक हस्तक्षेप के कारण मुसलमान के लि , वर्ग को उनके प्रति ईष्र्या उत्पन्न हुई और इस वर्ग ने मराठों के विरुद्ध अगटशाह अब्दाली को आमन्त्रित किया था
। ( 2 ) मुगल बादशाह की दुर्बलता - औरंगजेब की सन् 1707 में मृत्यु होने के पश्चात् मुगल राजवंश उत्तरोत्तर पतन की ओर बढ़ता गया । इसी मध्य सन् 1737 में नादिरशाह ने दिल्ली ८२ आक्रमण किया । इस घटना ने मुगलुवंश के शासन की रीढ़ को तोड़ दिया । इसके फलस्वरूप यादशाह की स्थिति इतनी अधिक कमजोर हो गई थी कि कोई भी शक्तिशाली आक्रमणकारीआक्रमण करके मगल साम्राज्य पर अधिकार कर सकता था ने पानीपत के तृतीय युद्ध की भूमिका को तैयार किया था । | ( 3 ) मुगल साम्राज्य में अराजकता का वर के कारण अपनी सुरक्षा के उदेश्य से मराठी का संरक्षण स्वीकार साधनों के कारण मराठे मुगल साम्राज्य में शान्ति व व्यवस्था । सहयोग न कर सके , जिसके फलस्वरूप पूरे साम्राज्य में विशेषज्ञ अराजकता का वातावरण उत्पन्न हो गया । ऐसे वातावरण में बाटी करने के लिए प्रेरित होना स्वाभाविक था ।
रक्षण स्वीकार कर लिया था कि मैं का गति व व्यवस्था कायम रखने में सम्राट को कि ने साम्राज्य में विशेषत : दिल्ली और निकटवर्ती ॥ गया । ऐसे वातावरण में बाहरी आक्रमणकारी का अ ॐ ॥ ९ में पट समाट को अपने के हस्तक्षेप को गरम का प्रश्न उपस्थि युद्ध व के मध्य पानी अहमदशाह में का नेतृत्व स तथा लगभग 14 मराठा सेना - मारे गए । इ परिवार ऐसा को तीव्र आ पराजय की किन्तु अप पराजय के सेना आ | ( 4 ) अहमदशाह अब्दाली की महत्त्वाकांक्षा - पानीपत के युद्ध से पूर्व अफ शाह अब्दाली भारत पर चार बार आक्रमण कर चुका था । वह महान योद्धा व विजे बाजीरावे । माघ एक महत्त्वाकांक्षी सम्राट था । भारत में मराठा शक्ति के उत्कर्ष को उसने । विरुद्ध एक सशक्त चुनौती के रूप में स्वीकार किया और उस शक्ति का दमन करने का निश्च किया ।
अहमदशाह अब्दाली को यह बात कभी स्वीकार नहीं हो सकती थी कि दिल्ली पंज नादौर आदि क्षेत्रों पर मराठा शक्ति का ध्वज फहराता रहे । वह मराठों के इस कार्य को अपने लिए चुनौती समझता था । अहमदशाह अब्दाली अपनी विजयों को सुरक्षित रखने के लिए तर । पान अपनी साम्राज्यवादी महत्त्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए अत्यन्त विशाल सेना रखता था । जिसका खर्च वहन करना अत्यन्त दुष्कर कार्य था । इस व्यय की पूर्ति के लिए उसने पंजाब के उपजाऊ प्रदेश पर अधिकार करने तथा भारतीय सम्पदा को लूटकर धन एकत्र करने का निश्चय किया । इसी निश्चय की परिणति पानीपत के तृतीय युद्ध के रूप में हुई थी । | ( 5 ) मराठों की त्रुटिपूर्ण विदेश नीति – मराठों की विदेश नीति मुख्य रूप से तीन सिद्धान्तों पर थी ) आर्थिक लाभ , ( ब ) मुगल साम्राज्य की सुरक्षा , तथा ( स ) मराठा शक्ति का । प्रसार । इन तीनों सिद्धान्तों को क्रियान्वित करने के उद्देश्य से मराठों ने जिस प्रकार की राजनेर । को अपनाया , उसके फलस्वरूप मुगल , राजपूत तथा अफगान सभी मराठों के शत्र बन गए ।
मराठों ने दिल्ली दरबार की राजनीति के क्षेत्र में चल रही सामन्तों की प्रतिद्वन्द्विता में अनुचित हस्तक्षेप करके मुगलों को अपना शत्रु बना लिया । राजस्थान के राजपूत शासकों के साथ मराठ ने अमानवीय एवं अदूरदर्शितापूर्ण नीति को अपनाया । फलस्वरूप राजपूत , जाट सभी मराठों से । रुष्ट हो गए । इसके अतिरिक्त उन्होंने पंजाब तथा काबुल तक के क्षेत्र पर अधिकार करने की सेना = योजना बनाई , उससे अहमदशाह अब्दाली की राजनीतिक व साम्राज्यवादी महत्त्वाकांक्षा को गहरा आघात पहुंचा । इन योजनाओं ने अब्दाली को मराठों का कट्टर शत्र बना दिया । इस तथ्यों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि मराठों की त्रुटिपूर्ण विदेश नीति ने काफी सीमा तक पानीपत । के तृतीय युद्ध की पृष्ठभूमि का निर्माण किया था । ( 6 ) अफगानों और पेशवाओं की परम्परागत शत्रुता - अफगानों और पेशवाओं के मध्य परम्परागत शत्रुता धीं । सन् 1752 में अहमदशाह अब्दाली ने भारत के रुहेला सरदारों के प्रोगहन पर भारत में प्रवेश किया और लाहौर तथा मुल्तान की सीमाओं को मिला लिया । ।
पंजाब से आधिपत्य समाप्त होने पर मुगल बादशाह चिन्तित होने लगा और उसने मुगल साम्राज्य की सुरक्षा के लिए मराठी के संरक्षण में रहना उचित समझा । पेशवा बालाजी बाजीराव ने मुगल बादशाह को संरक्षण प्रदान किया । इसके अतिरिक्त होल्कर व सिंधिया जैसे मराठी सरदारों को चौथ देना भी मुगल बादशाह ने स्वीकार कर लिया । इन घटनाओं ने अहमदशाह अब्दाली और पेशवा के मध्य शत्रुता को और अधिक बढ़ा दिया । वस्तुतः अब्दाली स्वयं मुगलसम्राट को अपने अधीन करना चाहता था , किन्तु दूसरी ओर पेशवा भी मुगल साम्राज्य से अपने तक्षेप को समाप्त करने को तैयार नहीं था । इस प्रकार अफगानों व पेशवाओं के मध्य अस्तित्व प्रश्न उपस्थित हो गया जिसका निर्णय पानीपत के युद्ध में हुआ । युद्ध का प्रारम्भ और अन्त – उपर्युक्त परिस्थितियों के अन्तर्गत अफगानों व पेशवाओं के मध्य पानीपत के तृतीय युद्ध की पृष्ठभूमि तैयार हुई ।
मुगल सरदारों का निमंत्रण पाकर अहमदशाह अब्दाली अपनी सेना के साथ पानीपत के मैदान में आ डटा । दूसरी ओर मराठा सेना का नेतृत्व सदाशिवराव भाऊ तथा विश्वासराव कर रहे थे । विश्वासराव पेशवा बालाजी बाजीराव का पुत्र था । दोनों पक्षों की सेनाएँ नवम्बर , 1760 ई . में युद्ध के मैदान में पहुँच गई थीं । तथा लगभग दो माह तक युद्ध किए बिना आमने - सामने खड़ी रहीं । | 14 जनवरी , 1761 ई . को मराठों की सेना ने अफगानों पर आक्रमण किया । इस युद्ध में मराठा सेना का व्यापक संहार हुआ । विश्वासराव , सदाशिवराव , तुकोजी सिंधिया आदि युद्ध में । मारे गए । इस युद्ध में मराठों की भीषण पराजय हुई । यह कहा जाता है कि महाराष्ट्र का एक भी । परिवार ऐसा नहीं था जिसके किसी न किसी सदस्य की इस युद्ध में मृत्यु न हुई हो ।
| पानीपत के तृतीय युद्ध में मराठों की पराजय तथा व्यापक विनाश से बालाजी बाजीराव को तीव्र आघात पहुंचा जिसके कारण 23 जून , 1761 ई . को उसकी मृत्यु हो गई । | पानीपत के युद्ध में मराठों की पराजय के कारण पानीपत का तृतीय युद्ध ऐतिहासिक दृष्टि से जितना महत्त्वपूर्ण है . उस युद्ध में मराठों की पराजय की घटना भी उतनी ही महत्त्वपूर्ण है । उस समय भारत में मराठा शक्ति चरमोत्कर्ष पर थी । किन्तु अफगानों के विरुद्ध युद्ध में उसे भीषण पराजय को स्वीकार करना पड़ा । मराठों की पराजय के मुख्य कारण निम्नलिखित थे ( 1 ) वित्तीय संकट और पेशवा की उदासीनता - यह सर्वविदित है कि उस समय मराठा सेना आर्थिक अभाव से ग्रस्त थी ।
इस संकट को दूर करने के लिए मराठा सरदार सदाशिवराव भाऊ ने पेशवा बालाजी बाजीराव के समक्ष कुछ सुझाव प्रस्तुत किए थे , किन्तु पेशवा ने उन सुझावों पर गम्भीरतापूर्वक विचार नहीं किया । धनाभाव की परिस्थिति में ही पेशवा ने भाऊ को सेना ले जाने का निर्देश दे दिया । इस प्रकार वित्तीय संकट जैसी गम्भीर समस्या से ग्रस्त मराठा सेना अफगानों का सामना किस प्रकार कर सकती थी । पेशवा की उदासीन नीति ने मराठों की पराजय का मार्ग प्रशस्त कर दिया था । । ( 2 ) कुशल नेतृत्व का अभाव - मराठों की पराजय के लिए सदाशिवराव भाऊ के नेतत्व को सर्वाधिक उत्तरदायी माना जाता है । यद्यपि वह वीर व साहसी था ,
तथापि उसके व्यक्तित्व में कूटनीतिक योग्यता का सर्वथा अभाव था । पानीपत के मैदान में उसने मराठा सेना को दो महीने तक अनावश्यक रूप से रोककर अफगानों को युद्ध की तैयारी करने का पूरा अवसर प्रदान कर दिया । जब युद्ध में विश्वासराव मारा गया तो भावावेश में आकर भाऊ स्वयं युद्ध में कूद पड़ा । उसका यह निर्णय उचित नहीं था । उसने किसी रिजर्व सेना की व्यवस्था नहीं की जिसका प्रयोग विपत्ति के समय किया जाता । यद्यपि मराठा सेना के पास शत्रु सेना की तुलना में अश्व सेना तथा खाना श्रेष्ठ स्थिति में थे . तथापि सदाशिवराव भाऊ उनका उचित उपयोग नहीं कर सका । इन कारणों से भाऊ की नेतृत्व क्षमता एवं कुटनीतिक योग्यता पर प्रश्नचिह्न लग जाता है । * अनेक इतिहासकारों ने अकुशल नेतृत्व को पानीपत के युद्ध में मराठों की पराजय के रने की ने गहरा थ्यों के नीपत मध्य रों के या । गुगल राव लिए उत्तरदायी बताया है ।( 3 ) दोषपूर्ण प्रशासन – मराठों की प्रशासनिक व्यवस्था दोषपूर्ण थी ।
उ के विस्तार से पूर्व अपनी राजनीतिक व आर्थिक स्थिति को सुदृढ़ बनाने की ओर से दिया । जैसे - जैसे मराठा राज्य का विस्तार हुआ प्रत्येक मराठा सामन्त स्वयं अपनी का बन गया । उन सामन्तों ने सुदूर भागों पर अपना व्यक्तिगत प्रभाव स्थापित कर लिया । चलकर उन्होंने उन क्षेत्रों को अपना स्वतन्त्र कार्य - क्षेत्र बना लिया । इस पर प्रशासनिक व्यवस्था के कारण मराठी संघ पूर्णतः शक्तिहीन हो गया । इस दोष का उल्ले हा डॉ एस एन . सेन ने लिखा है - " मराठा साम्राज्य अन्ततोगत्वा पवित्र रोमन साम्राज्य की बन गया और मराठा संघ महत्वाकांक्षी सामन्तों का एक ढीला - ढाला संघ बन गया । " | ( 4 ) सैन्य संगठन का अभाव - मराठा - इतिहास के प्रसिद्ध विद्वान डॉ . सेन का यह मत । कि पानीपत के तृतीय युद्ध में मराठों की पराजय के लिए जितना दोषपूर्ण मराठा प्रशासन था । उससे अधिक उत्तरदायी उनका त्रुटिपूर्ण सैन्य संगठन था ।
मराठों ने दक्षिण में छापामार नीति का प्रयोग किया था । वस्तुतः वे इसी युद्ध - कला में निपुण थे । किन्तु उन्होंने उत्तरी भारत में इस नीति का परित्याग कर दिया । इसके विपरीत अफगानों को खुले मैदान में आमने - सामने युद्ध करने की । कला का पूर्ण ज्ञान था । इसीलिए मराठों को पानीपत के युद्ध में पराजय का मुंह देखना पड़ा । ( 5 ) अहमदशाह अब्दाली की सैनिक योग्यता - सैनिक योग्यता की दृष्टि से अहमदशाह अब्दाली अपने समय का अद्वितीय रणनीतिज्ञ था । वह कुशल सेनानायक एवं महान योद्धा था । उसकी योग्यता के विषय में नादिरशाह ने कहा था - ईरान , तूरान , अथवा हिन्दुओं में मैंने अहमदशाह के समान चरित्र और क्षमता वाला व्यक्ति नहीं देखा । " अब्दाली ने महान दूरदर्शिता । का परिचय देते हुए मराठा सैनिकों को पहुँचने वाली खाद्य एवं अन्य रसद सामग्री के स्रोतों एवं मार्गों पर अपना अधिकार कर लिया और मराठा सेना की पराजय को सुनिश्चित कर दिया ।
| ( 6 ) पर्याप्त सेना का अभाव - अफगानों की तुलना में मराठा सैनिकों की संख्या काफी कम थी । अफगान सैनिकों की संख्या 60 हजार थी जबकि मराठा सेना 45 हजार थी । इसके बावजूद मराठा शिविर में ऐसे नर - नारियों की बहुत बड़ी संख्या थी जिनका युद्ध से कोई सम्बन्ध नहीं था । इस बेकार की भीड़ के होने के दो दुष्परिणाम हुआ — प्रथम सेना के व्यय का भार अनावश्यक रूप से बढ़ गया जबकि सेना धनाभाव के संकट से ग्रस्त थी , तथा द्वितीय , अनावश्यक भीड़ के कारण युद्ध की तैयारी में व्यवधान उत्पन्न हो गया । | ( 7 ) मराठा सरदारों का विश्वासघात एवं असहयोग - निस्संदेह यह कहा जा सकता है । कि पानीपत के तृतीय युद्ध में यदि मराठा सरदार मल्हारराव होल्कर बुन्देला सरदार गोविन्द पंत ।
आदि सरदारों का विश्वास व सहयोग मराठा सैनिकों और सेनानायकों को प्राप्त होता तो उस युद्ध में मराठों की पराजय नहीं होती । मराठा सरदार होल्कर ने भाऊ को युद्ध के मैदान में सहयोग नहीं किया तथा विश्वासघात करके वहाँ से भाग गया । इसी प्रकार गोविन्द पंत बुन्देले ने भाऊ के यातायात का उचित प्रबन्ध ने करके तथा वांछित धन की आपूर्ति की व्यवस्था न करके मराठों की पराजय को आसान कर दिया । | ( 8 ) मराठों में अनुशासन का अभाव - मराठा सरदारों और सैनिकों में अनुशासन एवं टीम भावना का सर्वथा अभाव था । उन्होंने अहमदशाह अब्दाली के विरुद्ध संगठित होकर सुनियोजित ढंग से युद्ध नहीं लड़ा । समान शत्रु के विरुद्ध संकट के समय एक सर्वमान्य नेतृत्व के अन्तर्गत यदि मराठी शक्ति ने युद्ध में भाग लिया होता तो सम्भवतः परिणाम कुछ और ही होता !
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