Saturday, June 29, 2019

दोनों आंग्ल सिख युद्ध तथा पंजाब का ब्रिटिश साम्राज्य में विलय

रणजीतसिंह की मृत्यु के पश्चात् पंजाब की शोचनीय दशा - 27 जून , 183 ) यो रणजीतसिंह की मृत्यु हो गई और उसकी मृत्यु के पश्चात् जाम में अशान्ति । अराजकता फैल गई । रणजीतसिंह की मृत्यु के पश्चात् जुलाई , 183 ) में उसका रासे बड़ा पुत्र गहि गही पर बैठा । एक पड्यन्त्र में गड़गिह को बन्दी बनाकर कारावास में डाल दिया गया । इससे पश्चात् खड्गसिंह का पुत्र नौनिहालहि अवर 1834 ) में गद्दी पर ठा । 5 नवम्बर , 1810 ई . को खड्गसिंह की कारावास में मृत्यु हो गई और उसी दिन नौनिहालसिंह था भी देहान्त हो गया । इसके पश्चात् शेरसिंह गद्दी पर बैठा परन्तु 1845 ई . में शेरसिंह और मानसिंह की हत्या कर दी ।

 गई । अन्त में 1845 ई . में रणजीतसिंह ने अल्पवयस्क पुत्र दिलीपसिंह को लाहौर की गद्दी पर बिठाया गया और उसकी माता जिन्दल कौर को उसका संर । तथा लालसिंह को प्रधानमन्त्री नियक्त किया गया । इस प्रकार पंजाब में फैली हुई अव्यवस्था और अराजकता का लाभ उठाकर अंग्रेजों ने पंजाब पर अपना आधिपत्य स्थापित करने का निश्चय कर लिया । प्रथम सिक्ख युद्ध के कारण ( 1845 - 46 ई . ) प्रथम सिख युद्ध के कारण पलिखित थे 1 ) पंजाब में अशान्ति एवं अराजकता - 1834 ) ई . में रणजीत की मृत्यु हो गई और पंजाब में अशान्ति और अराजकता फैल गई ।

 रणजीतसिंह के उत्तराधिकारियों में सत्ता प्राप्ति केलिए भारी रक्तपात हुआ , जिसके फलस्वरूप लाहोर - दरबार पड्यन्त्रों का केन्द्र बन् शेरमिट ध्यानसिंह , हीरासिंह जवाहरांसह आदि को अपने प्राणों से हाथ धोने पड़े । अतः । ने पंजाब में फैली हुई अशान्ति एवं अव्यवस्था का लाभ उठाकर अपना प्रभुत्व स्थापित की । निश्चय कर लिया । | ( 2 ) अंग्रेजी की पंजाव का घेरने की नीति - - अंग्रेजी कम्पनी पंजाब पर अपना आधि । स्थापित करने के लिए कटिबद्ध थी । लार्ड एटनबरो ने भारत आते ही सतलज सीमा पर सै । तैयारी आर कर दी और जून , 1842 ई . में उसने 15 हजार सैनिकों को सरहिन्द में नियुक्त है । दिया ।

अंग्रेजों ने पंजाब को घेरने की नीति अपनायी और 1843 ई . में सिन्ध को ब्रिटिश साम्राः । में सम्मिलित कर लिया । इससे सिक्खों और अंग्रेजों में मनमुटाव बढ़ गया । ( 3 ) अंग्रेजों की संनिक तैयारियां - - अंग्रेजों ने पंजाब पर आधिपत्य करने के लिए सैनि । तैयारियां शुरु कर दीं । उन्होंने सैनिक नावों का एक बेड़ा तैयार कर लिया और इसे 18453 फिरोजपुर भेज दिया । इसके अतिरिक्त उन्होंने अपनी सैनिक टुकड़ियों को सतलज नदी की । बढ़ाना शुरु कर दिया । इसके अतिरिक्त फिरोजपुर , लुधियाना , अम्बाला आदि स्थानों पर सैनिक टुकड़ियां रखी गई । अंग्रेजों की सैनिक तैयारियों को देखकर सिक्खों का क्रुद्ध होना स्वाभाविक था । ।

 ( 4 ) प्रथम आफणन युद्ध - - 1839 ई . से लेकर 1942 ई . तक अंग्रेजों और अफगानों । भीषण युद्ध हुआ । इस युद्ध में अंग्रेजों को बुरी तरह पराजय हुई और जन - धन की दृष्टि से उने भारी क्षति उठानी पड़ी । अंग्रेजों की पराजय से सिक्खों को प्रोत्साहन मिला और वे सोचने लो । कि अंग्रेज अजेय नहीं हैं और उन्हें पराजित किया जा सकता है । | ( 5 ) अजा की उतेजनापण कार्यवाही - अंग्रेज पंजाब पर अपना आधिपत्य स्थापित करना चाहते थे । उन्होंने मेजर ब्राडफुट को लुधियाना में प्रिटिश रेजीडेण्ट नियुक्त किया । । ठमादी व्यक्ति था । उसने घोषणा कर दी कि दिलीपसिंह के सतलज नदी के दक्षिण में स्थि । प्रदेश भविष्य में अपेओं की अधीनता में समझे जायेंगे । उसकी उत्तेजनापूर्ण घोषणा से सिक्य यडे क्रुद्ध हुए और उन्होंने अपनी मानूभूमि पंजाब की रक्षा का दृढ़ संकल्प कर लिया । |

 ( 6 ) शिव सेना का अनियन्त्रित होना – णजीतसिंह की मृत्यु के पश्चात् सिक्ख सेन । अनुशासनहीन और अनियन्त्रित हो गई । रानी जिन्दल कौर और प्रधानमन्त्री लालसिंह सिक्छ सेना के प्रभाव को कम करना चाहते थे । उन्होंने सिक्ख सेना को नियन्त्रित करने के लिए उसे | अंगेज के विरुद्ध जडो के लिए भड़काना शुरु कर दिया । उन्होंने सिख सेना में यह प्रचार | करना कर दिया कि अंग्रेज पंजाब पर अधिकार करने के लिए द - प्रतिज्ञ हैं । | ( 7 ) ताकालिया वारण - सिक्यों द्वारा सतलज नदी को पार करना - सिक्ख नेताओं के काय जान पर सिख सेना ने आज के विरुद्ध युद्ध करने का निश्चय कर लिया । । अनेक सिम्स गे मटियों ने 11 से 14 दिसम्बर , 1835 ई . के मध्य सतलज नदी को पार । विश । दूरी और अपर भी रिक्त सेनाओं से टक्कर लेने के लिए कटिबद्ध थे । तत्कालीन रनर जनरत लाई हगि ने 13 दिसम्बर , 115 को रियों के विरुद्ध युद्ध घोषणा कर दी ।

 प्रवण सिस् ] युद्ध की घटनाये - - 18 दिसम्बर 1845 ई . को सिक्खों और अप गुदा नामक स्थान पर भीषण युद्ध । जय सिम की विजय रहने वाली थी , उसे । सीमित को उस रेजीडेन * भवा लाव और को । गनापति लालारा ने विश्वासघात किया और नेततिरीन सेना को छोड़ कर पद्ध । निकला । अत : सिाब को पराजय वा । देखना पड़ा । इसके पश्चात् 21 दिसम्बर , कर पुद्ध क्षेत्र में भाग 1 21 दिसम्बर 1845 कोफिरोजशाह नामक स्थान पर दोनों पक्ष में घमासान युद्ध हुआ । इस युद्ध में सिखों ने अटभूत वीरता का प्रदर्शन किया परन्तु सिक्ख सेनापति तेजासिंह के विश्वास्यात के कारण सिक्खों की पराजय हुई । सिक्खों तथा अंग्रेजों के मध्य अन्तिम तथा निर्णायक युद्ध 10 फरवरी , 1846 ई . को रबराय नामक स्थान पर आ । सिक्ख नेता लालसिह , तेजासिंह तथा गुलाबसिह अंग्रेजों से मिले हुए थे तथा सिबु सेना को पराजित कराने के लिए कटिवद्ध थे ।

 वारा जाता है कि युद्ध शुरु होने के तीन दिन पूर्व ही लालसिंह ने अंग्रेजों को सिक्खों की स्थिति की योजना का एक मानचित्र भेज दिया था । सिख सेनापतियों के विश्वासघात के बावजूद सिक्ख सेनाओं ने अंग्रेजों का वीरतापूर्वक मुकाबला किया परन्तु अन्त में उन्हें पराजित होना पड़ा । इस युद्ध में सिक्खों को भारी क्षति उठानी पड़ी । उनके 8 - 10 हजार सैनिक मारे गए । शेजों ने सबराबी की विजय के पश्चात् 20 फरवरी , 1846 को लाहौर पर भी अधिकार कर लिया । 19 मार्च , 1846 को अंग्रेजों और सिखों के मैच एक सन्धि हो गई जिसे लाहोर को सन्धि कहते हैं । लाहौर की सन्धि – स सन्धि की मुख्य शर्ते निम्नलिखित थी ( 1 ) महाराजा दिलीपसिंह ने रतलज नदी के दक्षिण में स्थित सभी प्रदेशों पर अपना दावा त्याग दिया । ( 2 ) उसने व्यास तथा सतलज नदियों के बीच स्थित दोआब के सभी प्रदेश और दुर्ग अंग्रेजों को सौंप दिये ।

 ( 3 ) क्षतिपूर्ति के रूप में सिक्खों ने अंग्रेजों को 1 . 5 करोड़ रुपये दिए । | ( 4 ) सिक्ख सेना की संख्या केवल 12 हजार घुड़सवार तथा 20 हजार पैदल तक सीमित कर दी गई । | ( 5 ) दिलीपसिंह को महाराजा स्वीकार कर लिया गया । उसकी माता रानी जिन्दल कौर को उसकी संरक्षिका और सरदार लालसिंह को उसका प्रधानमन्त्री बनाया गया । ( 6 ) दिसम्बर , 1846 ई . तक अंग्रेजी सेना लाहौर में रहेगी । इसके अतिरिक्त एवं अंग्रेज रेजीडेन्ट सर हेनरी लारेन्स को लाहौर - दरबार में रखने का निश्चय किया गया । भैरोवाल की सन्धि - 25 दिसम्बर 1846 ई . को लाहोर दरबार तथा अंग्रेजों के बीच भैरोंवाल की सन्धि हुई जिनकी मुख्य शर्ते निम्नलिखित थी ( 1 ) दिलीपसिह के वयस्क होने तक लाहोर का प्रशासन अमेज - समर्थव आट सिक्ख सरदारों की एक समिति करती रहेगी । समिति लाहौर के रेजीडेन्ट के निर्देशानुसार कार्य करेगी । |

 ( 2 ) लाहौर में स्थायी रूप से एक अंग्रेजी सेना रखी जायेगी जिसके व्यय के लिये 22 लाख रुपये वार्षिक लाहोर सरकार ने अंग्रेजों को देना स्वीकार कर लिया । द्वितीय सिक्ख युद्ध ( 1848 - 49 ) - लार्ड डलहौजी के समय में 1848 - 19 ई . में अंग्रेजें और सिक्खों के मध्य द्वितीय युद्ध शुरु हो गया । इस युद्ध के मुख्य कारण निम्नलिखित थे ( 1 ) प्रथम सिक्ख युद्ध की पराजय का बदला लेना - सिख सैनिक प्रधम सिक्ख युद्ध को पराजय से बड़े दुखी थे । वे इस पराजय के कलंक को धो डालना चाहते थे । वे अपनी पराजय के लिए सिक्ख सेनापतियों के विश्वासघात को उत्तरदायी मानते थे । अत : वे अंग्रेजों को पराजित कर अपनी पराजय का बदला लेना चाहते थे ।



 ( 2 ) सिक्ख सैनिकों में असन्तोष - लाहौर के अंग्रेज रेजीडेन्ट सर हैनरी लारेन्स ने Fख सेना को बड़ी संख्या में भंग करना आरम्भ कर दिया । जनवरी , 1848 ई . तक 10 हजार निकों को सेवायें समाप्त कर दी गयीं । इस प्रकार हजारों सैनिक जो वेरोजगार हो गये थे वेअंग्रेजो के घोर विरोधी बन गये । इसके अतिरिक्त सैनिकों के वेतन कम कर दिये जाने से भी उनमें असन्तोष था । ( 3 ) अंग्रेजों का रानी जिन्दल के प्रति कठोर व्यवहार - अंग्रेजों ने रानी जिन्टल के प्रति कठोर नीति अपनाई । इसके अतिरिक्त रानी जिन्दल को षड्यन्त्र का कारण उहाकर उसे निर्वासित कर बनारस भेज दिया गया । उसकी पेंशन 1 . 5 लाख से घटाकर केवल 12 हजार रुपये वार्षिक कर दी गई । अत : रानी जिन्दल के प्रति प्रेजों के इस कठोर एवं अपमानजनक व्यवहार से सिक्खों में तो आक्रोश था । ( 4 ) मल्तान के दीवान मूलराज का विद्रोह - 1844 ई . में मूलराज को मुल्तान का गतिः , नियुक्त किया गया था । अंग्रेजों के अन्यायपूर्ण व्यवहार से दुखी होकर मूलराज ने 1848 ई . में त्याग - पत्र दे दिया । अंग्रेजों ने उसके स्थान पर सरदार काहनसिंह को मुल्तान का गवर्नर नियन कर दिया ।

 उसकी सहायता के लिए 500 सैनिकों सहित दो अंग्रेज अधिकारी एन्य । एण्डरसन भेजे गए । 19 अप्रैल , 1 . 48 ई . को दीवान मूलराज ने मुल्तान के गवर्नर का कार्यभार नये गवर्नर को सौंप दिया परन्तु 20 अप्रैल को कुछ लोगों ने एग्न्य तथा एण्डरसन की हत्या कर दौ । उसी दिन मूलराज ने अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह की घोषणा कर दी । | ( 5 ) छतरसिह तवा शेरसिह का विद्रोहियों से मिल जाना — हजारा का गवर्नर छतरसिंह भी अंग्रेजों के कुचक्रों एवं षड्यन्त्रों से परेशान था । अतः अगस्त 18 - 48 ई . में उसने भी अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह कर दिया और वह मूलराज के पक्ष में जा मिला । इसी प्रकार छतरसिंह का पुत्र शेरसिंह भी अपनी सेना सहित मूलराज से जा मिला । इस प्रकार विद्रोह की चिंगारी समस्त पंजाब में फैल गई ।

| ( 6 ) लाई डलहौजी की साम्राज्यवादी नीति – लार्ड डलहौजी बड़ा महत्वाकांक्षी तथा साम्राज्यवादी व्यक्ति घा । वह पंजाब पर अंग्रेजों की कम्पनी का आधिपत्य स्थापित करना चाहता था । उसने मुल्तान के विद्रोह को जानबूझ कर फैलने दिया ताकि सैनिक कार्यवाही करके । पंजाब पर ब्रिटिश प्रभुत्व स्थापित किया जा सके । उसने 10 अक्टूबर , 1848 ई . को घोषणा करते । हुए कहा था कि बिना पूर्व चेतावनी के और बिना किसी कारण के सिक्ख - जाति ने युद्ध की घोषणा कर दी है । में शपथ खा कर कहता हूं कि उनसे इसका पूरा बदला लिया जायेगा । " युद्ध की घटनाएं - 21 नवम्बर , 1848 ई . को रामनगर नामक स्थान पर अंग्रेजों और सिक्खों के बीच युद्ध हुआ परन्तु यह लड़ाई निर्णायक सिद्ध नहीं हुई । इसके पश्चात् 13 जनवरी , 1849 ई . को चिलियांवाला नामक स्थान पर दोनों पक्षों में घमासान युद्ध हुआ जिसमें दोनों पक्षों को काफी हानी उठानी पड़ी फिर भी कोई निर्णय नहीं हो सका । दूसरी और दीवान मुलराज को 22 जनवरी , 1849 ई . को अंग्रेजों के सामने आत्म - समर्पण करना पड़ा । मुल्तान की विजय से अमेजों का मनोबल बढ़ गया ।

 इसके पश्चात् दोनों सेनाओं के मध्य 21 फरवरी 1840 ई . को चिनाब नदी के किनारे स्थित गुजरात के स्थान पर एक भयंकर युद्ध हुआ । तीन घण्टे गोलीबारी के पश्चात् मित्रों को नतमस्तक होना पड़ा । इस प्रकार इस युद्ध में अंग्रेजों को निर्णायक विजय हुई और 13 मार्च 1849 ई . को सिक्खों ने आत्मसमर्पण कर दिया । | द्वितीय सिम्खु - युद्ध के परिणाम उत्तरदायी और शार मूलराज , परन्तु सि उतारकर " पंजाब था ? कीजिए हुआ । फलत सा एक ( 1 ) इस युद्ध के परिणामस्वरूप पंजाब को 29 मार्च , 1849 ई . को ब्रिटिश साम्राज्य में । मिला लिया गया । ( 2 ) दिलीपसिंह को 50 हजार पॉड की पेंशन देकर इंग्लैंड भेज दिया गया । जहां उसने ईसाई धर्म अपना लिया । उससे प्रसिद्ध कोहिनूर हीरा भी छीन लिया गया और इसे इलैण्ड कीमहारानी विक्टोरिया को सौंप दिया गया । दिलीपसिंह ने पंजाब में अपने सभी अधिकारों , उमाधियों तथा दासों को त्याग दिया । |

 ( 3 ) दीवान मूलराज पर मुकदमा चलाया गया और उसे आजीवन कारावास का दंण्ड देकर कालापानी भेज दिया गया । | ( 4 ) खालसा सेना को भंग कर दिया गया और विभिन्न सिक्ख सरदारों की जमीनें उनसे छीन ली गई । पंजाव के विलीनीकरण की नीति की समीक्षा अधिकांश विद्वानों ने पंजाब को ब्रिटिश साम्राज्य में मिलाये जाने को कटु निन्दा की है । टूटर के अनुसार , “ लार्ड डलहौजी की नीति किसी सिद्धान्त अथवा न्याय पर आधारित नहीं थी । लार्ड डलहौजी ने जानबूझकर दीवान मूलराज के विद्रोह का मन नहीं किया और उस पिंटोर को अन्य स्थानों पर फैलने का अवसर दिया ताकि अंग्रेजों को पंजाब हड़पने का बहाना मिल सके । मेजर इवान्स बैल का कथन है कि । ‘ डलहौजी ने सन्धियों का उल्लंघन किया , पवित्र विश्वास का दुरुपयोग किया , भारत की उत्तरी : सीमाओं तक स्थायी एवं महत्वपूर्ण सुधार के बीज बोने के सबसे अच्छे अवसर को व्यर्थ ही खो दिया और अन्यायपूर्ण तथा लज्जाजनक लाभ प्राप्ति के लिए हमारी सीमा को दुर्वल बना दिया ।

 हमारी सेन्य - शक्ति को छिन्न - भिन्न कर दिया और साम्राज्य पर भारी आर्थिक बोझ डाल दिया । इसके अतिरिक्त दीवान मूलराज या शेरसिंह के विद्रोह के लिए महाराजा दिलीपसिंह उत्तरदायी नहीं था । 18466 ई . को भरीवाल की सन्धि के अनुसार वह अंमेज के संरक्षण में था और शासन - कार्य का संचालन लाहौर के अंग्रेज रेजीडेन्ट द्वारा किया जा रहा था । इसलिए मूलराज , शेरसिंह आदि के विद्रोह का दमन करने का उत्तरदायित्व भी अंग्रेज रेजीडेन्ट का ही था । परन्तु सिक्ख - सेना के विद्रोह के लिए दिलीपसिंह को दोषी ठहराया गया और उसे गद्दी से उतारकर 50 हजार पाँड की पेन्शन देकर इंग्लैण्ड भेज दिया गया । इवान्स बैल के अनुसार , “ पंजाब को ब्रिटिश साम्राज्य में मिलाना न तो उचित ही था और न ही आवश्यक ।

0 Comments:

Post a Comment

Subscribe to Post Comments [Atom]

<< Home