Saturday, June 29, 2019

महाराजा रणजीत सिंह की विजय तथा चरित्र

रणजीत सिंह का प्रारम्भिक जीवन - रणजीत सिंह का जन्म 13 नवम्बर , 1780 } को गुजरांवाला में हुआ था । उसका पिता महासिंह सुकरचकिया मिसल का सरदार था । रणजीत सिंह को माता का नाम राजकौर था । उसकी शिक्षा की कोई व्यवस्था नहीं हो सकी और वो अनपढ़ ही रहा । रणजीत सिंह बुड़सवारी , तलवार चलाने तथा युद्ध विद्या में बहुत निपुण था । 10 वर्ष की अवस्था से ही उसने अपने पिता के साथ सैनिक अभियानों में जाना प्रारम्भ कर दिया था । 1792 ई . में उसके पिता महासिंह की मृत्यु हो गई और वह छोटी सी आयु में ही अपनी मिराल वा सार बन गया । 10 वर्ष की आयु में उसका विवाह महताबकौर नामक कन्या से किया गया ।

 अपनी सास सदाकौर के प्रोत्साहन पर उसने रामगढ़िया मिसल पर आक्रमण कर दिया , परन तसे पफलता न मिली । 17 वर्ष की आयु में उसने स्वतन्त्रतापूर्वक शासन करना शुरु कर दिया । | रणजीत सिंह की विजयें ( 1 ) लार की विजय ( 1799 ई . ) - 1798 ई . में अफगानिस्तान के शासक जमानशाह ने लार पर आक्रमण कर दिया और बड़ी आसानी से उस पर अधिकार कर लिया परन्तु अपने सौतेले भाई महमूद के विद्रोह के कारण जमानशाह को शीघ्र ही काबुल लौटना पड़ा । लौटते । ममय उसकी कुछ तोपें झेलम नदी में गिर पड़ी । रणजीत सिंह ने इन तोपों को सुरक्षित काबुलभिजवा दिया ।



इस पर जमानशाह बहा प्रसन्न हुआ और उसने रणजीत सिंह को लाहौर पर अधिकार कर लेने की अनुमति दे दी । अत : रणजीत सिंह ने लाहौर पर आक्रमण किया और 7 जुलाई , 1700 ई . को लाहौर पर अधिकार कर लिया । | ( 2 ) अन्य पिसनों पर विजये - शीघ्र ही रणजीत सिंह ने पंजाब की अनेक मिसलों पर अधिकार कर लिया । 1803 में उसने अकालगढ़ , 1804 में कसूर तथा झग पर तथा 1805 में अमृतसर पर अधिकार कर लिया । अमृतसर पर अधिकार कर लेने से पंजाब की धार्मिक एवं आध्यात्मिक राजधानी रणजीतसिंह के हाथों में आ गई । 189 में उसने गुजरात पर अधिकार कर लिया ।

 | ( 3 ) सतलज पार के प्रदेशों पर अधिकार करना - रणजीतसिंह सतलज पार के प्रदेशों पर भी अपना आधिपत्य कर लेना चाहता था । 1806 ) में रणजीतसिंह ने लगभग 20 हजार सैनिकों सहित सतलज को पार किया और डोलाधी गांव पर अधिकार कर लिया । पटियाला नरेश साहिबसिंह ने रणजीतसिंह की मध्यस्थता स्वीकार कर ली और उसने बहुत - सी धनराशि भेंट की । लौटते समय उसने लुधियाना को भी जीत लिया । 1807 ई . में उसने सतलज को पार किया और नारायणगढ़ , जीरा , बदनी , फिरोजपुर आदि प्रदेशों पर अधिकार कर लिया ।

 ( ५ ) अमृतसर की सन्धि – णजीतसिंह के सैनिक अभियानों से भयभीत होकर सतलज पार को सिक्ख रियासतों ने अंग्रेजों से संरक्षण देने की प्रार्थना की । इस पर गवर्नर जनरल लाई मिण्टो ने सर चाल्र्स मेटाफ को रणजीतसिंह से सन्धि करने के लिए भेजा । प्रारम्भ में रणजीतसिंह अंग्रेजों के साथ सन्धि करने के लिए सहमत नहीं हुआ परन्तु जब लाई मिण्टो ने मेटाफ के साथ अक्टरलोनी के नेतृत्व में एक सैनिक टुकड़ी भेजी तथा उन्होंने सैनिक शक्ति के प्रयोग की धमकी दी तो रणजीतसिंह को झुकना पड़ा । अन्त में 25 अप्रैल , 1800 ई . को । रणजीतसिंह ने अंग्रेजों के साथ सन्धि कर ली . जिसे अमृतसर की सन्धि कहते हैं । ( 5 ) कांगड़ा की विजय ( 1809 ई . )

 जब 1509 ई . में अमरसिंह थापा ने कांगड़ा पर आक्रमण कर दिया तो कांगड़ा के शासक संसारचन्द्र की प्रार्थना पर रणजीतसिंह ने एक विशाल सेना कांगड़ा भेज दी । सिक्ख सेना को देखकर अमरसिंह थापा भाग निकला । इस प्रकार 180 ई में कांगड़ा के दुर्ग पर रणजीतसिंह का अधिकार हो गया । | ( 6 मुल्तान की विजय ( 1818 ई . ) - 1818 ई . में रणजीतसिट ने मिश्र दीवानचन और खड्गसिंह को मुल्तान की विजय के लिए भेजा । यद्यपि मुल्तान के शासक मुजफ्फरखा । सिख सेना का वीरतापूर्वक मुकाबला किया परन्तु उसे पराजित होना पड़ा । इस प्रकार 1818 ई में मुल्तान पर रणजीतसिह का अधिकार हो गया ।

 ( 7 ) अटक की विजय ( 1613 ई . ) - रणजीतसिंह ने कुटनीति से काम लेते हुए 181 में अटक पर भी अधिकार कर लिया । उसने अटक के गवर्नर जहांदाद को एक लाख रुपये के राशि देकर 1813 में अटक पर भी अधिकार कर लिया । ( 8 ) कश्मीर की विजय ( 1319 ) - 1819 ई . में रणजीतसिंह ने मिश्र दीवानचन्द वे नत्व में एक विशाल सेना कश्मीर की विजय के लिए भेजी । कश्मीर के अफगान शासक जब्बार न सिक्त सेना का मकाबला किया परन्तु उसे पराजय का मुंह देखना पड़ा । इस प्रकार कश्मीर पर भी रणजीतसिंह का अधिकार हो गया । _ ( 9 ) डराजात की विजय ( 1820 - 21 ई . )

- कश्मीर विजय के पश्चात् 1820 - 21 में तसिह ने डेरागाजीखां इस्माइलख बन्नु आदि पर भी अधिकार कर लिया । ( 10 ) पेशावर की विजय ( 1823 . 34 ) - 1823 ई . में रणजीतसिह ने पेशावर की ५ के लिए एक विशाल सेना भेजी । सिक्खों ने जहाँगीर और नौशहरा की लड़ाइयों मेंपठानों को पराजित कर दिया और पेशावर पर अधिकार कर लिया । 1834 ई . में पेश रूप से सिक्ख - साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया गया । ( 11 ) लद्दाख की विजय ( 1836 ई . ) - 1836 ई . में सिक्ख सेनापति जोराव लद्दाख पर आक्रमण किया और लद्दाखी सेना को पराजित करके लद्दाख पर अधिकार का नि 1839 ई . में रणजीतसिंह की मृत्यु हो गई । रणजीतसिंह का शासन प्रबन्ध रणजीतसिंह एक महान् विजेता ही नहीं , अपितु योग्य शासक भी था । उसने सैनिक तथा नागरिक दोनों क्षेत्रों में महत्त्वपूर्ण सुधार किये और अपनी प्रशासनिक योग्यता का परिचय दिया ।



 ( 1 ) केन्द्रीय शासन - रणजीतसिंह अपने राज्य का सर्वोच्च अधिकारी था । उसके हाथों में राज्य के सभी सैनिक तथा असैनिक अधिकार थे । वह अपने राज्य का प्रधान सेनापति तथा प्रधान न्यायाधीश था । यद्यपि उसे असीमित अधिकार प्राप्त थे , परन्तु वह एक स्वेच्छाचारी शासक के रूप में शासन नहीं करता था । वह अपनी प्रजा की भलाई के लिए सदैव प्रयत्नशील रहता था । शासन कार्यों में परामर्श प्राप्त करने के लिए रणजीतसिंह ने अनेक मन्त्री नियुक्त किये । | ( 2 ) प्रान्तीय तथा स्थानीय शासन - रणजीतसिंह ने अपने साम्राज्य को चार प्रान्तों में बांट रखा था । ये प्रान्त थे — लाहौर , कश्मीर , मुल्तान तथा पेशावर । प्रान्त का प्रमुख अधिकारी नाजिम कहलाता था । प्रान्तों को जिलों में बांटा गया था । जिले के मुख्याधिकारी को कारदार कहा जाता था । मुख्य रूप से कारदार राजस्व विभाग का अधिकारी होता था परन्तु उसे न्याय तथा प्रशासन सम्बन्धी अधिकार प्राप्त थे । ।

 राज्य की सबसे छोटी इकाई गांव थी । गांव का प्रबन्ध पंचायतें करती थीं । पंचायतें गांव का दीवानी तथा फौजदारी प्रबन्ध करती थीं । ( 3 ) राजस्व विभाग रणजीतसिंह की आय का सबसे मुख्य साधन भूमि कर था । रणजीतसिंह की कुल वार्षिक आय लगभग 25 करोड़ रुपये थी जिसमें से 1 . 75 करोड़ रुपये केवल भमि कर से ही प्राप्त होते थे । भूमिकर इकट्ठा करने की अनेक विधियां थीं । भूमिकर वर्ष में दो बार रवी और खरीफ की फसलों के अवसर पर लिया जाता था । कारदार मुकद्दम चौधरी आदि भूमिकर इकट्ठा करने वाले कर्मचारी होते थे । लारेन्स के अनुसार , " सरकार बहुत उपजाऊ भूमि से उपज का 25 भाग और कम उपजाऊ भाग से उपज का V4 अथवा t६ भाग लेती थी ।

 " डॉ . एन . के . सिन्हा के अनुसार , किसानों की उपज का 15 भाग भूमि कर के रूप में वसूल किया जाता था । रणजीतसिह किसानों का शुभचिन्तक था । वह संकट के समय किसानों की उदारतापूर्वक आर्थिक सहायता करता था । उसने कश्मीर में अकाल पीडितों के लिए अनाज भिजवाया था । जनरल ने संगठित गया । घुड़सव पर संग की संस् पद्धति कारख संख्या टुकड़ि की से अति था । तथा वीरत | भूमिकार के अतिरिक्त चुंगी भी आय का एक अन्य बड़ा साधन था जिससे 10 लाख रुपये प्रति वर्ष प्राप्त होते थे । चंगी कर के अतिरिक्त नमक कर , नजराना , न्यायालय शुल्क व्यवसाय का आदि भी प्रमुख कर थे ।

 ( 4 ) न्याय व्यवस्था — रणजीतसिंह की न्यायव्यवस्था किन्हीं लिखित नियमों पर आधारित नहीं थी । परम्पराओं , प्रथाओं और धार्मिक मान्यताओं के आधार पर कानून प्रचलित धे । प्रान्तों में नाजिम तथा जिलों में कारदार मुकदमों की सुनवाई करते थे । गांवों में ग्राम पंचायत ग्रामीणों के विवादों का निपटारा करती थी । लाहौर में सर्वोच्च न्यायालय स्थापित रणजीतसिह स्वयं मुख्य न्यायाधीश के रूप में कार्य करता था और उसका निर्णय अन्तिम हुआकरता था । मृत्यु दण्ड देने का अधिकार केवल महाराजा को ही प्राप्त था । रणजीतसिंह की दृ - विधान अधिक कठोर नहीं था ।

 साधारणतया अधिकतर अपराधों के लिए जुर्माना किया । जाता था परन्तु अंग भग मत्युदण्ड आदि भी प्रचलित थे । ( 5 ) सैनिक प्रवन्धरणजीतसिंह ने अपनी सेना में भी अनेक सुधार किये । | सेना के भाग - रणजीतसिंह की सेना के तीन प्रमुख भाग थे ( 1 ) फौज - ए - खास , ( 2 ) फौज - ए - आम तथा ( 3 ) फौज - ए - वेकवायद । । । ( क ) फीज - ए - खास - यह सिक्ख सेना का आदर्श दस्त था । इसका संगठन 1822 ई में फ्रांसीसी सेनापति जनरल बेदुरा के नेतृत्व में किया गया था । इसे फ्रांसीसी दस्ता भी कहा जाता था । इसमें पैदल सेना की चार पल्टनें , दो घड़सवार रेजीमेंट तथा लगभग 24 तोपें थी । इस सेना का प्रयोग सीमान्त प्रदेश में अफगानों के विरुद्ध किया जाता था । | ( ख ) फौज - ए - आप – पर रणजीतसिंह की नियमित सेना थी जिसमें लगभग 72 हजार सैनिक थे । फौज - ए - आम के अन्तर्गत पैदल . ५डसवार तथा तोपखाना सम्मिलित थे । |

 ( 1 ) पदल सेना – पैदल सेना की संख्या लगभग 60 हर थी । 1822 में रणजीतसिंह ने जनरल बेदुरा को पैदल सेना का अध्यक्ष नियुक्त किया । पैदल सेना को यूरोपीय पद्धति पर संगठित किया गया । इसके अनुसार पैदल सेना में नियमित ड्रिल तथा परेड का प्रचलन किया । गया । सैनिकों को नकद वेतन दिया जाता था । पैदल सैनिकों को 10 रुपये मासिक तथा घुड़सवार सैनिकों को 29 रुपये मासिक वेतन दिया जाता था । ( ii ) घुड़सवार सेना - जनरल अल्लाई के नेतृत्व में घुड़सवार सेना को यूरोपीय पद्धति पर संगठित किया गया ।

 इसमें पठान , राजपूत , डोगरे , सिक्ख आदि होते थे । 1838 में इस सेना की संख्या 4 , 000 हो गई थी । घुड़सवार सैनिकों को पैदल सैनिकों से अधिक वेतन मिलता था । ( iii ) तोपखाना – जनरल कोर्ट तथा कर्नल गार्डनर के नेतृत्व में तोपखाने को यूरोपीय पद्धति पर संगठित किया गया । भारी तोपें बनाने के लिए अमृतसर और लाहौर में विशेष कारखाने खोले गये । जहाँ 1820 में रणजीतसिंह के पास 122 तोपें थीं वहीं 1839 ई . में इनकी संख्या 308 तक पहुंच गई । ।

 ( ग ) फौज - ए - वेकवायद - इस सेना में घुड़चढ़े , अकाली और आगोरदारों की रिसाला टुकड़ियां सम्मिलित थीं । घुड़चढे वे सवार थे जो अपने घोड़े और अस्त्र - शस्त्र रखते थे । पुडचढ़ों की संख्या लगभग 10 हजार घी । ये अपनी शूरवीरता तथा साहस के लिए विख्यात थे । इनके अतिरिक्त रणजीतसिंह की सेना में अकाली तथा जागीरदार भी सवार होते थे । | रणजीतसिंह का चरित्र और मूल्यांकन । ( 1 ) वीर योद्धा तथा महान् विजेता - रणजीतसिंह एक पराक्रमी योद्धा तथा महान विजेता था । वह युद्ध विद्या में बड़ा निपुण था । उसने अनेक सिक्ख मिसलों को जीतकर अपने पराक्रम तथा युद्ध कौशल का परिचय दिया था । उसने अफगानों के विरुद्ध नौशहरा के युद्ध में अपूर्व वीरता का प्रदर्शन किया ।

 उसने अफगानों को कई बार पराजित किया और पेशावर पर अधिकार कर अपनी सैन्य शक्ति की धाक स्थापित की । ग्रिफिन के अनुसार , रणजीतसिह एक आदर्श तथा शानदार सैनिक था । वह दर अल्पव्ययी , चुस्त , साहसी तथा धर्यवान व्यक्ति या । । चायतें । था । - रुपये कर वर्ष चौधरी जाऊ कया की । । 4 4 4 4 - ( 2 ) साम्राज्य निर्माता - रणजीतसिंह एक साम्राज्य निर्माता भी था । उसने अपने पराक्रम र सैनिक प्रतिभा के बल पर एक विशाल साम्राज्य स्थापित किया । उसने अटक , मुल्तान , मार , पेशावर डेरा इस्माइलखा डेरा गाजीखा , वन , लद्दाख आदि को जीतकर एक विशाल साम्राज्य स्थापित किया ।

 उसने केवल एक विशाल साम्राज्य की स्थापना ही नहीं कीउसने अपने साम्राज्य में शान्ति एवं व्यवस्था बना । जिससे उसके शासनकाल में बहुमुखी उन्नति हुई । डॉ . सिन्हा के अनुसार , रणजीतसिंह का जीवन साम्राज्य निर्माण के कार्य में लगा रहा । " ( 3 ) चतुर राजनीतिज्ञ - रणजीतसिंह एक चतुर राजनीतिज्ञ भी था । आरम्भ में ही उसके अफगानिस्तान के शासक जमानशाह को तोपें भिजवाकर अपनी कूटनीति का एक अच्छा प्रमाण दिया और इसके बदले में लाहौर को प्राप्त किया । उसने शक्तिशाली सिक्ख मिसलों से मंत्री का होकर रणजीत ली और दुर्बल मिसलों पर अधिकार कर लिया । यद्यपि सतलज पार की सिख रियासतों पर वः । । रणजीत आधिपत्य करना चाहता था , परन्तु अंग्रेजों के प्रतिरोध करने पर उसने अपना विचार त्याग दिया ।

 उसने होल्कर उसने 1909 ई . में अंग्रेजों से अमृतसर की सन्धि करना ही उचित समझा । इस सन्धि का लाभ उठाकर उसने सतलज के पश्चिम में अपने साम्राज्य का काफी विस्तार किया । सिंह तथा लाल | ( 4 ) योग्य शासक - उणजीतसिंह एक योग्य शासक भी था । उसने सैनिक तथा नागरिक दोनों क्षेत्रों में महत्वपूर्ण सुधार किये और अपनी प्रशासकीय प्रतिभा का परिचय दिया । उसने मील दूर भेज राजस्व - प्रबन्ध , न्याय विभाग तथा सैनिक व्यवस्था में अनेक सुधार किये । उसने अपनी सेना को | ( i यूरोपीय पद्धति पर संगठित किया तथा एक विशाल अनुशासित एवं सुसंगठित सेना का निर्माण किया ।

 वह निरंकुश शासक होते हुए भी अपनी प्रजा को अपनी सन्तान के समान समझता था । पार की सि तथा उसकी भलाई एवं उन्नति के लिए सदैव प्रयत्नशील रहता था । | ( 5 ) साहित्य एवं कला का संरक्षक - रणजीतसिंह साहित्य एवं कला का भी संरक्षक । पार किया अभियान प्रार्थना = मेटकाफ ( 3 सतलज न सितम्बर अंग्रेजों भेजा । कूटनी समझौ के मष्ट था । वह विदान तथा साहित्यकारों को उदारतापूर्वक संरक्षण दिया करता था । उसका दरवार अनेक उच्चकोटि के विद्वानों से सुशोभित , था । जिनमें मुन्शी सोहनलाल , दीवान अमरनाथ , गणेशदास , ( मशार , मुहम्मद आदि विशेष रूप से प्रसिद्ध थे । | ( 6 ) घर्म सहिष्ण - रणजीतसिंह एक उदार एवं धर्म - सहिष्णु था । यद्यपि वह सिक्ख धर्म का कट्टर अनुयायी था परन्तु वह एक धर्म सहिष्ण व्यक्ति था । वह सभी धर्मों का सम्मान करता था । उसकी सेना में मुसलमानों , सिक्खो जाट , डोगरों ब्राह्मणों आदि को भर्ती किया जाता था । राजकीय पदों के द्वार सभी सम्प्रदायों के लोगों के लिए खुले हुए थे ।

 | ( 7 ) एक व्यक्ति के रूप में - यद्यपि रणजीतसिंह की आकृति बहुत आकर्षक नहीं थी , परन्तु उसका व्यक्तित्व वड़ा प्रभावशाली धा । रणजीतसिंह को स्मरण शक्ति बड़ी तीत थी । वह मानव स्वभाव का पारखी था और व्यक्तियों के चुनाव में कभी गलती नहीं करता था । ग्रिफिन का कथन है , यद्यपि रणजीतसिंह को मृत्यु हुए 50 वर्ष बीत चुके हैं अब भी प्रान्त में उनका नाम घरेलु शब्दों के समान लिया जाता है । तथापि उसके चित्र अब भी धनवानों एवं निर्धनों के घरों में देखे जाते हैं । दिल्ली और अमृतसर के हाथीदांत पर चित्रकारी करने वाले कलाकारों में अब भी उसका चित्र अनुकूल विषय माना जाता है । डॉ एम . एस . जैन के अनुसार , भारतीय इतिहास में । रणजीतसिंह का विशेष महत्व है । जिस समय उसने अपना राजनीतिक जीवन आरम्भ किया उस समय पंजाब की सिक्ख मिसले आपस में झगड़ती रहती थी । पंजाब विभाजित तथा असंगठित क्षेत्र था । 180 ई . में पंजाब एक अत्यन्त सुदढ़ एवं शक्तिशाली राज्य हो गया । डॉ . जगन्नाथ मित्र लिखते है - आधुनिक भारत के इतिहास में रणजीतसिंह एक महान नेता संगठनको तथा । कुशल सेनानायक के रूप में प्रमुख स्थान रखता है ।

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