Sunday, June 30, 2019

सविनय अवज्ञा आंदोलन

1 . साइमन कमीशन - 1927 में ब्रिटिश सरकार ने सर जॉन साइमन की अध्यक्षता में एक कमीशन का गठन किया तथा भारत की प्रशासनिक व्यवस्था की जाँच के लिए उसे भारत भेजा । इस कमीशन में सात सदस्य थे तथा वे सब अंग्रेज़ थे । साइमन कमीशन को भारत इसलिए भेजा गया था कि वह यह पता लगाएं कि भारत में उत्तरदायी शासन स्थापित करना कहाँ तक उचित है ।

 तथा भारतवासी उत्तरदायी शासन को चलाने की योग्यता तथा क्षमता रखते हैं या नहीं । वास्तव में ये दोनों स्थितियाँ भारतवासियों एवं राष्ट्रीय नेताओं के लिए अपमानजनक थी । अतः कांग्रेस ने साइमन कमीशन का विरोध करने का निश्चय कर लिया । 3 फरवरी , 1928 को साइमन कमीशन बम्बई पहुंचा जहाँ हड़ताल से उसका स्वागत किया गया । स्थान - स्थान पर काले झण्डों , ' साइमन कमीशन वापिस जाओ ' के नारों से साइमन कमीशन का विरोध किया गया ।

 ब्रिटिश सरकार ने आन्दोलनकारियों के विरुद्ध दमनकारी नीति अपनाई । लाहौर में लाला लाजपतराय के नेतृत्व में साइमन कमीशन के विरोध में एक जुलूस निकाला गया । पुलिस द्वारा लाला लाजपतराय पर लाठियों की वर्षा की गई जिससे वे बुरी तरह से घायल हो गये तथा 17 नवम्बर , 1928 को वीरगति को प्राप्त हुए । लखनऊ में पुलिस ने पं . जवाहरलाल नेहरू तथा गोविन्द वल्लभ पन्त पर भी लाठियाँ बरसाईं । बंगाल में सुभाषचन्द्र बोस के नेतृत्व में साइमन कमीशन के विरुद्ध जुलूस निकाला गया ।

 अंग्रेजों की दमनकारी नीति से गाँधीजी को प्रबल आघात पहुँचा । नहीं इयोग डुकर राष्ट्रीय और और - और इसने कुछ | 2 . साइमन कमीशन की रिपोर्ट से निराशा - 1930 में साइमन कमीशन ने अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की । इस रिपोर्ट से भारतवासियों को बड़ी निराशा हुई । रिपोर्ट में भारतीयों कीऔपनिवेशिक स्वराज्य की माँग की पूर्ण उपेक्षा की गई । इसी प्रकार केन्द्र में उत्तरदायी सरकार की स्थापना की मांग भी स्वीकार नहीं की गई । अतः गाँधीजी ने साइमन कमीशन की रिपोर्ट का विरोध किया और अंग्रेजों के विरुद्ध सविनय अवज्ञा आन्दोलन प्रारम्भ करने का निश्चय कर लिया ।

 3 . नेहरू रिपोर्ट को अस्वीकार करना - भारत सचिव लाई बर्किन हैड ने भारतीयों को चुनौती दी कि वे एक ऐसा संविधान तैयार करें जो भारत के सभी राजनीतिक पक्षों को स्वीकार्य हो । कांग्रेस ने इस चुनौती को वीकार कर लिया तथा भारत के संविधान का प्रारूप तैयार करने के लिए पं . मोतीलाल नेहरू । अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया । इस समिति ने 10 अगस्त , 1928 को एक रिपोर्ट प्रस्तुत की जो ' नेहरू रिपोर्ट ' के नाम से प्रसिद्ध है । कांग्रेस ने नेहरू रिपोर्ट को स्वीकार कर लिया परन्तु ब्रिटिश सरकार ने इस रिपोर्ट को अस्वीकार कर दिया ।

 मुस्लिम लीग ने भी नेहरू रिपोर्ट को अस्वीकार कर दिया । इससे गांधीजी को प्रबल आघात पहुंचा । कांग्रेस ने ब्रिटिश सरकार को चेतावनी दी कि यदि सरकार 31 दिसम्बर , 1929 तक नेहरू रिपोर्ट स्वीकार नहीं करेगी , तो वह अहिंसात्मक सविनय अवज्ञा आन्दोलन शुरू करेगी । । ' 4 . पूर्ण स्वराज्य की माँग - दिसम्बर , 1929 में लाहौर में पं . जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में कांग्रेस का अधिवेशन शुरू हुआ । 31 दिसम्बर 1929 को अधिवेशन में पूर्ण स्वतन्त्रता का प्रस्ताव पास किया गया । इस अधिवेशन में कांग्रेस ने प्रतिवर्ष 26 जनवरी को स्वतन्त्रता दिवस मनाने का निश्चय भी किया ।

अतः 26 जनवरी , 1930 को सम्पूर्ण भारत में स्वतन्त्रता दिवस बड़े उत्साह के साथ मनाया गया । इस अधिवेशन ने कांग्रेस को उचित अवसर । पर सविनय अवज्ञा आन्दोलन प्रारम्भ करने का अधिकार दे दिया । । 5 . देश में अशान्ति एवं अराजकता - इस समय देश की आर्थिक स्थिति बड़ी शोचनीय थी । देश में महंगाई , बेरोजगारी तथा गरीबी बढ़ रही थी । मजदूरों में बढ़ती हुई महंगाई के कारण तीव्र असन्तोष था । उन्होंने भी ब्रिटिश सरकार का विरोध करना शुरू कर दिया । ब्रिटिश सरकार ने दमनकारी नीति अपनाते हुए अनेक मजदूर नेताओं को गिरफ्तार कर लिया ।

 इस समय क्रान्तिकारियों ने भी अपनी गतिविधियां तेज कर दी थी । 1929 में सरदार भगतसिंह तथा बटुकेश्वरदत्त ने दिल्ली में केन्द्रीय विधानसभा में बम फेंककर सनसनी फैला दी । गाँधीजी इन हिंसात्मक घटनाओं से बड़े चिन्तित हुए । उन्होंने ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध अहिंसात्मक सविनय अवज्ञा आन्दोलन को प्रारम्भ करने का निश्चय कर लिया । नमक = की हो वस्त्रों के करना , , कानून गया । शराब बन्दी = पटेल , सीमान्ट बढ़ - च कुचल बरसाई पर ब 6 . गाँधीजी की माँगों को अस्वीकार करना - लाहौर अधिवेशन के बाद गाँधीजी ने भारत के वायसराय लार्ड इरविन के सामने 11 माँगे प्रस्तुत की और चेतावनी दी कि यदि उनकी मो ] स्वीकार नहीं की गई , तो वे सविनय अवज्ञा आन्दोलन प्रारम्भ कर देंगे ।

 गाँधीजी की माँगे निम्नलिखित थीं - ( 1 ) पूर्ण नशाबन्दी हो । ( 2 ) मुद्रा विनिमय में एक रुपया एक शिलिाग चार पैंस के बराबर माना जाए । ( 3 ) नमक कर समाप्त किया जाए । ( 4 ) मालगुजारी आधी कर दी जाए । ( 5 ) प्रशासनिक खर्चे में कमी करने के लिए बड़े अधिकारियों के वेतन आधे या उससे कम कर दिए जाएँ । ( 6 ) सैनिक व्यय में कमी की जाए उसे शुरू में आधा कर दिया जाए । ( 7 ) तटीय व्यापार संरक्षण कानून पास किया जाए । ( 8 ) विदेशी वस्त्रों पर तट - कर लगाया ज उद्योगों का संरक्षण हो । ( ) हत्या या हत्या की चेष्टा में दण्डित बन्टियों को राजनीतिक बन्दियों को रिहा किया जाए । ( 10 ) गुप्तचर पुलिस को भंग कर कर लगाया जाए ताकि देशी आत्मरक्षा के लिए बन्दूक आदि हथियारों के लाइसेन्स दिए जाएँ । सरकार ने गांधीजी की मांगों पर कोई ध्यान नहीं दिया । लार्ड इरविन ने गाँधीजी का उत्तर भेजा , वह बड़ा असन्तोषजनक था ।

 इस पर गांधीजी को धाजी को बड़ा दुख हुआ और उन्होंनेकहा , " मैने घुटने टेककर रोटी मॉगी थी , परन्तु मुझे मिला पत्र । ब्रिटिश शासन केवल शक्ति पहचानता है और इसी कारण वायसराय के उत्तर पर मुझे आश्चर्य नहीं हुआ । हमारे राष्ट्र के भाग्य में जेल की शान्ति ही एकमात्र शान्ति है । समस्त भारत एक विशाल कारागृह है । मैं अंग्रेजों के कानूनों को मानने से इन्कार करता हैं । " सविनय अवज्ञा आन्दोलन का प्रारम्भ | 12 मार्च , 1930 को गांधीजी ने अपने 79 कार्यकत्ताओं के साथ साबरमती आश्रम से डाण्डी नामक स्थान की ओर प्रस्थान किया ।

 उन्होंने लगभग 200 मील की यात्रा पैदल चल कर 24 दिन में तय की । गांधीजी 5 अप्रैल , 1930 को डण्डी पहुँचे । 6 अप्रैल , 1930 को उन्होंने डाण्डी पहुंच कर स्वयं नमक तैयार करके नमक - कानून को तोड़ा तथा सविनय अवज्ञा आन्दोलन शुरू किया । । सविनय अवज्ञा आन्दोलन का कार्यक्रम सविनय अवज्ञा आन्दोलन कार्यक्रम के अन्तर्गत निम्नलिखित बातें सम्मिलित थीं — ( 1 ) नमक बनाकर नमक - कानून को तोड़ना . ( 2 ) विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार करना , विदेशी वस्त्र की होली जलाना , स्वदेशी वस्तुओं का प्रयोग करना , ( 3 ) महिलाओं द्वारा शराब तथा विदेशी वस्त्रों की दुकानों पर धरना देना , ( 4 ) विद्यार्थियों द्वारा सरकारी स्कूलों तथा कॉलेजों का बहिष्कार करना , ( 5 ) सरकारी कर्मचारियों को अपनी नौकरियों से त्याग - पत्र देना , ( 6 ) कर - बन्दी । सविनय अवज्ञा आन्दोलन की प्रगति । शीघ्र ही सविनय अवज्ञा आन्दोलन सम्पूर्ण देश में फैल गया ।

 अनेक स्थानों पर नमक कानून को तोड़ा गया । विदेशी वस्त्रों की होली जलाई गई तथा शराब की दुकानों पर धरना दिया गया । इस आन्दोलन में स्त्रियों ने भी उत्साहपूर्वक भाग लिया । केवल दिल्ली में ही 1600 स्त्रियां शराब की दुकानों पर धरना देने के अपराध में गिरफ्तार की गई । 5 मई , 1930 को गांधीजी को बन्दी बनाकर यरवदा जेल में भेज दिया गया । इसके अतिरिक्त जवाहर लाल नेहरू , सरदार पटेल , सुभाषचन्द्र बोस आदि अनेक नेताओं को भी गिरफ्तार कर लिया गया ।

 इस आन्दोलन में सीमान्त गांधी खान अब्दुल गफ्फार खां तथा उनके अनुयायी ‘ खुदाई खिदमतगारों ने भी । बढ़ - चढ़कर भाग लिया । ब्रिटिश सरकार की दमनकारी नीति – ब्रिटिश सरकार ने सविनय अवज्ञा आन्दोलन को कुचलने के लिए दमनकारी नीति अपनाई । अनेक स्थानों पर आन्दोलनकारियों पर लाठियां बरसाई गई तथा गोलियां चलाई गई । 21 मई , 1930 को - घारासना में 2500 निहत्थे सत्याग्रहियों पर बर्बरतापूर्वक लाठियां बरसाई गई जिससे अनेक सत्याग्रही घायल हो गए । महिलाओं पर भी अमानवीय अत्याचार किये गए । कांग्रेस को अवैध घोषित कर दिया गया तथा समाचार - पत्रों पर कठोर प्रतिबन्ध लगा दिए गए । आन्दोलन के दौरान एक वर्ष में लगभग 90 हजार भारतीयों को गिरफ्तार किया गया । बम्बई , कलकत्ता , रत्नागिरी , पटना आदि अनेक स्थानों पर सत्याग्रहियों को लाठियों से पीटा गया परन्तु सत्याग्रही विचलित नहीं हुए तथा शान्तिपूर्वक आन्दोलन करते रहे । और सरकार का विरोध करते रहे ।

| प्रथम गोलमेज सम्मेलन - 12 नवम्बर , 1930 को लन्दन में प्रथम गोलमेज सम्मेलन आयोजित किया गया । इसमें कांग्रेस का कोई भी प्रतिनिधि सम्मिलित नहीं हुआ । इस सम्मेलन | साम्प्रदायिक समस्या पर कोई समझौता नहीं हो सका । अन्त में 16 जनवरी , 1931 को यह धीजी ने = उनकी की माँगें । नग चार कर दी मसे कम १ तटीय के देशी प सभी । ( 11 ) गाँधीजी उन्होंने सम्मेलन स्थगित कर दिया गया ।गाँधी - इरविन समझौता - 5 मई , 1931 को गांधीजी तथा वायसराय लार्ड इरविन के बीच समझौता हो गया , जो गाँधी - इरविन समझौते के नाम से प्रसिद्ध है । इस समझौते की प्रमुख शर्ते निम्नलिखित थीं | ( 1 ) राजनीतिक बन्दियों को रिहा कर दिया जायेगा ।

केवल उन्हीं लोगों को ही रिहा नहीं किया जायेगा जिनके विरुद्ध हिंसात्मक अपराध सिद्ध हो चुके हैं । ( 2 ) सरकार सभी अध्यादेश तथा चालु मुकदमों को वापिस ले लेगी । ( 3 ) आन्दोलन के दौरान जब्त की गई सम्पत्ति उनके स्वामियों को लौटा दी जायेगी । | ( 4 ) सरकार ऐसे लोगों को बन्दी नहीं बनायेगी जो शराब , अफीम तथा विदेशी वस्त्रों को दुकानों पर शान्तिपूर्वक धरना देंगे । ( 5 ) सरकार समुद्र के निकटवर्ती प्रदेशों में बिना नमक - कर दिए नमक बनाने की आज्ञा अंग्रेजी सन लिए विवः बहिष्कार । को बड़ा प्र दे देगी । था । " विदे ( 6 ) जिन सरकारी कर्मचारियों ने आन्दोलन के दौरान नौकरियों से त्याग - पत्र दे दिये थे . उन्हें नौकरियों में वापिस लेने के लिए सहानुभूतिपूर्वक विचार किया जायेगा ।

 ( 7 ) कांग्रेस अपने सविनय अवज्ञा आन्दोलन को स्थगित कर देगी । ( 8 ) कांग्रेस पुलिस द्वारा की गई ज्यादतिर्यो के लिए निष्पक्ष जांच की माँग नहीं करेगी । ( 9 ) कांग्रेस द्वितीय गोलमेज सम्मेलन में भाग लेगी । द्वितीय गोलमेज सम्मेलन - 7 सितम्बर , 1931 को लन्दन में द्वितीय गोलमेज सम्मेलन आयोजित किया गया । इस सम्मेलन में गांधीजी ने कांग्रेस के प्रतिनिधि के रूप में भाग लिया । गांधीजी ने पूर्ण स्वराज्य की मांग की जिस पर सरकार ने ध्यान नहीं दिया ।

 सरकार विभिन्न वर्गों में फूट डालना चाहती थी तथा हरिजनों को हिन्दुओं से अलग करना चाहती थी परन्तु गाँधीजी इसे स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं थे । द्वितीय गोलमेज सम्मेलन 1 दिसम्बर , 1931 को समाप्त हो गया और गांधीजी खाली हाथ लौट आए । । सविनय अवज्ञा आन्दोलन को पुनः शुरू करना - गाँधीजी ने भारत लौट कर पुनः सविनय अवज्ञा आन्दोलन शुरू कर दिया । प्रिटिश सरकार ने दमनकारी नीति अपनाई तथा गांधीजी , सरदार पटेल आदि अनेक नेताओं को गिरफ्तार करके जेल में बन्द कर दिया ।

अनेक स्थानों पर सत्याग्रहियों पर लाठियां बरसाई गई तथा समाचार - पत्रों पर कठोर प्रतिबन्य लगा दिए गए । 1932 के अन्त तक लगभग 1 , 20 , 000 लोगों को गिरफ्तार किया गया । अन्त में 7 अप्रेल , 1934 को गांधीजी ने सविनय अवज्ञा आन्दोलन को समाप्त कर दिया । | सविनय अवज्ञा आन्दोलन का महत्त्व तथा उपलब्धियाँ पारत के राष्ट्रीय आन्दोलन में सविनय अवज्ञा आन्दोलन का महत्त्वपूर्ण स्थान है ।

 इसकी प्रमुख उपलब्धियां निम्नलिखित थीं ( 1 ) राष्ट्रीय आन्दोलन को व्यापक बनाना सविनय अवज्ञा आन्दोलन ने भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन की गतिविधियों को आगे बढ़ाया तथा इस आन्दोलन को व्यापक बनाया । ( 2 ) अहिंसात्मक आन्दोलन की सफलता - सत्यापहियों ने गांधीजी के निर्देशों का पालन करते हुए अहिंसात्मक आन्दोलन द्वारा अंग्रेजों का विरोध किया । निहत्थे सत्याग्रहियों पर था । प्रयोग करने के कारण अंग्रेजों की कट आलोचना की गई । इससे जनता में अंग्रेजों के विरु ५ । की भावना उत्पन्न हुई । ( 3 ) साहस , निर्भीकता एवं नवीन उत्साह का संचार - इस आन्दोलन ने देशवा साहस , देशभक्ति , निर्भीकता , त्याग तथा बलिदान की भावनाओं का प्रसार किया । इससे सफलता दुर्व्यवहार से भारत रहे फासि घुसी तो न देकर अंमे कोई भी मजबूर हो किया ।

 ( अर्वात् । पारित हो चाहिए । में एक ३ ब्रिटिश । आवश्य नाजीवाद निश्चित गांधीजी मरो ' हम् आन्दोलन ने देशवासियों में किया । इससे लोगों मेंनवीन उत्साह का संचार हुआ । उन्होंने मातृभूमि को अंग्रेजों की दासता से मुक्त कराने के लिए हँसते - हँसते जेलों को भरना शुरू कर दिया । | ( 4 ) स्त्रियों में जागृति - इस आन्दोलन ने स्त्रियों में भी जागृति उत्पन्न की । इस आन्दोलन में हजारों स्त्रियों ने उत्साहपूर्वक भाग लिया और शराब की दुकानों तथा विदेशी वस्त्रों की दुकानों पर धरना दिया । | ( 5 ) संवैधानिक सुधार सविनय अवज्ञा आन्दोलन की बढ़ती हुई लोकरि यता से अंग्रेजी सरकार बड़ी चिन्तित हुई और उसे संवैधानिक सुधारों के लिए आवश्यक कदम उठाने के लिए विवश होना पड़ा और 1935 में भारत सरकार अधिनियम पास किया गया । ( 6 ) स्वदेशी को प्रोत्साहन – सविनय अवज्ञा आन्दोलन के कारण विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार किया गया तथा स्वदेशी वस्तुओं के प्रयोग पर बल दिया गया । इससे कुटीर उद्योगों को बड़ा प्रोत्साहन मिला ।

असहयोग आंदोलन के उदय के कारण

आरम्भ में गांधी जी ब्रिटिश शासन के प्रशंसक एवं उदारवादी थे । प्रथम विश्व - युद्ध के दौरान महात्मा गांधी ने भारतीय जनता से ब्रिटिश सरकार के साथ पूरा - पूरा सहयोग करने की अपील की थी । उनकी अपील का भारतीय जनता के द्वारा पूरे उत्साह से जवाब दिया गया परन्तु युद्ध के पश्चात् ब्रिटिश सरकार के विश्वासघातों , उसकी दमनकारी नीति और भारतीय भावनाओं के प्रति उसकी उदासीनता ने गांधीजी को सहयोगी से असहयोगी बना दिया । रौलट एक्ट , जलियांवाला बाग हत्याकाण्ड , खिलाफत का प्रश्न आदि घटनाओं ने गांधी जी को असहयोगी बना दिया ।

अत : महात्मा गांधी ने असहयोग आन्दोलन के माध्यम से ब्रिटिश शासकों का हृदय - परिवर्तन करने का निश्चय कर लिया । गांधी जी की अहिंसा एवं सत्याग्रह में अटूट आस्था थी । वे चम्पारन , खेड़ा और अहमदाबाद में सत्याग्रह के सीमित प्रयोग कर चुके थे । 1920 में गांधी जी ने राष्ट्रीय स्तर पर असहयोग - आन्दोलन करने का निश्चय किया । असहयोग आन्दोलन के कारण ( 1 ) प्रथम महायुद्ध में ब्रिटेन का सहयोग – कांग्रेस और समस्त भारतवासियों ने प्रथम विश्व युद्ध में अंग्रेजों को तन - मन - धन से सहयोग दिया था क्योंकि उन्हें आशा थी कि युद्ध के पश्चात् उन्हें काफी हद तक राजनीतिक अधिकार प्रदान किए जायेंगे किन्तु युद्ध के बाद सुधारों की बात तो दूर रही वरन् भारतीयों का दमन करने के लिए कठोर व आतंकवादी कानून लगाये गये ।

परिणामस्वरूप सहयोग देने वाली जनता को असहयोग करने के लिए मजबूर होना पड़ा ।( 2 ) राष्ट्रवादियों का दमन युद्ध के दौरान ब्रिटिश सरकार भारतीयों का सहयोग प्राप्त कर रही थी वरी पद के पश्चात् भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन का हर प्रकार से दमन करने का प्रयास किया गया । सरकार ने प्रेस अधिनियम और राजद्रोह एक्ट पारित किये जिनका उद्देश्य राष्ट्रवादियों का दमन था । पंजाब व बंगाल में राष्ट्रवादियों पर भयंकर अत्याचार किए गए और उनके साथ अमानुषिक व्यवहार किया गया । ( 3 ) निरन्तर बिगड़ती आर्थिक स्थित महायुद्ध के दौरान ब्रिटेन की ओर से लड़ने के लिए जो सेना बाहर गयी थी?

 उस पर किये गये करीब 150 करोड़ रुपये व्यय की राशि का भार भारत सरकार को उठाना पड़ा । परिणामस्वरूप भारत की आर्थिक स्थिति बहुत ही दुर्बल हो । गयी । आवश्यक वस्तुओं का बाजार में अभाव हो गया और उनके भाव एकदम ऊंचे चढ़ गये । पूँजीपतियों ने काला बाजारी करके करोड़ों - अरबों रुपये कमाये । सरकार ने साधारण जनता को महँगाई से राहत दिलवाने के लिए कार्यवाही करना तो दूर वरन टैक्स की संख्या में मात्रा में भारी वृद्धि कर जनता पर भारी आर्थिक बोझ डाल दिया जिससे उनकी कमर टूट गयी । पूँजीपति और सरकार दोनों जनता का आर्थिक शोषण करते रहे ।

 | ( 4 ) प्राकृतिक विपदाएँ - 1917 में वर्षा न होने के कारण देश में भयंकर अकाल पड़ा । और प्लेग व इन्फ्लुएन्जा जैसी महामारियां फैतीं । भारत सरकार ने इन प्राकृतिक विपदाओं की रोकथाम के लिए पर्याप्त प्रयास नहीं किए । इस उपेक्षापूर्ण नीति के कारण भारतीयों में रोष व असन्तोष की भावना उभरी । । | ( 5 ) अंग्रेजों की सैन्य भर्ती नीति - युद्ध के दौरान सेना में भारतीय सैनिकों की जबरदस्ती । प की गयी । गांवों में प्रत्येक परिवार से 2 - 3 व्यक्तियों की सेना में भर्ती अनिवार्य कर दी गयी । इससे जनता में असन्तोष जागृत हुआ । इसके विपरीत जब युद्ध समाप्त हो गया तो बड़ा संख्या में सैनिकों की छटनी कर दी गयी ।

 बहुत से लोग बेरोजगार हो गए । इससे सरकार का संकीर्ण और स्वार्थी प्रवृत्ति जनता के समक्ष उजागर हुई और वह अंग्रेज सरकार के साथ असहयोग करने के लिए तैयार हो गयी । । ( 6 ) माप्टफोर्ड घोषणा से रािशा - भारतीयों को यह आशा थी कि युद्ध के पश्चात् ब्रिटिश सरकार उन्हें कुछ न कुछ मात्रा में राजनीतिक सुधार व अधिकार प्रदान कर माण्टफोडे घोषणा से भारतीय जनत , में निराशा व्याप्त हो गयी क्योंकि केन्द्रीय सरकार १२ भांति अनुत्तरदायी बनी रही और प्रान्तों में उत्तरदायी शासन की स्थापना नहीं की गयी ।

 ( 7 ) लिट एक्ट 1919 - दिसम्बर 1919 में विटिश सरकार ने भारतीय क्रा के आन्दोलन से सम्बन्धित आरिपूर्ण षड्यन्त्रों के कार्यकलापों की रिपोर्ट देने एव । की जाने वाली कार्यवाहिय र कानूनों की रूपरेखा बनाने के लिए जस्टिस रासदी किया ८ प्रतिक्रिय नेताओं जागृति । डॉ . किच गया । स पूर्णतः शा पूरा जुलून में जो भी को लूट सार्वजनिट अमृतसर शहर में 3 करने , एक की कोई = आयोजित एक ही थे गये ।

 इस सभा की । निकलने । बरसाने के हजार लो गोला - बार अनुमति = को रिपोर्ट देने एवं उनके विरुद्ध जस्टिस रोलट की अध्यक्ष ५ किया गया और इसकी गया था कि भारत का वर्तमान गया । पंज कर दिया मुकदमा = गयी । लो भारतीयों थी । इस ( लए अप्यप्ति है । में एक समिति की नियुक्ति की । इस समिति का सम्पूर्ण भारत में विरोध किया । रिपोर्ट को अत्यन्त प्रतिक्रियावादी कहा गया क्योंकि इसमें कहा गया था कि फौजदारी कानून क्रान्तिकारियों की गतिविधियों का सामना करने व अतः दो नये कानुन बनाये जाने चाहिए ।

 इस समिति की रिपोर्ट अप्रैल अरि इसके आधार पर 18 मार्च , 1919 को गया जो रौलट एक्ट के नाम से प्रसिद्ध है । इस एक्ट के अनुसार में आतंकवादी और अफ कि वे संदिग्ध क्रान्तिकारियों को बिना माकूल जाँच पड़ता दश जारी कर सकते थे । इस एक्ट की कांग्रेस और समस्या ८ अप्रैल 1918 में प्रकाशित हुई । ६ र अराध अधिनियम पारित के अनुसार मजिस्ट्रेटों को यह अधिक की ओर सरकार ने हेतु एक व डायर ने तीव्र भत्र्सना की और इसका विरोध किया गया( 8 ) जलियांवाला बाग हत्याकाण्ड - एक ऐसा भीषण हत्याकांड जो अंग्रेज सरकार ने किया था , जिसका अन्यत्र उदाहरण दर्लभ है ।

 पंजाब का गवर्नर माइकल ओ डायर अत्यन्त प्रतिक्रियावादी और भारतीयों से घृणा करने वाला व्यक्ति शा । सरकार ने गांधीजी सहित सभी । नेताओं के पंजाब प्रवेश पर प्रतिबन्ध लगा दिया । तनाव व असन्तोष के बावजूद •पंजाब में जागृति बनी रही । 10 अप्रैल , 1919 को पंजाब के अत्यन्त लोकप्रिय नेताओं डॉ . सत्यपाल अरि डॉ . किचलू के अमृतसर से निष्कासन के आदेश जारी कर दिए गये और उन्हें नजरबन्द कर दिया गया । सरकार की इस कार्यवाही के विरोध में अमृतसर में एक विशाल जुलूस निकाला गया जो पूर्णतः शांत और व्यवस्थित था फिर भी एक स्थान पर पुलिस ने जुलूस पर गोली चला दी ।

 इससे पूरा जुलूस भड़क उठा और जनता ने उत्तेजित होकर हत्या , आगजनी और लूटमार मचा दी । मार्ग में जो भी यूरोपियन स्त्री - पुरुष मिले उन पर हमला कर दिया गया । नेशनल बैंक व एलाइन्स बैंक को लूट लिया गया और उनके युरोपियन मनेजरों को मार डाला गया । टाऊन हाल व अन्य सार्वजनिक भवनों व सम्पत्ति को नष्ट किया गया और टेलीफोन के तार तोड़ दिये गये । सरकार ने अमृतसर का शासन सेना को सौंप दिया और जनरल डायर ने सारा काम सम्भाल लिया ।

 सेना ने शहर में अन्धाधुन्ध गोलियां चलाई जिससे कई लोग मारे गये । 12 अप्रेल को सार्वजनिक सभा करने , एकत्र होने व जुलूस निकालने पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया किन्तु इसकी सूचना पहुंचाने की कोई व्यवस्था नहीं की गयी । | 13 अप्रैल , 1919 को वैसाखी के दिन जलियांवाला बाग में सार्यकाल एक आम सभा आयोजित की गयी । जलियांवाला बाग हालांकि काफी लम्बा चौड़ा था किन्तु उसका प्रवेश मार्ग एक ही था और वह भी अधिक चौड़ा नहीं था । लगभग 20 हजार लोग इस सभा में एकत्रित हो । गये । इस सभा को होने से पहले ही रोकने का कोई प्रयास सरकार द्वारा नहीं किया गया ।

 जब सभा की कार्यवाही आरम्भ हो गयी तो जनरल डायर 150 सैनिकों के साथ वहां आया और बाहर निकलने वाले मार्ग को रोक कर मोर्चा लगाकर बिना किसी पूर्व चेतावनी के भीड़ पर गोली बरसाने के आदेश दे दिए । बन्दूकों व मशीनगनों से हजारों गोलियां दागी गयी । करीब एक हजार लोग इस हत्याकांड में मारे गये । यह गोली वर्षा तभी रुकी जब सैनिकों के पास गोला - बारुद समाप्त हो गया । पूरी रात घायल व्यक्तियों को वहां से हटाने या ले जाने की । अनुमति नहीं दी गई । अमृतसर में इस हत्याकांड के पश्चात् सम्पूर्ण पंजाब में सैनिक शासन लागू कर दिया गया । पंजाब की जनता पर अंग्रेजों ने मनमाने अत्याचार किये । अमृतसर के नलों में पानी बन्द कर दिया गया और बिजली काट दी गयी । सैकड़ों लोगों को पकडकर सैनिक अदालतों में मुकदमा चलाया गया । जिनमें से 51 को फांसी और 46 को आजन्म कारावास की सजा दी गयी ।

लोगों पर भीषण अत्याचार किए गए , उन्हें गलियों व सड़कों पर पेट के बल चलाया गया । भारतीयों पर लाठी बरसाना , मारना - पीटनी , शारीरिक यंत्रणा देना अंग्रेजों के लिए मामूली बातें थी । इस भीषण हत्याकांड का सम्पूर्ण भारत पर विस्तृत और गहरा प्रभाव पड़ा । | ( 9 ) हन्टर कमटी की रिपोर्ट - एक अन्य महत्त्वपूर्ण घटना जिसने गांधीजी को असहयोग की ओर बढ़ाया वह थी हन्टर कमेटी और उसकी खोखली व पक्षपातपूर्ण रिपोर्ट । ब्रिटिश सरकार ने जलियांवाला बाग की घटना से भारतीयों में उत्पन्न रोग व विरोध के कारणों की जांच तु एक कमेटी की नियुक्ति की थी जिसके अध्यक्ष लाई हण्टर थे ।

 इस कमेटी के समक्ष जनरल या ने बयान देते समय अपने कार्य के प्रति स्वयं की कोई त्रुटि महसूस नहीं की बल्कि स्वयं को यान्वित महसूस किया । इस कमेटी की रिपोर्ट में कहा गया कि माइकल डायर दोषी नहीं है ।बल्कि कहा गया कि उसने नेक नीयत से उचित कार्यवाही की , हालांकि परिस्थितियों को समझने में उससे कुछ गलती हो गयी होगी । इण्डेम्निटी बिल ' पारित कर इन अधिकारियों को किसी भी प्रकार के दण्ड से बचा लिया गया । इस कमेटी की रिपोर्ट में एक प्रकार से हत्याकाण्ड की लीपा - पोती की गयी । यह कमेटी अंग्रेजों की बद - नीयति का स्पष्ट प्रमाण थी । | ( 10 ) खिलाफत की समस्या - टर्की का सुल्तान विश्व भर के मुसलमानों का धार्मिक नेता ( खलीफा ) माना जाता था । प्रथम विश्व युद्ध में टर्की ब्रिटेन के विरुद्ध जर्मनी की ओर से युद्ध कर रहा था ।

 अतः भारतीय मुसलमानों ने मांग की कि वे ब्रिटिश सरकार की सहायता इस शर्त पर ही करेंगे कि युद्ध की समाप्ति के पश्चात् इंग्लैंड टर्की के प्रति प्रतिशोध की नीति नहीं अपनाएगा और उसके साम्राज्य को छिन्न - भिन्न नहीं होने देगा । ब्रिटिश प्रधानमन्त्री लायड जार्ज ने इस मांग को मान लिया ब्रिटिश प्रधानमंत्री के इस आश्वासन पर मुसलमानों ने युद्ध में अंग्रेजों की पूरी सहायता की किन्तु युद्ध समाप्ति के बाद 1920 में टर्की के साथ सीवर्स की सन्धि की गयी जिसमें उपर्युक्त आश्वासन की पूर्ति नहीं की गयी और टर्की साम्राज्य का विघटन कर दिया गया । टर्की में एक हाई कमिश्नर नियुक्त किया गया जिसे वास्तविक शासन की शक्ति दी गयी । सुल्तान केवल नाममात्र का शासक रह गया ।

 खलीफा का पद सुल्तान से छीनकर मक्का के हाकिम शेख हसन को दे दिया गया , जो अमेज़ों का कृपा पात्र था । । विटेन के इस विश्वासघात के विरोध में भारतीय मुसलमानों ने खिलाफत आन्दोलन चलाया । इस आन्दोलन के समर्थकों की मांग थी कि टर्की के साम्राज्य का पुनर्निर्धारण किया जाए और मुस्लिमों के आध्यात्मिक नेता के रूप में खलीफा का पद बनाए रखा जाए । गांधीजी इस खिलाफत आन्दोलन के समर्थक थे और इसे हिन्दू - मुस्लिम एकता बढ़ाने के लिए स्वर्णिम अवसर मानते थे । 19 जनवरी , 1920 को डॉ . अन्सारी के नेतृत्व में एक शिष्टमंडल वायसराय चेम्सफोर्ड से मिला लेकिन कोई फल नहीं निकला ।

मौलाना मोहम्मद अली के नेतृत्व में एक शिष्टमंडल इंग्लैंड भी गया किन्तु उसे अपने उद्देश्य में कोई सफलता प्राप्त नहीं हुई । शिष्टमण्डल निराश होकर भारत लौट आया । गांधीजी ने खिलाफत आंदोलन में मुस्लिमों का समर्थन किया । और ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध असहयोग आन्दोलन चलाने का निर्णय लिया । असहयोग आन्दोलन के उद्देश्य असहयोग आन्दोलन के उद्देश्य मुख्यतः दो थे ( 1 ) शान्तिमय एवं अहिंसक उपायों से स्वराज्य प्राप्त करना , ( 2 ) ब्रिटिश भारत की जो भी राजनीतिक , सामाजिक और आर्थिक संस्थाएँ हैं उन सब का बहिष्कार कर दिया जाए और इस प्रकार सरकार की मशीनरी को बिल्कुल ठप्प कर दिया जाए ।

असहयोग आन्दोलन का कार्यक्रम असहयोग आंदोलन का कार्यक्रम निम्न प्रकार से निश्चित किया गया ( 1 ) सरकारी उपाधियों और अवैतनिक पदों का त्याग किया जाये । ( 2 ) स्थानीय संस्थाओं के नामजद सदस्य त्यागपत्र दे दें । ( 3 ) सरकारी दरबारों , उत्सवों और भोजों में शामिल न हुआ जाए । ( 4 ) सरकारी और अर्द्ध - सरकारी स्कूलों एवं कॉलेजों का बहिष्कार किया जाये । ( 5 ) सरकारी न्यायालय का धीरे धीरे बहिष्कार किया जाए । ( 6 ) विदेशी माल का बहिष्कार किया जाये तथा स्वदेशी वस्तुओं का प्रयोग किया जा ( 7 ) सैनिकों , क्लर्को तथा मजदूरों द्वारा मेसोपोटामिया के लिये अपनी सेवायें न दी जाये।( 8 ) 1919 के अधिनियम के अन्तर्गत होने वाले चुनाव का बहिष्कार किया जाए ।

 इन सब कार्यक्रमों का उद्देश्य सरकारी नौकरियों , कौंसिलों , न्यायालयों , स्कूलों तथ कॉलेजों का बहिष्कार था । इसके अतिरिक्त कार्यक्रम का सकारात्मक पक्ष भी था , जिनमें निमः । बातें मुख्य थी ' ( 1 ) राष्ट्रीय स्कूलों और कॉलेजों की स्थापना , ( 2 ) पारस्परिक विवाद तय करने के लिए जनता की पंचायतों की स्थापना की जाये , ( 3 ) बड़े पैमाने पर स्वदेशी का प्रचार , ( 4 ) हाथकरघा एवं बुनाई उद्योग का जीर्णोद्धार , ( 5 ) हिन्दू मुस्लिम एकता को सुदृढ़ करना , तथा | ( 6 ) अस्पृश्यता का अन्त । । असहयोग आन्दोलन की प्रगति कलकत्ता अधिवेशन के पश्चात् गांधी जी ने सारे भारत का दौरा कर असहयो आन्दोलन का प्रचार किया ।

गांधी जी की अपील पर स्थान स्थान पर हजारों विद्यार्थियों द्वार सरकारी स्कूलों एवं कॉलेजों का बहिष्कार किया गया । अनेक राष्ट्रीय शिक्षण - संस्थाओं के स्थापना की गई , जिनमें काशी विद्यापीठ , गुजरात विद्यापीठ , बिहार विद्यापीठ , तिलक महारा । विद्यापीठ , बंगाल नेशनल विद्यापीठ , मुस्लिम विद्यापीठ , अलीगढ़ - नेशनल कॉलेज , लाहौर । जामिया मिलिया , दिल्ली इत्यादि प्रमुख संस्थायें थी । इन राष्ट्रीय शिक्षण संस्थाओं के स्नातको देश - सेवा के कार्य में प्रशंसनीय योगदान दिया ।

 अनेक विद्यार्थियों ने अपनी पढ़ाई और वकील ने अपनी वकालत छोड़कर आन्दोलन में भाग लेना आरम्भ किया । गांधी जी ने अपने केसर - ए - हिन्द ' के पदक को वापस कर दिया । सेठ जमनालाल बजाज ने अपनी रायबहादुर ' के उपाधि तथा ' आनरेरी मजिस्ट्रेटी ' छोड़ दी । विदेशी वस्त्रों के बहिष्कार में लोगों ने अपूर्व उत्साह दिखाया । स्थान - स्थान पर विदेशं वों की होली जलाई गई । शराब और विदेशी वस्त्रों की दुकानों पर पिकेटिंग की गई । स्वदेश को लोकप्रियता प्राप्त हुई और हाथकरघा एवं हाथ बुनाई को प्रोत्साहन मिला । चरखा कातन राष्ट्रीय एकता का प्रतीक बन गया और चरखा राष्ट्रीय चिन्ह बन गया । |

 सरकार की दमनकारी नीति - असहयोग आन्दोलन की प्रगति से सरकार अत्यधिव चिन्तित हुई और उसने आन्दोलन को कुचलने के लिए दमनात्मक उपायों का अवलम्बन लिया । सरकार ने ' राजद्रोह सभी अधिनियम ' का खुलकर प्रयोग किया तथा आन्दोलन के प्रमुख नेताओं को बन्दी बना लिया । अली - बन्धु , मोतीलाल नेहरु , चितरंजनदास , लाला लाजपत राय , सभा चन्द्र बोस आदि प्रमुख नेता बन्दी बना लिए गए । चौरी - चौरा काण्ड और असहयोग आन्दोलन का अन्त – जब असहयोग आन्दोलन अपनी पराकाष्ठा पर था , उस समय चौरी - चौरा की हिंसक घटना ने सम्पूर्ण आन्दोलन को ही बदल दिया ।

 5 फरवरी , 1922 को चौरी - चौरा गांव ( उत्तर प्रदेश के गोरखपुर जिले में ) कांग्रेस की और से एक जुलूस निकाला गया । पुलिस ने जुलूस को रोकने का प्रयत्न किया जिससे सत्याग्रहियों और पुलिस में मुठभेड़ हो गई । इससे सत्याग्रहियों ने उत्तेजित होकर एक थानेदार और 21 सिपाहियों को थाने में खदेड़ दिया और आग लगा दी । वे सब आग से जल कर मर " य । इस घटना से अहिंसावादी गांधी जी को तीव्र आघात पहुंचा । उन्होंने 12 फरवरी , 1922 को रडोली में कांग्रेस कार्यसमिति की एक बैठक आमन्त्रित की जिसमें उनके द्वारा चौरी - चौरा घटना धार पर आन्दोलन स्थगित करने का प्रस्ताव किया गया था।

अधिनियम 1935

सन् 1919 ई . के अधिनियम से भारतीय शासन व्यवस्था में जो परिवर्तन हुए , उनसे भारतीयों को सन्तोष नहीं हुआ । गांधीजी के नेतृत्व में राष्ट्रीय आन्दोलन प्रचण्ड गति से चलता रहा । अन्त में विवश होकर टिश सरकार ने सन् 1927 ई . में सर जॉन साइमन की अता में ' गन शिन ' , जिसके सभी सदस्य अमेज को भारत भेजा । भारतीयों ने इस कमीशन का रिकार किया । मई , 13 ( ) में इस कमीशन ने अपनी रिपोर्ट प्रकाशित की जिसमें उसने भारत के वैधानिक ढाँचे एवं इसमें प्रान्तों के स्थान के बारे में सुझाव दिए । लन्दन में तीन गोलमेज सम्मेलन का आयोजन किया गया परन्तु समस्या का कोई समाधान नहीं हो सका । अन्त में निटिश संसद ने 1935 का अधिनियम पारित किया । जिसके अन्तर्गत भारत में संघीय व्यथा । ।

 योजना दिखाई गई । इसी 1935 के अधिनियम के द्वारा भारतीय संघ की स्थापना की गई तथा प्रान्तों को स्वायत्तता प्रदान की गई । इस अधिनियम को अगस्त , 1935 ई . में ब्रिटिश संसद द्वारा पारित किया गया । इसमें 451 . अनुच्छेद तथा 15 परिशिष्ट थे । । 1935 के अधिनियम की विशेषताएँ । प्रस्तावमा रहित संविधान – 1935 के अधिनियम के सम्बन्ध में कोई नई भूमिका या प्रस्तावना नहीं रखी गई । 191 ) के अधिनियम की भूमिका को 1 ) 35 के अधिनियम की भूमिका बना देने से स्पष्ट था कि विटिश शासक 1935 से अधिनियम द्वारा उत्तरदायी सरकार की धीरे - धीरे स्थापना की नीति को दुहरा रहे थे । 1935 से अधिनियम ने 1919 से अधिनियम की । प्रस्तावना में केवल इतना परिवर्तन किया था कि इसमें विटिश प्रान्तों के साथ देशी राज्यों को भी सम्मिलित कर लिया गया था ।

 2 . अखिल भारतीय संघ की स्थापना 1935 के अधिनियम के अन्तर्गत यह निर्णय लिया गया कि केन्द्र में ब्रिटिश प्रान्तों और देशी रियासतों को मिलाकर एक अखिल भारतीय संघकी स्थापना की जाये । यह संघ 11 ब्रिटिश प्रान्त , चीफ कमिश्नर प्रान्तों और देशी रियासतों से मिलकर बनना धा । इस अधिनियम के अनुसार प्रतों के लिए संघ में शामिल होना अनिवार्य था . परन्तु देशी राज्यों के लिए ऐच्छिक था । यह प्रावधान रखा गया कि प्रत्येक देशी रियासत को , जो संघ में शामिल होना चाहती थी , एक प्रवेश लेख या स्वीकृति लेख पर हस्ताक्षर करने होंगे । स्वीकृति - लेख में उन शतों का उल्लेख होना था , जिन पर वह संघ में शामिल होने के लिए तैयार थी । इस स्वीकृति - पत्र में उन सब शक्तियों का उल्लेख होना था ,

 जो रियासत संघ को समर्पित करना चाहती थी । संघ की इकाइयों को अपने आन्तरिक मामलों में पूर्ण अधिकार प्राप्त था । संघ और उसकी इकाइयों के मतभेदों का या झगड़ों का फैसला करने के लिए एक संघीय न्यायालय की स्थापना की गई । इसी अधिनियम के अनुसार एक संघीय कार्यकारिणी तथा व्यवस्थापिका की स्थापना की गई थी । 3 . केन्द्र में दोहरा शासन - इस अधिनियम ने प्रान्तों में दोहरे शासन का अन्त कर दिया , परन्तु यह केन्द्र में लागू कर दिया गया ।

 संघीय विषयों को दो भागों में बाँटा गया — सुरक्षित एवं हस्तान्तरित । सुरक्षित विषयों में प्रतिरक्षा , चर्च सम्बन्धी मामले , विदेश विभाग , कबीलों सम्बन्धी मामले आदि थे । उनका शासन गवर्नर जनरल अपनी इच्छा से चला सकता था । सुरक्षित विषयों के शासन में अपनी सहायता के लिए गवर्नर - जनरल कुछ सभासद नियुक्त कर सकता था , जिनकी संख्या 3 से अधिक नहीं हो सकती थी । | हस्तान्तरित विषयों को मन्त्रियों के हाथों में रखा गया था , जिनकी संख्या 10 से अधिक नहीं हो सकती थी ।

 मन्त्री विधानमण्डल में बहुमत प्राप्त दल के सदस्य होते थे तथा उसके प्रति उत्तरदायी थे । अधिनियम में यह आशा प्रकट की गई थी कि गवर्नर जनरल देशी रियासतों तथा अल्पसंख्यकों को मन्त्रिमण्डल में उचित प्रतिनिधित्व दिलाने का प्रयत्न करेंगे । इस क्षेत्र में भी विर्नर जनरल को विशेषाधिकार प्राप्त थे । 4 . विषयों का बँटवारा - 1935 के ऐक्ट के अन्तर्गत विषयों का बँटवारा निम्नलिखित प्रकार से किया गया और यही द्वैध - प्रणाल अन्त हो ग मण्डल में उत्तरदायी है था ।

 8 . विधानमण्डः ( i ) सदन के सद थी । उच्च को ब्रिटिश भारत वहाँ के नरेश | निम्न को उनकी जन भारत की जन ( 1 ) संघीय सूची – इस सूची में अखिल भारतीय हित के 5७ विषय रखे गये . जैसे संश । • पेनाएं , मुद्रा एवं नोट , रेल , डाक व तार , केन्द्रीय सेवाएँ , विदेशी मामले में संचार , बीमा , बैंक । आदि । संघीय सूची के विषयों पर केवल केन्द्रीय व्यवस्थापिका ही कानून बना सकती थी । ( ii ) प्रान्तों की सूची – इस सूची में प्रान्तीय हित के 54 विषय रखे गये , जैसे शि६ भू - राजस्व , स्थानीय स्वशासन , कानून व व्यवस्था , सार्वजनिक स्वास्थ्य , कृषि , सिंचाई , नहरे , खान जंगल , प्रान्त के अन्दर व्यापार व उद्योग - धन्धे आदि । प्रान्तीय सूची के विषयों पर केवल व्यवस्थापिका ही कानून बना सकती थी ।

 ( ii ) समवर्ती सूची – इस सूची में 30 विषय रखे गये थे जिन पर संघीय एवं दानी विधानमण्डल कानून बना सकते थे । इस सूची के प्रमुख विषय घे दीवानी तथा कानून , विवाह , तलाक , कारखाने , श्रम कल्याण आदि । केन्द्रीय और प्रान्तीय व मतभेद हो जाने पर केन्द्रीय विधानमण्डल का ही कानुन मान्य समझा जाता । व्यवस्था की गई कि गवर्नर जनरल अपनी इच्छा से केन्द्रीय विम * शक्तियां - अवशिष्ट शक्तियों के अनियमित होने के सम्बन विधानमण्डल को इन विषयों पर कानून बनाने का अधिकार दे ।5 . रक्षा कवच तथा संरक्षण - 135 के अधिनियम में अनेक संरक्षण तथा आरक्षणा की । व्यवस्था थी , जैसे कि साम्राज्यीय ब्रिटिश सेवाओं , अल्पसंख्यकों देशी रियासतों आदि के हित । । इनके सम्बन्ध में गवर्नर जनरल और गवर्नर्स को विशेष उत्तरदायित्व सौपे गये थे जिनके लिए उन्हें विशेष शक्तियों तथा मन्त्रियों के विरुद्ध स्वविवेक से कार्य की शक्ति दी गई थी ।

 6 , संघीय न्यायालय - इस ऐक्ट के अन्तर्गत केन्द्र और इकाइयों के आपसी झगड़े निपटाने के लिए एक संघीय न्यायालय की स्थापना की गई । इस न्यायालय को 1935 के अधिनियम की व्याख्या करने का भी अधिकार दिया गया । संघीय न्यायालय भारत सरकार की । उच्चतम न्यायालय नहीं था । कुछ विशेष परिस्थितियों में प्रिवी कौन्सिल में भी अपील की जा सकती थी । 7 . प्रान्तीय स्वायत्तता – प्रान्तीय स्वायत्तता 1935 के अधिनियम की मुख्य विशेषता थी । और यही इस अधिनियम का भाग था जो लागू किया गया था ।

 अधिनियम ने प्रान्तों में वैध - प्रणाली को समाप्त कर दिया , जिससे प्रान्तों में सुरक्षित व हस्तान्तरित विषयों के भेद का अन्त हो गया । | अब प्रान्तों के सभी विभागों पर मन्त्रियों का पूर्ण नियन्त्रण हो गया । ये मन्त्री विधान मण्डल में बहुमत प्राप्त दल के सदस्य होते थे और विधानमण्डल के प्रति संयुक्त रूप से उत्तरदायी होते थे । प्रान्त अब केन्द्र के अभिकरण मात्र नहीं रहे , उनका अपना संवैधानिक क्षेत्र था । । 8 . विधानमण्डलो तथा मताधिकार का विस्तार इस अधिनियम के अन्तर्गत विधानमण्डलों और मताधिकार का विस्तार निम्नलिखित प्रकार से किया गया | ( i ) केन्द्र केन्द्र में द्वि - सदनात्मक व्यवस्थापिका की व्यवस्था की गई ।

 केन्द्र के उच्च सदन के सदस्यों की संख्या 260 और निम्न सदन के सदस्यों की संख्या 375 निश्चित की गई । थी । उच्च सदन के सदस्यों में 156 ब्रिटिश भारत और 104 देशी रियासतों में से लिये जाने थे । विटिश भारत के सदस्य निर्वाचित किये जाते थे । देशी रियासतों के सदस्यों के चयन का तरीका - वहाँ के नरेशों पर छोड़ दिया गया था । । निम्न सदन के 375 सदस्यों में 125 स्थान देशी रियासतों को दिये जाने थे । देशी राज्यों को उनकी जनसंख्या के अनुपात को देखते हुए अधिक स्थान मिले थे ।

 उनकी जनसंख्या सम्पूर्ण भारत की जनसंख्या का 24 प्रतिशत थी , लेकिन उच्च सदन में 40 प्रतिशत और निम्न सदन में उन्हें 33 . 33 प्रतिशत स्थान प्राप्त हुए थे । ब्रिटिश प्रान्तों में केवल 14 , को ही मतदान का अधिकार था । । ( ii ) प्रान्त - प्रान्तीय विधानमण्डल के सदस्यों की संख्या लगभग दरानी कर दी गई । दो । । । प्रान्तों में से 6 विधानमण्डल द्वि - सदनात्मक कर दिये गये । संयुक्त प्रान्त की विधानसभा निम्न सदन ) के सदस्यों की अधिकतम संख्या 250 थी , जबकि उत्तर पश्चिम सीमा प्रान्त की विधानसभा के सदस्यों की संख्या सबसे कम 50 थी । ( ii ) मताधिकार - इस अधिनियम द्वारा मताधिकार का विस्तार किया गया था , परन्तु अभी जनसंख्या के 15 प्रतिशत को ही यह सुविधा प्राप्त हुई । | 9 , साम्प्रदायिक निर्वाचन प्रणाली का विस्तार साम्प्रदायिक निर्वाचन प्रणाली को न पल वाले रूप में कायम रखा गया बल्कि अनुसूचित जातियों के लिए भी इसे अपनाया मुसलमानों को केन्द्रीय विधानमण्डल में 33 . 33 प्रतिशत स्थान दिये गये , यद्यपि उनकी इस अनुपात में नहीं थी ।

 साम्प्रदायिक निर्वाचन प्रणाली का अब मुसलमानो केअतिरिक्त सिक्खों , युरोपियनों हरिजनों पूंजीपतियों , जमींदारों और भारतीय ईसाइयों में भी । विस्तार किया गया । 1935 के अधिनियम की आलोचना | 1935 के ऐक्ट की भारत में कटु आलोचना की गई थी । पं . जवाहरलाल नेहरू ने कहा था , “ यह अधिकारों का चार्टर नहीं , दासता का चार्टर है । " पं . मदनमोहन मालवीय ने कहा था , बढ़ती हु नवीन संविधान हम पर थोपा गया है । ऊपर से यह कुछ जनतान्त्रिक नजर आता है , परन्तु भीतर से पूर्णतया खोखला है । इस ऐक्ट द्वारा प्रतिपादित संविधान को अनुदारवादी , प्रतिक्रियावादी , विस्तार । अप्रजातान्त्रिक , फूट डालने वाला आदि कहा गया ।

 अधिनिय 1935 के अधिनियम की निम्नलिखित आधारों पर आलोचना की गई साम्राज्यव 1 . दोषपूर्ण संघीय व्यवस्था - इस अधिनियम के अन्तर्गत प्रस्तावित अखिल भारतीय संघ दोषपूर्ण था क्योंकि आत्म - निए ( G ) यह घटकों की इच्छा पर आधारित न होकर ऊपर से थोपा हुआ था । अधिकार ( ii ) देशी राज्यों के लिए संघ में सम्मिलित होना ऐच्छिक था जबकि ब्रिटिश प्रान्तों के की निर्णाय लिए इसमें सम्मिलित होना अनिवार्य था । ( iii ) घटकों की जनसंख्या , क्षेत्रफल , महत्त्व और दर्जे में बहुत अन्तर था । | एवं असफत ( iv ) ब्रिटिश प्रान्तों को स्वशासित संस्थाओं का अनुभव था . देशी रियासतें इनसे अनभिज्ञ थीं ।

 ( ५ ) ब्रिटिश प्रान्त संघ में निर्वाचित सदस्य भेजते थे , देशी रियासतों के सदस्यों का चयन वंहा के राजाओं पर छोड़ दिया गया था । लिया गया । 2 . गवर्नर जनरल और गवर्नरों की व्यापक शक्तियाँ इस अधिनियम ने गवर्नर जनरल और गवर्नरों को संवैधानिक अध्यक्ष नहीं बनाया । वे भारतीय विधानमण्डलों के प्रति नहीं , ब्रिटिश संसद के प्रति उत्तरदायी थे । गवर्नर जनरल संविधान को स्थगित कर सकता था और आन्दोलन के विधानमण्डल को भंग कर सकता था तथा साम्राज्यीय हितों की रक्षा के नाम पर समस्त शक्तियों अस् अपने हाथ में ले सकता था । अपने विशेष उत्तरदायित्वों , व्यक्तिगत निर्णयों , संरक्षण और उत्तरदायी घट आरणों के कारण वह निरंकुश और तानाशाह शासक के समान था । सर्वोच्च सत्ता गवर्नर । उत्त जनरल थी न कि संविधान । ।

 विश्वयुद्ध के 3 , खाना प्रान्तीय स्वराज्य – 1935 के अधिनियम द्वारा प्रान्तों में स्वायत्तता प्रदान की । सहयोग करने गई थी और दोहरे शासन का अन्त कर दिया गया था , परन्तु गवर्नर जनरल और गवर्नरों का अभिभावी शक्तियों ने इस स्वायत्तता को खोखला बना दिया था । प्रान्तों को दी गई शक्तियों गवर्नर जनरल और गवर्नरों के विशेषाधिकारों से सीमित हो गई थी । दिया । रोलट | 4 , संरक्षण में आरक्षण से हानियों - इस अधिनियम द्वारा प्रदत्त संरक्षण एवं शार राष्ट्रीयता तथा प्रजातान्त्रिक विकास के मार्ग में बड़ी बाधा थे । अल्पसंयकों सेाओं और देशी रियासतों के हितों की रक्षा की आड़ में इस व्यवस्था को स्थापित करने का उद्देश्य भारत में १ हाला साम्राज्यवादी हे मजबूत करना था । |

 5 . ब्रिटिश पद की वना - 1035 का अधरियम एक थोपा हुआ है । इका निर्माण विटिश सरकार ने किया था न कि भारतीयों ने । भारतीय उपमें न 5 का अधिनियम एक पोपा हुआ संविधान था । मीन नहीं कर सकते थे । भारत - सचिव की शक्तियों अभी भी बहुत पी । * भारतीयों ने । भारतीय उसमें कोई परिवर्तन या पद में उन दिया गया पर भारतीय भात जी को असह शासकों का है | गांध अहमदाबाद में असहयोग धनियम ' आत्म निर्णय के सिद्धान्त के प्रतिकूल था।6 . अस्थायी संविधान – इस अधिनियम द्वारा प्रदत्त संविधान अस्थायी था और उसमें वे सब दोष विद्यमान थे , जो अस्थायी संविधानों में होते हैं ।

 इसमें भारत के राजनीतिक विकास के लिए कोई कार्यक्रम न था । इस संविधान ने मुसलमानों और देशी रियासतों की दिन - प्रतिदिन बढ़ती हुई माँगों को प्रोत्साहन दिया । 7 . साम्प्रदायिकता को प्रोत्साहन - इसे अधिनियम ने साम्प्रदायिक निर्वाचन प्रणाली का विस्तार कर भारत की राष्ट्रीय एकता को बहुत हानि पहुंचाई । मुसलमानों को यद्यपि इस अधिनियम द्वारा बहुत लाभ पहुंचा था , फिर भी वे सन्तुष्ट नहीं हुए क्योंकि उन्हें पता था कि साम्राज्यवादियों से वे और अधिक लाभ प्राप्त कर सकते हैं । 8 . आत्म - निर्णय के अधिकार का अभाव - 1935 के अधिनियम में भारतीयों को आत्म - निर्णय का अधिकार नहीं दिया गया । उन्हें अपने लिए एक स्वतन्त्र संविधान बनाने का अधिकार नहीं था । यह अधिनियम ब्रिटिश संसद ने बनाया था और भारत की भविष्य की प्रगति की निर्णायक भी ब्रिटिश संसद ही थी ।

उदारवादियो की विचारधारा

भारत में उदारवाद का विकास 19 वीं शताब्दी के उत्तराई में हुआ । धीरे - धीरे भारत में राजनीतिक चेतना का विकास हुआ और 1885 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना हुई । 1885 से 1905 तक कांग्रेस परतदारयादियों काप्रभुत्व र । उदारवादी नेताओं में महादेव गोविन्द रानाडे , दादाभाई नौरोजी , फीरोजशारा मेहता , गुरेन्द्रनाथ बनर्जी , गोपालकृण गोखले तथा श्रीनिवास शास्त्री आदि प्रमुख थे । उदारवादी नेता प्रखर देशभक्त थे परना अपने समय की टाओं और सामाजिव पृष्ठभूमि से आबद्ध थे । ये लोग उच्च वर्ग से सम्बन्धित थे तथा पाश्चात्य शिक्षा एवं पिटिश उदारवादियों से अत्यन्त प्रभावित थे ।

 उदारवादियों का विचार या फि टि सम्पर्क से भारत को बहुत लाभ हुआ है उसे राजनीतिक एकता और राष्ट्रीय चेतना प्राप्त हुई है । वे त्रिटिश शासन की इस देन के कि उसने भारत के सामाजिक जीवन को पाश्चात्य ज्ञान और सभ्यता से अवगत करा लोकतन्त्र एवं स्वतन्त्रता की भावनाओं को जागृत किया । ये लोग अंग्रेजों की न्यायप्रियता में पूर्ण विश्वास रखते थे तथा निर्देशों और सुधारों के लिए ब्रिटिश सरकार का मुंह देखा करते थे । उदारवादियों को राजनीतिक विरोध के प्रति संयत दृष्टिकोण था ।

 वे ब्रिटिश सरकार के प्रति राजभक्ति रखते हुए राजनीतिक एवं प्रशासनिक क्षेत्र में धीरे - धीरे सुधार लाना चाहते थे । वे क्रमिक सुधार नीति में विश्वास करते थे । इसलिए उनके द्वारा व्यावहारिक दृष्टिकोण अपनाते हुए । बहुत ऊंची मांगे नहीं की गई । उदारवादियों की विचारधारा और कार्य पद्धति 1885 - 1905 के काल में भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन पर उदारवादियों का प्रभाव और नियन्त्रण बना रहा । उनकी विचारधारा और कार्य पद्धति का अध्ययन निम्नलिखित रूपों में किया थी ।

 कास । यात 3 = ( 1 ) ब्रिटिश सरकार के प्रति राज - भक्ति - यद्यपि उदारवादी नेता प्रखर देशभक्त थे । सन्तु अपनी देशभक्ति के बावजूद वे विटिश शासन के पूर्ण समर्थक थे । ब्रिटिश राज्यों के इमारों के प्रति उनके हृदय में कृतज्ञता का भाव था और वे विटिश साम्राज्य के प्रति राज - भक्ति = | ( 2 ) अंग्रेजों की न्यायप्रियता में विश्वास – उदारवादी नेताओं को अंग्रेजों की न्यायप्रियता अरट विश्वास था और वास्तव में इस विश्वास ने ही उनमें राज - भक्ति की भावना को जन्म था । डॉ . पट्टाभि सीतारमैया के मतानुसार , “ उदारवादी नेता इस बात पर विश्वास करते थे ।न कि अंग्रेज स्वभाव से न्यायप्रिय होते हैं तथा यदि उन्हें भारतीय दृष्टिकोण का सही ज्ञान करा दिया गया , तो वे इसे स्वीकार कर लेंगे । "

 | ( 3 ) संवैधानिक साधनों में विश्वास - उदारवादी हिंसा और संघर्ष के विरोधी थे तथा वे संवैधानिक साधनों में विश्वास करते थे । अतः वे प्रार्थना - पत्रों स्मृति पत्रों और प्रतिनिधि मण्डलों के द्वारा अपनी मांगों को सरकार के समक्ष रखते थे । वे ऐसा कोई कार्य नहीं करना चाहते थे जिसमें शक्ति प्रदर्शन हो या विद्रोह हो या बाह्य आक्रमण को सहायता या प्रोत्साहन दिया जाता हो या कानूनों का उल्लंघन कर अपराध की प्रवृत्ति को बढ़ावा मिलता हो । इस प्रकार वे हिंसात्मक एवं क्रान्तिकारी साधनों से घृणा करते थे और राजनीतिक सुधारों के लिए संवैधानिक उपायों से सरकार पर सतत् दबाव डालते थे ।

उदारवादियों को यह विश्वास था कि वे अंग्रेजों पर नैतिक दबाव डाल कर उन्हें अपनी मांगों के औचित्य के प्रति विश्वस्त कर अपने उद्देश्यों को । प्राप्त कर लेंगे । | ( 4 ) ब्रिटेन के साथ स्थायी सम्बन्ध बनाये रखने में विश्वास – उदारवादियों की यह निश्चित धारणा बन चुकी थी कि भारत का कल्याण अंग्रेजों के साथ सम्बन्ध बनाये रखने में निहित है । वे ब्रिटिश सभ्यता में पले होने के कारण पाश्चात्य विज्ञान एवं संस्कृति के प्रति आसक्त थे । उनका विचार था कि ब्रिटिश शासन ने अंग्रेजी साहित्य , शिक्षा पद्धति , यातायात और संचार की व्यवस्था , न्याय व्यवस्था और स्थानीय स्वायत्त शासन के रूप में हमें एक प्रगतिशील सभ्यता प्रदान की है और ब्रिटिश शासन ही आन्तरिक अशान्ति और बाहरी आक्रमण से भारत की रक्षा करने में समर्थ है ।

 ( 5 ) धीरे - धीरे परिवर्तन लाने में विश्वास - उदारवादी नेता भारत में क्रांतिकारी परिवर्तन के समर्थक नहीं थे । वे सुधारवादी थे और राजनीतिक क्षेत्र में क्रमबद्ध विकास की धारणा में विश्वास करते थे । वे इस तथ्य से परिचित थे कि प्रतिनिधि सरकार को वे तत्काल प्राप्त नहीं कर सकते । तात्कालिक रूप में वे प्रशासन में आवश्यक सुधारों , विधायी परिषदों , सेवाओं , स्थानीय स्वायत्त संस्थाओं और रक्षा सेवाओं में सुधार से ही सन्तुष्ट थे और वे क्रान्तिकारी परिवर्तन के विरुद्ध थे ।

 | ( 6 ) राजनीतिक स्वशासन की प्राप्ति - उदारवादी ब्रिटिश शासन के अन्तर्गत स्वशासन की स्थापना चाहते थे । सुरेन्द्रनाथ बनर्जी के अनुसार , " स्वराज्य प्रकृति की अवस्था है . विधि का विधान है प्रकृति ने अपनी पुस्तक में स्वयं अपने हाथों से यह सबसे ऊंची व्यवस्था लिख रखी । प्रत्येक राष्ट्र अपने भाग्य का आप ही निर्माता होना चाहिए । " उदारवादी प्रजातन्त्र स्वशासन p4 संसदीय संस्थाओं के प्रशंसक थे और वैसी ही संस्थाएं भारत में चाहते थे परन्त वे ब्रिटिश शासन के अन्तर्गत ही स्वशासन चाहते थे । ( 7 ) प्रशासनिक सुधार - ब्रिटिश शासन में पूर्ण आस्था रखते हुए भी उदारवादियों ने प्रशासनिक और वैधानिक सुधारों पर बल दिया ।

 उन्होंने सरकार के शोषणकारी और दमनात्मक कार्यों की निन्दा की और भारतवासियों की उचित शिकायतों को दूर किये जाने पर जोर दिया । उदारवादियों ने प्रशासनिक सेवाओं के भारतीयकरण पर बल दिया । उदारवादी नेताओं ने भारतीय जनता की आकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व करते हुए सरकार के समक्ष निम्नलिखित मागे । रखीं | ( i ) सार्वजनिक सेवाओं में भारतीयों को अधिक संख्या में लिया जाये तथा प्रतियोगिता परीक्षाएँ भारत और इंग्लैण्ड में एक साथ आयोजित की जाएँ और भारतीयों के लिए इसकी अधिकतम आयु - सीमा बढ़ा दी जाए ।( ii ) व्यवस्थापिकाओं में निर्वाचिन की पद्धति अपनाई जाये तथा सदस्यों को प्रश्न पूछने । का , पूरक प्रश्न पूछने का प्रस्ताव पास करने का तथा बहुमत से बजट पारित करने के अधिकारों । की मांग की गई ।

 ( ii ) भारत - सचिव की परिषद को समाप्त किया जाये तथा केन्द्र व प्रान्तों में कार्यपालिका परिषद में भारतीयों की नियुक्ति की जाये । ( iv ) भारत के सनिक व्यय में कमी की जाये । ( v ) न्यायपालिका को कार्यपालिका से पृथक किया जाये । । ( vi ) सन् 1892 ई . में कांग्रेस ने लगान को स्थायी और निश्चित करने की मांग की । ( vii ) कृषि - बैक एवं अकाल - बीमा फण्ड स्थापित किये जाएँ , स्थानीय एवं गृह उद्योगों का विकास किया जाये एवं भारतीयों की आर्थिक अवस्था की जांच कराई जाये । । ( ii ) जंगलात कानूनों को उदार बनाया जाये । । ( ix ) स्थानीय संस्थाओं को अधिक शक्तियां प्रदान की जाएं तथा उन पर नियन्त्रण में कमी की जाये । ( x ) नमक पर कर कम किया जाये । ।

 ( i ) विदेशों में रहने वाले भारतीयों के हितों को सुरक्षा प्रदान की जाये । ( xii ) प्रेस पर नियन्त्रण कम कर उन्हें अधिक स्वतन्त्रता दी जाये । ( iii ) भारतीय शासन की जांच के लिए समय समय पर संसदीय कमीशन की नियुक्ति की जाए । ५ ) आर्थिक शोषण की नीति की निन्दा - अंग्रेजी शासन की उदारवादिता एवं न्यायप्रियता में आस्था रखते हुए भी उदारवादियों ने उनकी आर्थिक शोषण की नीति की । आलोचना की । उन्होंने देश में फैली हुई गरीबी , भुखमरी और बेकारी के लिए अंग्रेजों की आर्थिक शोषण नीति को उत्तरदायी ठहराया । दादाभाई नौरोजी ने धन निष्कासन सिद्धान्त का प्रतिपादन करते हुए कहा था कि भारत की निर्धनता के लिए विटिश शासन की शोषण नीति ही उत्तरदायी है ।

 " उदारवादियों ने सरकार की कराधान प्रणाली की निन्दा की । उनका यह भी कहना था कि अंग्रेजों की गलत नीति के कारण भारत के उद्योग - धन्धे और व्यापार नष्ट हो गये हैं । उदारवादियों की दुर्बलताएँ । उदारवादी विचारधारा में अनेक कमजोरियाँ थीं जिनके कारण वह अपने उद्देश्यों को । प्राप्त करने में असफल रही । उदारवादियों की दुर्बलताओं का वर्णन निम्न रूप से किया जा री परिवर्तन 1 धारणा में त नहीं कर नों , स्थानीय परिवर्तन के न स्वशासन विधि का लिख रखी , स्वशासन ब्रिटिश सकता है रवादियों ने दमनात्मक जोर दिया । नेताओं ने । नखित मांगें ( 1 ) ब्रिटिश साम्राज्य सम्वन्धी दृष्टिकोण की मिथ्यापर्ण धारणा – उदारवादियों का पिटिश साम्राज्यवाद सम्बन्धी दृष्टिकोण मिथ्यपूर्ण एवं हास्यास्पद था । उनका यह विश्वास था कि विटिश साम्राज्य भारत के हित में है तथा अंग्रेजों का उद्देश्य भारतीयों का कल्याण करना है ।

 न वास्तविकता यह थी कि अंग्रेजों ने साम्राज्य हितों को ही प्राथमिकता दी और भारत का थिक शोषण कर अपने देश को मालामाल बनाया । अपने स्वयं के स्वार्थों के कारण किन्ही मत क्षेत्रों में ब्रिटेन के द्वारा भारत को भले ही भौतिक प्रगति प्रदान की गई हो , परन्तु सामूहिक नेता बिटिश शासन भारत के चतुर्मुखी विनाश का ही कारण था । अंग्रेजों की न्यायप्रियता में में विश्वास निर्मूल था । जैसे कि बाद की घटनाओं ने सिद्ध किया कि साम्राज्यवादी और न्याय के स्थान पर शक्ति और दवाव की भाषा ही समझते थे ।

( 2 ) संवैधानिक साधनों की प्रभावहीनता – उदारवादियों ने अपने उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए जिन संवैधानिक साधनों का प्रयोग किया , ब्रिटिश साम्राज्यवादियों पर उनका कोई प्रभाव नहीं पड़ा । सन् 1918 तक उनकी अनेक प्रार्थनाओं और याचनाओं के बावजूद भी अंग्रेजों ने उनकी नितान्त उचित एवं वैध मांगों को मानने से इन्कार कर दिया था । ब्रिटिश सरकार ने उदारवादी नेताओं के साथ उपेक्षापूर्ण व्यवहार किया और उनकी दुर्बलता को भांपते हुए उनकी प्रमुख मांगों पर कोई विशेष ध्यान नहीं दिया ।

 उदारवादी यह नहीं समझ सके कि विदेशी शासन से , जो पशु - शक्ति पर आधारित है , अधिकारों की प्राप्ति केवल संवैधानिक साधनों द्वारा नहीं हो सकती । उनके लिए संघर्ष का रास्ता भी ग्रहण करना पड़ता है । इसी कारण उग्रवादियों ने उदारवादियों की राजनीतिक भिक्षावृत्ति ' कह कर निन्दा की । | ( 3 ) उदारवादियों में आत्म - त्याग की भावना का अभाव – उदारवादियों की इसलिए भी आलोचना की जाती है कि उन्होंने न तो व्यक्तिगत त्याग किये और न ही निजी कष्ट उठाये । । लाला लाजपत राय का कथन है कि " उदारवादी आन्दोलन लंगडा और निरुत्साही राजनैतिक आन्दोलन था ।

 यह रियासतों और स्वतन्त्रता की मांग तो करता था परन्तु यह बलिदान पर आधारित नहीं था । " | ( 4 ) उदारवादियों का आन्दोलन जनआन्दोलन न बन सका - अधिकांश उदारवादी नेता उच्च वर्ग से सम्बन्धित थे । उनका साधारण जनता से कोई सम्पर्क नहीं था । इसी कारण उनका आन्दोलन शिक्षित - वर्ग तक ही सीमित रहा । उदारवादी अपनी मांगों के प्रति जन - साधारण की । सहानुभूति अर्जित करने में असफल रहे । । उदारवादियों की सफलताएँ । यद्यपि उदारवादी आंदोलन में अनेक कमजोरियों थीं परन्तु उनकी सफलताओं की उपेक्षा नहीं की जा सकती ।

तत्कालीन परिस्थितियों को दृष्टिगत रखते हुए यह कहना पड़ेगा कि उदारवादियों द्वारा अपनाया गया मार्ग नितान्त औचित्यपूर्ण और व्यावहारिक था । यदि प्रारम्भ से ही ' पूर्ण स्वराज्य ' की मांग की जाती और इसके लिए हिंसात्मक साधन अपनाये जाते तो कांग्रेस के अस्तित्व को ही खतरा उत्पन्न हो जाता । अतः इससे पहले संसदीय प्रजातन्त्र के लिए आवश्यक नैतिक और राजनैतिक मूल्यों के विकास में जो उन्होंने योगदान दिया है . वह अपने आप में अत्यन्त महत्वपूर्ण है ।

अतः तत्कालीन परिस्थितियों में उनके द्वारा अपनाया गया मार्ग नितान्त स्वाभाविक और विवेकपूर्ण था । वे पक्के देशभक्त थे , उनमें राष्ट्र के निर्माण की । अभिलाषा थी और उन्होंने प्रारम्भिक काल में राष्ट्र की अमूल्य सेवाएं कीं । उदारवादियों की सफलताओं को निम्न बिन्दुओं में व्यक्त किया जा सकता है | ( 1 ) ब्रिटिश शासन के दोष स्पष्ट करना – उदारवादियों ने प्रारम्भ से ही ब्रिटिश शासन की बुराइयों से देशवासियों को अवगत कराना शुरु कर दिया था । नौकरशाही की बुराइयों बताने । के क्रम में उन्होंने विदेशी शासन के दोष स्पष्ट कर दिये । उन्होंने ब्रिटिश साम्राज्यवाद के - वास्तविक स्वरूप को जनता के सामने रखा और सरकार के दमनारमक एवं शोषणकारी कार्यों की निन्दा की ।

इस प्रकार कांग्रेस उदारवादियों के नेतत्व में एक प्रकार से सरकार का विरोधी पक्ष बन गई थी । ( 2 ) भारतीय राष्ट्रीयता के जनक - भारत में राष्ट्रीयता के अनक ये उदारवादी नेता ही थे । उन्होंने देशवासियों को शिक्षा दी कि वे साम्प्रदायिक और प्रान्तीय धरातल से उसर उठकर सामान्य राष्ट्रीयता की भावना को अपने हृदय में विकसित करें । उदारवादियों ने देश की सामाजिक , आर्थिक एवं राजनीतिक समस्याओं को एकता के सूत्र में गूंथने का प्रयास किया ।( 3 ) भारतीयों को राजनीतिक शिक्षा प्रदान करना - राष्ट्रीय आन्दोलन को उदारवादियों की एक प्रमुख देन यह है कि उन्होंने भारतीय जनता को राजनीतिक शिक्षा प्रदान की और उनमें प्रजातन्त्र तथा स्वतन्त्रता के आदर्शों को प्रसारित किया ।

उन्होंने सभी महत्त्वपूर्ण प्रश्नों पर विचार - विमर्श के लिए एक संगठन प्रदान किया और इस प्रकार शासन से सम्बद्ध प्रमुख प्रश्नों पर प्रबल जनमत का निर्माण किया । उन्होंने भारतीय जनता को व्यक्तिगत स्वाधीनता , प्रतिनिध्यात्मक संस्थाओं की स्थापना , आर्थिक और सामाजिक सुधार और अन्त में स्वशासन की मांग करने के लिए प्रेरित किया । जनमत को प्रभावित करने और भारतीयों को राष्ट्रीय जीवन की ओर आकर्षित करने की दिशा में उनके योगदान की उपेक्षा नहीं की जा सकती । । | ( 4 ) भारतीय स्वतन्त्रता - संग्राम का आधार तैयार करना – यद्यपि उदारवादियों के द्वारा स्वयं गम्भीरतापूर्वक स्वतन्त्रता की मांग या इस हेतु कोई आंदोलन नहीं किया गया , परन्तु उन्होंने एक पृष्ठभूमि तैयार की जिसके आधार पर ही भविष्य में स्वतन्त्रता हेतु विभिन्न आंदोलन किये गये ।

Saturday, June 29, 2019

भारत में राष्ट्रवाद का उदय

भारत में आधुनिक राष्ट्रवाद का सूत्रपात सिर । ही ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरुद्ध भारतीयों में असन्तोष उत्पन्न हुआ और भारतीय राष्ट्र आन्दोलन प्रारम्भ हुआ । भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन की प्रकृति एवं उद्देश्य - 18वीं शताब्दी में जब भारत में । आधुनिक राष्ट्रवाद का जन्म हुआ , भारत अंग्रेजों का गुलाम था । ब्रिटिश शासन - व्यवस्था से भारतीय समाज का प्रत्येक वर्ग असन्तुष्ट था । यह असन्तोष राजनीतिक , आर्थिक , सामाजिक धार्मिक व सांस्कृतिक आदि सभी क्षेत्रों में उभर कर सामने आया ।

 इस असन्तोष ने विदिश । साम्राज्यवाद विरोधी भावनाओं को जागृत किया और लोगों में यह भावना भरी कि वे भारत के ब्रिटिश शासन से मुक्त कराने के लिए आन्दोलन करें । इस प्रकार भारत में स्वतन्त्रता प्राप्ति के लिए आवाज उठाई जाने लगी और भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन प्रारम्भ हुआ । भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन का उद्देश्य था देश को ब्रिटिश गुलामी से मुक्त करवाकर स्वतन्त्रता प्राप्त करना । । इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए हरसम्भव प्रयत्न किये गये । भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने प्रारम्भ में उदारवादी संवैधानिक साधनों का प्रयोग किया । इसके असफल सिद्ध होने पर उग्रवादी साधन भी अपनाये गये ।

 क्रान्तिकारियों एवं आतंकवादियों ने इसी उद्देश्य की पूर्ति हेतु हिंसक साधून अपनाने और हत्या , बम - विस्फोट , सरकारी खजाने की लूट आदि कार्यवाहियाँ कीं । सेना के एक छोटे से हिस्से ने भी विद्रोह कर राष्ट्रीय आन्दोलन में सहयोग दिया । आजाद हिन्द फौज जैसे प्रयास भी हुए जिन्होंने सैन्य शक्ति से भारत को स्वतन्त्रता दिलाने के लिए प्रयास किये ।इस प्रकार हम देखते हैं कि भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन किसी एक संस्था या व्यक्ति का प्रयासों का परिणाम नहीं था । विभिन्न संगठनों एवं व्यक्तियों ने अपने - अपने तरीके से स्वतन्त्रता प्राप्ति के लिए प्रयास किये थे । भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन एवं भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के बीच अट्ट सध्या भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के बीच अटूट और गहरा सम्बन्ध है ।

 राष्ट्रीय आन्दोलन की मुख्यधारा का जन्म भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस के साथ ही हुआ और उसके साथ हो । इसका विकास हुआ । भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने स्वतन्त्रता आन्दोलन में महत्वपूर्ण योगदान दिया । जिसे नकारा नहीं जा सकता किन्तु साम्प्रदायिक राजनीतिक क्रान्तिकारियों व आतंकवादियों एवं सनिक क्रान्ति के प्रयास आदि का सम्बन्ध हालांकि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से बिल्कुल नहीं है , किन्तु भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन के इतिहास में ये भी महत्त्वपूर्ण है । |

 भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन के उदय के प्रमुख कारण - भारत में राष्ट्रीय आन्दोलन के उदय के लिए उत्तरदायी कोई एक कारण नहीं था । 19वीं शताब्दी के धार्मिक , सामाजिक सुधार आन्दोलनों एवं प्रथम स्वतन्त्रता आन्दोलन ने इसके लिए आधारभूमि तैयार की और अंग्रेजी शासन के दमन , आर्थिक शोषण , जातिगत भेद - भाव व कुशासन ने इसको विकसित किया । मुख्य रूप से इसके कारण ब्रिटिश शासन की वे दमनकारी नीतियाँ ही थीं जिन्होंने राजनीतिक , आर्थिक , धार्मिक व सामाजिक हर स्तर पर भारतीयों में असन्तोष की भावना को बढ़ाया । राष्ट्रीय आन्दोलन के उदय के प्रमुख कारणों का विवेचन निम्न प्रकार किया जा सकता है |

 1 . अंग्रेजी साम्राज्यवाद के विरुद्ध असंतोष – राष्ट्रीयता की भावना के विकास का सबसे प्रधान कारण अंग्रेजी साम्राज्यवादी नीतियों के प्रति बढ़ता रोष एवं असंतोष था । अंग्रेजी राजनीतिक , आर्थिक , सामाजिक नीतियों ने भारतीयों को यह समझने पर मजबूर कर दिया कि उनके हितों की रक्षा अंग्रेजी शासन में नहीं हो सकती । अंग्रेजी सरकार अपने ही स्वार्थों से प्रेरित होकर भारत का शोषण कर रही थी । इस शोषण से किसान , शिल्पी , मजदूर वर्ग , शिक्षित मध्यमवर्ग सभी प्रभावित थे । अंग्रेजी शासन से सिर्फ रजवाड़े , जागीरदार , ताल्लुकदार , महाजन एवं जमींदार ही संतुष्ट एवं लाभान्वित थे ।

 यह वर्ग भी अंग्रेजों के साथ ही मिलकर भारतीयों का शोषण कर रहा था । बुद्धिजीवीवर्ग बढ़ती बेरोजगारी से , व्यक्तिगत स्वतंत्रता एवं विचार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और राजनीतिक अधिकारों के नहीं होने से क्षुब्ध था । इसी प्रकार पूँजीपतिवर्ग भी अंग्रेजी आर्थिक नीतियों से प्रभावित होकर असंतुष्ट था । वस्तुतः समस्त भारतीय समाज , कुछ स्वार्थी लोगों को छोड़कर , ब्रिटिश साम्राज्यवादी नीति को भारत के लिए एक अभिशाप मानता था और इसमें परिवर्तन या समाप्ति की आकांक्षा रखता था । लोगों ने यह अच्छी तरह समझ लिया कि जब तक अंग्रेज रहेंगे उनका कल्याण नहीं होगा । वे यह भी समझते थे कि ब्रिटिश आधिपत्य की समाप्ति के लिए शक्ति से अधिक जनसमर्थन की आवश्यकता है ।

 अतः राष्ट्रीय चेतना एवं राष्ट्रीयता की भावना लोगों के दिलों में घर बनाने लगी । 2 . भारत का राजनीतिक एकीकरण - अंग्रेजी आधिपत्य से भारत को एक लाभ भी हुआ । इसने समूचे देश को राजनीतिक और आर्थिक रूप से एक सूत्र में बाँध दिया । यद्यपि यह कार्य अंग्रेजों ने अपने स्वार्थों की रक्षा के लिए ही किया , तथापि अंतत : यह अंग्रेजों के लिए अभिशाप एवं भारतीयों के लिए एक वरदान सिद्ध हुआ । अंग्रेजों के आगमन से पूर्व भारत में राजनीतिक एकता का सर्वथा अभाव था , परन्तु अंग्रेजों ने समूचे भारत पर अपना शासन स्थापित इसे एक राजनीतिक एवं प्रशासनिक सूत्र में बांध दिया ।

 समस्त देश में एक जैसी प्रशासनिक अवस्था कायम की गई और वायसराय समूचे भारत का प्रशासनिक अध्यक्ष बन गया । इससेअब सभी यह समझने लगे कि वे एक शासन के अन्तर्गत है । एकीकरण की प्रक्रिया है डाक तार को व्यवस्था ने भी महत्वपूर्ण भूमिका निबाही । इसने देश के विभिन्न भागों में वाले लोगों के मिलने - जुलने एवं विचारों के आदान - प्रदान का मार्ग सुगम बना दिया । ३ . भारतीय राष्ट्रीयता की आर्थिक पृष्ठभूमि - राष्ट्रीयता की वृद्धि में आर्थिक कारणों का भी महत्वपूर्ण योदान था ।

1857 ई . के पश्चात् भारत में राजनीतिक एकता के साथ - साथ आधिक । एकता भी स्थापित हुई । अब सरकारी आर्थिक नीतियों का प्रभाव समस्त देश पर समान रूप से पड़ने लगा । 10वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में भारतीय अर्थव्यवस्था में विरोधाभास स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ता है । एक तरफ गतिहीन अर्थव्यवस्था में , जैसे व्यापार , संचार और परिवहन के साधनों में तेजी से विकास हो रहा था तो दूसरी तरफ कृषि की अवनति हो रही थी । साथ ही जमीन पर दबाव भी बढ़ता जा रहा था ।

 देहातों में लोगों की स्थिति बिगड़ने लगी । व्यापारी वृद्धि ने पूंजीवादी उत्पादन को बढ़ावा दिया । विदेशी व्यापार की वृद्धि ने भारतीय अर्थव्यवस्था के औपनिवेशिक स्वरूप को और अधिक उभार दिया । इस व्यवस्था के अन्तर्गत भारतीय जनता और भारतीय साधनों का सर्वाधिक शोषण आरम्भ हुआ । अंग्रेजी आर्थिक नीतियों से समाजका उच्च दर्ग ही लाभान्वित हुआ , यहाँ तक कि भारतीय पूंजीवादी वर्ग भी इस व्यवस्था से संत नहीं हो सका । भारतीय पूंजीपति वर्ग देश के आर्थिक साधनों का समुचित विकास करना चारा था , परन्तु शासक वर्ग की नीतियों के कारण ऐसा संभव नहीं था । व्यापार की वृद्धि और ।

 उद्योगीकरण के फलस्वरूप जो समृद्धि आई उसका लाभ सामान्य जनता , किसान , कारीगर और मजदुर को भी नहीं मिला । इसके विपरीत देशी उद्योगों के विनाश , धन के निष्कासन , मूल्यवृदि अकाल , महामारी का घातक प्रभाव इसी वर्ग को झेलना पड़ा । देहांतों में कर्जदारों की संख्या में । तेजी से वृद्धि हुई । मजदूरी में वृद्धि की अपेक्षा अनाज का मूल्य ज्यादा बढ़ गया । जनता पर करों का बोझ बढ़ा , परन्तु राष्ट्रीय आय में वृद्धि नहीं हो सकी । देहात की गरीबी और आर्थिक दुर्व्यवस्था का प्रभाव व्यापारी बँकर और विभिन्न व्यवसायों में लगे लोगों पर भी पड़ा । फलतः देहातों का असंतोष राजनीतिक रूप से जागरूक शहरी लोगों , विशेषकर शिक्षित मध्यम वर्ग के माध्यम से उभरकर सामने आने लगा ।

 आर्थिक असंतोष ने राजनीतिक उतेजना को जन्म दिया । समस्त भारतीय वर्ग कुछ अपवाद के साथ इससे प्रभावित हुआ । सारे देश में लोगों ने देखा कि वे एक समान शत्रु ब्रिटिश शासन द्वारा उत्पीड़ित हैं । इस प्रकार , प्रो . विपिनचंद्र के अनुसार , ‘ साम्राज्यवादविरोधी भावना स्वयं देश के एकीकरण तथा समान राष्ट्रीय दृष्टिकोण के उदय है । एक कारक बनी । " | 4 . अंग्रेजी शिक्षा का प्रसार - यद्यपि अंग्रेजों ने भारत में अंग्रेजी शिक्षा का प्रसार अपने स्वार्थों के वशीभूत होकर ही किया था , तथापि 19वीं शताब्दी में पाश्चात्य विचारधारा । अंग्रेजी शिक्षा के विकास ने भारतीयों की मानसिक जडता समाप्त कर उन्हें आधनिक तैकस । विवेकपूर्ण राजनीतिक दृष्टिकोण अपनाने का अवसर प्रदान किया ।

भारतीय भी अब स्वः समानता , प्रतिनिधित्व जैसे सिद्धान्तों का महत त्व समझने लगे । पाश्चात्य राजनीतिक अट । जैसे अमेरिकी स्वातंत्र्यसंग्राम , फ्रांस की महान क्रान्ति इटली , स्पेन , युनान की क्रान्तिया । राजनीतिक महत्व को समझने में अंग्रेजी शिक्षा ने पर्याप्त सहायता की । इसी प्रकार शेली , बाईरन वाल्तेयर रूसो , मिल , मेजिनी गैरीबाल्डी सदृश विद्वानों के दर्शनों एव कार्यों से भारतीय शिक्षित वर्ग अत्यधिक प्रभावित हुआ । समान शिक्षा - प्रणाल एकीकरण में भ ी सहायता की । फलतः भारतीय विदेशी दासता को अपमान समः व्यक्तिगत एवं राजनीतिक अधिकारों की प्राप्ति और सुरक्षा के लिए संगठित होने किया । कविता ठाकुर ने सारी धार्मिक भास्ते । रामक सुधार को मा विक था ।

 चाहि बैठा सत्ता जनम * दोनों एवं क्रान्तिकारी शक्षा - प्रणाली ने देश के मान समझने लगे और संगठित होने लगे । बिर्टिशइतियासकार रैम्जे मैकडोनाल्ड ने भी इस राय को स्वीकार किया है कि पश्चिमी दार्शनिको से यत्तिगत भाग अपेज सरकार के समक्ष प्रस्तुत को । कार और वर्तत्रता के सिद्धान्त सीखकर भारतीय नेताओं ने उन अधिकारी का । | 5 , साहित्य एवं समाचारपत्रों का योगदान राजनीतिक चेतना का संचार करने में प्रेस और साहित्य का भी कम महत्व नहीं रहा है । प्रो . बिपिनचंद्र के अनुसार , प्रेस ही वर मुख्य माध्यम था जिसके जरिए राष्ट्रवादी विचारधारा वाले भारतीयों ने देशभक्ति के संदेश और आधुनिक आर्थिक , सामाजिक तथा राजनीतिक विचारों को प्रसारित किया और अखिल भारतीय चेतना का । सजन किया ।

 19वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में भारत में समाचारपत्रों की संख्या नगण्य थी । इनका उचित महत्त्व भी नहीं समझा जाता था , परन्तु 1857 ई . के पश्चात् इनका तेजी से विकास हुआ । फलस्वरूप अनेक अपेजी एवं क्षेत्रीय भाषाओं में समाचार पत्र प्रकाशित होने लगे । इनमें ' टाइम्स अफि इंडिया ' ' स्टेटसमन ' , ' इंगलिशमन ' , ' फ्रड ऑफ इंडिया ' ' मद्रास मेल ' , ' सिविल एंड मिनीटरी गजट ' आदि प्रमुख अंग्रेजी पत्र थे । इन पत्रों का रुख भारत - विरोधी एवं सरकार समर्थक होता था । लेकिन , इसी समय अन्य समाचारपत्र भी प्रकाशित हुए जिनमें अंग्रेजी सरकार की नीतियों की आलोचना की गई , भारतीय दृष्टिकोण को ज्वलंत प्रश्नों पर रखा गया और भारतीयों में राष्ट्रीयता , एकता की भावना जगाने का प्रयास किया गया ।

 ऐसे समाचार पत्रों में मुख्य रूप से उल्लेखनीय हिदू पेंट्रियट , अम्त बाजार पत्रिका इंडियन मिर , बंगाली ( बंगाल से प्रकाशित होने वाले ) : बम्बई से रास्त गोपतार , नेटिव ओपीनियन मराठा केसरी , मद्रास से हिन्दू उत्तरप्रदेश से हिन्दुस्तानी , आजाद और पंजाब से ट्रिब्यून थे । इन समाचारपत्रों ने राष्ट्रीय चेतना को विकसित किया । इसी प्रकार बंगला , असमिया , मराठी , तमिल , हिन्दी , उर्दू आदि में उपन्यास , निबन्ध , कविताएँ आदि लिखकर देशभक्ति की भावना जागृत की गई । बंकिमचन्द्र चटर्जी , रवीन्द्रनाथ ठाकर भारतेंदु हरिश्चंद्र , विष्णुशास्त्री चिपलेकर , सुसह्मण्यम भारती , अल्ताफ हुसैन हाली इत्यादि ने साहित्यिक रचनाओं से राष्ट्रप्रेम की ज्योति प्रज्वलित की । ।

 | 6 . सामाजिक धार्मिक सुधार आन्दोलनों का प्रभाव - 19वीं शताब्दी के सामाजिक एवं धार्मिक सुधार आन्दोलनों ने भी राष्ट्रीयता की भावना विकसित की । बंगाल , महाराष्ट्र और उत्तरी भारत में इन आन्दोलनों का व्यापक प्रभाव पड़ा । ब्रह्म समाज , आर्य समाज , प्रार्थना समाज , रामकृष्ण मिशन , धियोसोफिकल सोसाइटी इत्यादि ने स्वदेश - प्रेम की भावना जागृत की । इन सुधारकों ने अंग्रेजीकरण और ईसाइयत के बढ़ते प्रभाव को कम करने एवं हिन्दू धर्म , वेद आदि की महत्ता को पुनः स्थापित करने भारतीयों में आत्मसम्मान गौरव एवं राष्ट्रीयता की भावना को विकसित करने में मदद की ।

 कुछ आलोचकों का विचार है कि सुधार आन्दोलन प्रतिक्रियावादी था और इसने साम्प्रदायिकता का विकास किया परन्तु इसके साथ - साथ हमें यह भी याद रखना चाहिए कि जो देश सदियों से गुलामी की जंजीरों में जकड़कर अपना अस्तित्व और महत्त्व खो बैठा था , उसकी भावना को उभारने और आत्मविश्वास को जगाने के लिए यह कदम आवश्यक पा । डॉ . एम . एस . जैन के अनुसार , “ विश्व के उन देशों में राष्ट्रीयता की भावना , जिन्हें विदेशी मना के विरुद्ध संघर्ष करना पड़ा है , अतीत में गौरव हूँढकर ही जागृत हुई है ; इसलिए भारत में भी इस गौरवपूर्ण समय की तलाश हुई । परिणामस्वरूप सुधार आन्दोलनों ने राष्ट्रीयता की भावना जनमानस में कूट - कूट कर भर दी ।

 7 . प्राचीन संस्कृति का ज्ञान - सुधार आन्दोलनों के अतिरिक्त भारत की विस्तृत सभ्यता जानकारी , इसके इतिहास एवं संस्कृति की खोज ने भी भारतीयों में देशप्रेम की भावना मत की । कलकत्ता में स्थापित एशियाटिक सोसाइटी ने प्राचीन साहित्य एवं संस्कृति कोविश्व के समक्ष रखा । अनेक प्राचीन ग्रंथों का अंग्रेजी एवं अन्य भाषाओं में अनुवाद हुआ । प्राचीन लिपियों को पढ़ा गया , ऐतिहासिक स्मारकों एवं स्थलों की खोज की गई । मेक्स मूलर मोनियर विलियम्स , कोलक , हरप्रसाद शास्त्री , राजेन्द्रलाल मित्र , रानाडे , भण्डारकर इत्यादि के प्रयासों से भारतीयों में अपने अतीत के प्रति जिज्ञासा बढ़ी । इसका ज्ञान प्राप्त होने से उनमें गौरव एवं देशप्रेम का भाव जागा । |

 8 . विदेशों से सम्पर्क – अंग्रेजी शिक्षा के प्रसार के चलते अनेक भारतीय विदेशों में भी । गए । वहां उन लोगों ने नया राजनीतिक चिन्तन एवं क्रान्तिकारी विचार देखी । वे पश्चिम में होने वाले स्वतन्त्रता , समानता , राष्ट्रीयता के आन्दोलनों के सम्पर्क में आए । भारत आकर उन लोगों ने नए विचारों का प्रचार भारतीयों में भी किया और राष्ट्रीयता की भावना विकसित की । 9 . प्रजातीय विभेद की नीति – अंग्रेजों की प्रजातीय विभेद की नीति ने जलती अग्नि में घी का काम कर इसे प्रज्वलित कर दिया । अंग्रेज अपने आपको सबसे श्रेष्ठ समझते थे । वे भारतीयों को अपमान औरणा की दृष्टि से देखते थे । उन्हें ' काला ' या ' देशी ( native ) कहकर ही पुकारा जाता था । भारतीयों पर अनेक प्रकार के प्रतिबंध लगाए गए थेवे रेल के प्रथम श्रेणी में या उस डिब्बे में जिसमें अमेज हो सफर नहीं कर सकते थे , यूरोपियन क्लचों में नहीं जा सकते थे ।

 अंग्रेजों के मुकदमों की सुनवाई भारतीय न्यायाधीश नहीं कर सकते थे । समान अपराध के लिए भी अंग्रेजों को कम सजा मिलती थी । इस विभेद की नीति से भारतीय प्रभावित हुए । फलतः , उनमें एकता , राष्ट्रीयता और अंग्रेजों के विरुद्ध घृणा की भावना फैल गई । 10 . राजनीतिक संस्थाओं का योगदान – सामाजिक धार्मिक संस्थाओं की ही तरह 19वों शताब्दी में कुछ राजनीतिक संगठन भी बने जिन्होंने अपने अधिकारों की सुरक्षा के लिए संगठित होकर प्रयास किया । ऐसी संस्थाओं में लैंडहोल्डर्स सोसाइटी ' , ' ब्रिटिश इंडियन एसोसिएशन ‘ मदास नेटिव एसोसिएशन ' , ' बम्बई एसोसिएशन ' इत्यादि प्रमुख हैं । इन संस्थाओं ने प्रतिवेदन स्मरणपत्रों द्वारा सरकार पर राजनीतिक अधिकारों और सुविधाओं के लिए दबाव डाला । इससे भारतीयों में यह आशा जगी कि संगठित होकर सरकारी अत्याचारों का मुकाबला किया जा सकता है ।

 यह संगठन क्षमता राष्ट्रीयता की भावना विकसित करके ही प्राप्त की जा सकती थी । अत : इस दिशा में प्रयास किए गए । | 11 . लिटन और रिपन की प्रतिगामी नीतियां - भारतीय राष्ट्रीयता के उत्थान और विकास में लिटन और रिपन की प्रतिक्रियावादी नीतियों भी कम उत्तरदायी नहीं हैं । लिटन ने अपने कायों से । भारतीयों को अपमानित और क्रुद्ध कर दिया । उसने विटेन से भारत आने वाले कपड़े पर आयात । शुल्क हटा दिया । अफगान यु ( द्वितीय ) का खर्च भारतीय राजस्व से पूरा किया गया । देशी लोग । के हथियार रखने पर आम्र्स ऐक्ट द्वारा पाबन्दी लगा दी गई ।

 प्रेस को स्वतन्त्रता का अपहरण हुआ । सबसे दु : खद बात यह थी कि जिस समय समस्त भारत भूखमरी और अकाल से कराह रहा । था , उस समय उसने दिल्ली दरबार का आयोजन किया जिसमें पानी की तरह धन बहाया । उसने सिविल सर्विस में प्रवेश की उस घटाकर भारतीयों के लिए इसमें प्रवेश और अब कर दिया । लिटन के इन कायों की व्यापक प्रतिक्रिया हुई । उस अवस्था की व १९ लार्ड लिटन के प्रतिक्रियावादी प्रशासन ने जनता को उसके उदासीन १४कणस जगाया है और जनजीवन को आगे बढ़ने की प्रेरणा दी है ।

 इसी प्रकार के काल में इल्बर्ट विल पर विवाद एवं ' श्वेत विदो ' ने भारतीयों में राष्ट्रीयता उभारने एवं अपने अधिकारों के लिए एकजुट होकर आन्दोलन चलाने की अर राजनीति वि . उसने लोकतन्त्र विश्वास उदारवारि राजभवि क्रमिक र बहुत ऊँ नियन्त्रण जा सक परन्तु । उपकार सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने कहा , " लॉर्ड लिटन के प्रतिक्रियावादी प्रशासन ने १६ । जस अवस्था का वर्णन करते हुए भी रख दी है । इसी प्रकार लाई दिने । या में राष्ट्रीयता की भावना को पाने की प्रेरणा दी । इसके बाद भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना हुई जिसके नेतृत्व में भारत ने स्वतन्त्रता च में भारत ने स्वतन्त्रता प्राप्त की ।

ब्रिटिश शासन का प्रभाव

भारत का आर्थिक शोषण - अंग्रेजों के आगमन से पूर्व भारत की आर्थिक स्थिति । काफी अच्छी थी तथा भारत एक समृद्ध और धन - सम्पन्न राष्ट्र था । प्रो . रमेशचन्द्र दत्त का कथन है । कि " अमेजों ने भारतीय अर्थव्यवस्था का जिस प्रकार निर्दयतापूर्ण शोषण किया तथा देश को निर्धनता के गर्त में ढकेला , उसका उदाहरण अन्यत्र मिलना कठिन है । " ( 1 ) कृषि की उपेक्षा - यद्यपि भारत एक कृषिप्रधान देश है , परन्तु ब्रिटिश सरकार द्वारा भारतीय कृषि की घोर उपेक्षा की गई । ब्रिटिश शासकों ने सिंचाई पर विशेष ध्यान नहीं दिया । यद्यपि अंग्रेजी कम्पनी ने पंजाब में अपर गंगा नहर , दोआब नहर आदि का निर्माण करवाया , परन्तु नहरें भारतीय कृषि की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये अपर्याप्त थीं ।

1918 - 21 के बीच खेती । की भूमि के केवल 11 प्रतिशत भूमि में सरकारी सिंचाई के प्रबन्ध उपलब्ध थे । किसानों पर भारी । कर लगा हुआ था तथा कम्पनी के कर्मचारी बड़ी निर्दयतापूर्वक लगान वसूल करते थे । ( 2 ) लगान में वृद्धि - किसानों को अपनी भूमि के लिए सरकार को लगान देना पड़ता था । अंग्रेजी कम्पनी की राजस्व नीति बड़ी कठोर थी । कम्पनी का उद्देश्य किसानों से आधिकाधिक लगान वसूल करना था । जहां अंग्रेजी कम्पनी द्वारा बंगाल में 1765 - 666 ई . में लगान की राशि 14 . 17 , 000 पौंड थी वही राशि 1771 - 72 में बढ़कर 23 , 41 , 000 पौंड हो गई । अंग्रेजों की भू - राजस्व प्रणालियों ने भी भारतीय कृषि की उन्नति में बाधा डाली । स्थानीय बन्दोबस्त के कारण किसानों को अपार कष्ट उठाने पड़े ।

 रैयतबारी इलाकों में सरकार निष्ठुरतापूर्वक लगान वसूल करती थी । मद्रास तथा बम्बई में जहां महलवारी व्यवस्था लागू थी । लगान की मांग इतनी अधिक थी कि उसमें भूमि की पूरी अतिरिक्त उपज समा जाती थी । इस प्रकार लगान की कठोरता ने किसानों को बर्बाद कर दिया और खेती की दशा शोचनीय होती गई । ( 3 ) किसानों की दुर्दशा - ब्रिटिश सरकार की आर्थिक नीतियों के कारण किसानों की दशा बहुत शोचनीय थी । उन्हें अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये तथा लगान चुकाने के लिये साहूकारों से कर्जा लेना पड़ता था । यूरोपीय प्लान्टर्स भी किसानों का शोषण करते थे औरउन पर भारी अत्याचार करते थे ।

 इससे भी किसानों की स्थिति दयनीय हो गई थी । 10वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में भी भारत के विभिन्न भागों में 24 बार अकाल पड़ा और लगभग 2 करोड़ 85 लाख व्यक्ति मौत का शिकार बन गये । | ( 4 ) खाद्यान्नों का अभाव - आबादी में वृद्धि के अनुसार अनुपात से खेती का कुल त्रिफल बढ़ा नहीं था और लोग अनाज की जगह नकद फसलें उगाते थे । अतः इन कारणों से देश में खाद्यान्नों का अभाव हो गया । इसके बावजूद विटिश सरकार रुई , चाय , तिलहन , अनाज आदि का निर्यात करती थी । इससे भी भारतीय किसानों को अपार कष्टों का सामना करना पड़ा । |

 ( 5 ) कुटीर उद्योगों का विनाश - ब्रिटिश सरकार की दोपपूर्ण औद्योगिक एवं व्यापारिक नीति के कारण भारतीय कुटीर उद्योगों का ह्रास हुआ । ब्रिटिश सरकार ने स्वतन्त्र व्यापार की नीति का अनुसरण करते हुये इंग्लैंड में मशीनों से निर्मित सामान को भारत की मण्डियों में भेजकर भारी मुनाफा कमाना शुरु कर दिया । इसके अतिरिक्त भारतीय कारीगरों से बहुत कम मूल्यों पर माल खरीद कर अंग्रेजी कम्पनी विदेशों में ऊंचे मूल्यों पर बेचकर भारी लाभ कमाती थी । भारतीय वस्त्र - व्यवसाय का चौपट करने के लिये इंग्लैंड में भारतीय वस्त्रों के आयात पर प्रतिबन्ध व भारी आयात कर लगाया गया । भारत में इंग्लैंड में बने माल के आयात को प्रोत्साहन दिया गया । | ( 6 ) वस्त्र उद्योग का पतन - ब्रिटिश शासन की स्थापना के पूर्व भारत का वस्त्र उद्योग सबसे बड़ा उद्योग था । परन्तु अंग्रेजों ने अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए वस्त्र उद्योग को चौपट करना शुरु कर दिया ।

 बुनकरों को अंग्रेजी कम्पनी की पटरियों में काम करने के लिये बाध्य किया जाता था , उनका माल कम कीमत पर खरीदा जाता था तथा उन्हें अमानुषिक यातनायें दी जाती थीं । बुनकर को अपनी मेहनत के बदले में बहुत थोड़ी राशि मिलती थी । । अंग्रेजों की आर्थिक नीति के कारण भारतीय उद्योग - धन्धे चौपट हो गये और देश में । बेकारी तथा निर्धनता बढ़ती गई । ब्रिटिश सरकार ने भारत को इंग्लैण्ड के लिये कच्चे माल की खरीद तथा तैयार माल की मण्डी बना रखा था । अंग्रेजों की दोषपूर्ण औद्योगिक एवं व्यापारिक नीति के कारण 1757 से 1829 तक के 75 वर्षों से कम की अवधि में भारत एक औद्योगिक देश की स्थिति से कच्चे माल की पूर्ति करने वाले देश की स्थिति में आ गया ।

 ( 7 ) भारत के धन का निष्कासन - भारत के प्रसिद्ध राष्ट्रवादी नेता दादाभाई नौरोजी ने अपने विद्वत्तापूर्ण लेख में यह सिद्ध किया है कि ब्रिटिश सरकार की आर्थिक नीति का मुख्य उद्देश्य भारत के धन का निष्कासन करना था । ब्रिटिश सरकार ने सुनियोजित तरीके से भारत का अतुल धन इंग्लैण्ड पहुंचाया और भारत को निर्धनता के गर्त में डाल दिया । इतिहासकारों के अनुसार 1757 से 1857 की अवधि में लगभग 15 करोड़ पौंड के मूल्य के साधनों का निष्कासन किया गया । प्रो . वकील के अनुसार 1834 से 1839 तक की अवधि में 105 करोड़ पौंड मूल्य का निष्कासन किया गया ।

 इस प्रकार 1757 से 1939 तक सरकारी खाते के अन्तर्गत 120 करोड़ पीड मूल्य का धन था । यदि इसमें गैर - सरकारी भुगतानों को जोड़ दिया जाये तो सन् 1757 से 1939 की अवधि में कुल 600 करोड़ पौंड का धन ब्रिटेन को निष्कासित किया गया । यह धन निष्कासन अनेक रूपों में होता था । जैसे अंग्रेज अधिकारियों द्वारा समस्त बचतों को इंग्लैंड नी , भारत सरकार तथा अंग्रेज अधिकारियों द्वारा इंग्लैंड में बनी वस्तुओं को खरीदना , भारत में तथा सार्वजनिक कार्यों के लिये ऋण पर ब्याज तथा मूलधन चुकाना आदि । इसके त ब्रिटिश शासन का सारा खर्च भारत को ही उठाना पड़ता था ।धन - निकासन की प्रणाली के कारण भारतीय कृषि , उद्योग और व्यापार चौपट हो गये । किसानों और मजदूरों की दशा सर्वाधिक शोचनीय हो गई ।

धन , खाद्यान्न कच्चे माल आदि के निष्कासन के कारण पैदावार कम हो गई । जनता की आय पर हानिप्रद प्रभाव पड़ा और देश के गरीबी , बेकारी तथा भुखमरी बढ़ी गई । | निष्कर्ष - ब्रिटिश शासन के 150 वर्षों के शासनकाल के परिणामस्वरूप भारत की कवि उद्योग , वाणिज्य व्यापार आदि सभी को प्रबल आघात पहुंचा । अंग्रेजों की स्वार्थपूर्ण आर्थिक नीति के कारण देश की अर्थव्यवस्था बिगड़ती चली गई । गरीबी , भुखमरी तथा बेरोजगारी बढती । गयी । अंग्रेज भारत को एक निर्धन देश छोड़ गये जिसमें प्रति व्यक्ति आय बहुत कम थी । | डॉ . आर . सी . दत्त का कथन है कि , " अंग्रेजों की नीति के कारण लाखों भारतीय बेकार ने गए और सारा देश एक महान आर्थिक प्रलय में डूब गया । वास्तव में भारत की आर्थिक दुरावस्था अंग्रेजी शासन का अत्यन्त दुःखदायी परिणाम है ।
भारतीय धन का निष्कासन - धन निष्कासन से तात्पर्य उस धन से है , जो भारत से इंग्लैंड भेजा जाता था किन्तु उसके बदले में कुछ भी प्राप्त नहीं होता था । देश से दो प्रकार का धन बाहर जाता था - मुद्रा के रूप में या पदार्थों के रूप में । यह धन - निष्कासन धातु मुद्रा के रूप में कम और वस्तुओं के निर्यात व्यापार के रूप में अधिक होता था । प्रो . नाथूरामका का कथन है - " इसमें ब्रिटेन को किये जाने वाले वे विभिन्न भुगतान शामिल थे जिनके बदले में भी भारतीयों को कोई प्रतिफल नहीं मिलता था ।

ये भुगतान देश की बचत के प्रतीक थे जिनसे ब्रिटेन में विकास की गति को तेज करने में सहायता मिली । यदि यही बचत भारत में विनियोजित होती तो देश का आर्थिक विकास हो सकता था । ” | धन - निष्कासन के साधन ( 1 ) अंग्रेजी कम्पनी द्वारा व्यापार – भारत का धन इंग्लैंड ले जाने के लिये अंग्रेजी कम्पनी ने भरसक प्रयास किये । व्यापार इस प्रकार से किया जाता था कि कच्चा माल खरीदने के लिए पूंजी राजस्व की बचत में से ली जाती थी । मुनाफा कम्पनी के साझेदारों को उनके लाभांश के रूप में दिया जाता था । 1873 तक ( 6 . 3 लाख पड़ ब्रिटिश अधिकारियों को भुगतान किया गया ।

| ( 2 ) होम चार्जेज - होम चार्जेज में रेलों में लगी पूंजी का ब्याज , अन्य ऋणों पर व्याज , सुरक्षा सेवाओं पर ध्यय , इंग्लैंड में भारत - सचिव के कार्यालय का प्रशासनिक व्यय , अंग्रेज । अधिकारियों की पेन्शनें एवं भत्ते की राशि एवं भारत में विभिन्न विभागों के लिये किया गया । व्यय सम्मिलित था । भारत पर सैनिक व्यय का भार भी बहुत अधिक था । इस प्रकार वार शासन का सारा खर्च भारत को ही उठाना पड़ता था । विटिश सरकार अपनी विस्तारवादान की पूर्ति के लिए चीन , फारस , वर्मा , अफगानिस्तान आदि में अपने प्रभाव को बनाये रखने के बहुत बड़ी सेना रखती थी जिसका सारा खर्चा भारतीय जनता को करों के रूप में देना पड़ता इस प्रकार इंग्लैंड में खुलने वाले पागलखाने का व्यय , चीन और फारस में दूतावास की E F EA | | " " " का व्यय आदि भी भारतीयों को ही वहन करना पड़ता था ।

 भारत पर यह भार निरन्तर गया । जहां 1851 में होम चार्जेज की राशि 25 लाख पौंड थी . वह 1933 - 34 में 275 हो गई थी । ( 3 ) सार्वजनिक ऋण - भारत में होने वाले युद्धों तथा विटिश प्रशासन से व्यय होते थे , उन्हें भारतीय ऋण की संज्ञा दी जाती थी । 1792 में इस प्रकार ऋण 70 लाख पड़ था , जो 1829 में 300 लाख पौंड हो गया था । 1858 मे अंग्रेजी कंपनी का 7करोड़ पौंड का समस्त ऋण भारत सरकार पर डाल दिया गया । 1900 में यह राशि 224 करोड़ पौंड हो गई थी । ( 4 ) रेल - निर्माण - भारत में लें बनाने के लिये अंग्रेज पंजीपतियों को अत्यधिक लाभ । पर ठेके दिये गए । उन्हें पूजी - विनियोग पर प्रारम्भ में 5 प्रतिशत का गारन्टीड व्याज तथा लाभ में आधा - आधा हिस्सा देना स्वीकार किया गया । इस प्रकार 1849 से 1900 की अवधि में भारत । को 58 करोड़ रुपये का घाटा उठाना पड़ा जो विटिश पूंजीपतियों को गारन्टी भुगतान के रूप में । चुकाया गया ।

| ( 5 ) अन्य साधन - भारतीय धन - निष्कासन का एक मार्ग यह भी था कि भारत से अफीम को निर्यात चीन को किया जाता था और इस व्यापार का लाभ इंग्लैण्ड भेज दिया जाता था । चीन के मार्ग से अनुचित तरीके से उपलब्ध किये हुए धन को इंग्लैंड भेज दिया जाता था । सरकारी आय का व्यय भी इस प्रकार किया जाता था कि जिससे अंग्रेजों को अधिक लाभ हो । अतः शासन - व्यय की वृद्धि के कारण आंतरिक आर्थिक निष्कासन निरन्तर बढ़ता ही जाता था । इस प्रकार स्पष्ट है कि शासन प्रणाली बहुत मंहगी थी और जनता के हितों की रक्षा करना उसको मुख्य उद्देश्य नहीं था । 75 प्रतिशत राजस्व गरीब जनता से लिया जाता था ।

 भारतीय धन के निष्कासन के प्रभाव ( 1 ) निर्धनता में वृद्धि - विपुल मात्रा में भारत के धन के निष्कासित हो जाने से देश की निर्धनता में वृद्धि हुई । धन , खाद्यान्न , कच्चे माल आदि के निष्कासन के कारण पैदावार कम हो गई । जनता की आय पर हानिकारक प्रभाव पड़ा और देश में गरीबी तथा बेरोजगारी बढ़ती गई । ( 2 ) पूँजी - निर्माण की हानि - धन - निकासन के कारण न केवल धन की क्षति होती थी , बल्कि इससे पूंजी की भी हानि होती थी । इससे देश की आय व रोजगार पर बुरा प्रभाव पड़ता था । ( 3 ) भारत में विदेशी पूंजीपतियों का एकाधिकार - धन - निष्कासन के परिणामस्वरूप विदेशी पूँजी को भारत में एकाधिकार के लाभ मिल गए क्योंकि देशी पूंजी में प्रतिस्पर्धा की पर्याप्त शक्ति व सामर्थ्य नहीं थी ।

 ( 4 ) देश के औद्योगीकरण के लिए साधनों का अभाव - धन के बाह्य प्रवाह के कारण भारत के पास साधनों का अभाव हो गया जिससे औद्योगीकरण में बाधा पड़ी । इसके अतिरिक्त प्रतिकूल व्यापार शत , बचत एवं विनियोग साधनों के अभाव आटि के कारण भी देश के औद्योगीकरण में बाधा पहुंची । | ( 5 ) भारतीय कृषि का पिछड़ा रहना - प्रो . रमेश चन्द्र दत्त का मत है कि किसानों से भारी । लगान वसूल किया जाता था अंरि उस कर का प्रयोग भारतीय कृषि के विकास में न कर कृषि वस्तुओं को खरीद कर उन्हें इंग्लैंड भेज दिया जाता था ताकि कच्चा माल भारतीयों को प्राप्त न हो सके । इस प्रकार धन निष्कासन ने कृषि के लिए भी पूजी का अभाव उत्पन्न कर दिया । |

 ( 6 ) लघु एवं कुटीर उद्योगों का पतन - धन निकासन के कारण कच्चा माल सस्ती दरों पर इंग्लैण्ड भेजा जाता था और वहाँ से निर्मित माल ऊंची कीमतों पर भारत की मण्डियों में बेचा जाता था । भारतीय उद्योग विदेशी प्रतिस्पर्द्ध के कारण नष्ट होते चले गए जिससे देश में गरीबी और बेरोजगारी में वृद्धि हुई । । ( 7 ) करों का बोझ - निरन्तर धन - निष्कासन के परिणामस्वरूप भारतीयों पर करों का कम्पनी के लिए के रूप र व्याज , | अंग्रेज या गया ब्रिटिश दी नीति के लिए ता था । स्थापना ढता ही ख पाँड बोझ बढ़ गया । जो भी ल योग जी का ? ( 8 ) गांवों में निर्धनता बढना - धन - निष्कासन के फलस्वरूप गांवों में भी निर्धनता बढती । पाप सरकार की आय का 75 प्रतिशत से अधिक भाग गांवों तथा किसानों से प्राप्त होता ।

लार्ड कार्नवालिस का बंगाल का स्थाई बंदोबस्त रैयतवाड़ी तथा महालवाड़ी प्रथा

वारेन हेस्टिग्स की नई भरोस्य नीति अथवा इजारेदारी प्रथा - 1772 . में भारत हेस्टिग्स ने एक नई भू - राजस्व गवस्था को अपनाया जिससे अधिकारिक राजस्व वसूल हो । सके । यह इजारेदारी व्यवस्था के नाम से प्रसिद्ध हुई । उसने सर्वप्रथम पंचपथ ठेके की व्यवस्था की । इसमें सबसे अधिक बोली लगाने वाले को भूमि ठेके पर दी जाती थी । यह इजारेदारी प्रथा सफल नहीं हुई क्योंकि इससे कम्पनी के राजस्व में अस्थिरता आ गई । प्रत्येक वर्ष वसूल की गई राशि की मात्रा अलग अलग होती थी । कम्पनी को यह अनिश्चितता होती थी । कि अगले साल कितना लगान वसूल होगा ।

 पंचवर्षीय व्यवस्था की त्रुटियों को देखते हुए 1777 ई में वार्षिक ठेके की व्यवस्था की गई । यह व्यवस्था भी असफल रही क्योंकि हर वर्ष नये - नये व्यक्ति को लेकर किसानों से लगान वसूल करते थे जिनका उद्देश्य अधिक से अधिक रकम वसूल करना होता था । इजारेदारों ( जमीदारो ) का भूमि पर अस्थायी स्वामित्व होने के कारण वे भूमि सुधार के बारे में सोचते तक नहीं थे । वे किसानों को काफी सताते थे तथा उनसे अधिक धन बटोरते थे । इजारेदार कम्पनी को भी पूरी रकम नहीं देते थे । फिर भी 1793 ई . में बंगाल में कम्पनी को ( स्थायी बन्दोबस्त शुरू होने से पूर्व ) 30 , 91 , 000 पौण्ड प्राप्त होने लगे थे ।

 लार्ड कार्नवालिस द्वारा बंगाल का स्थायी बन्दोबस्त - इजारेदारी प्रथा के कारण बंगाल की आर्थिक व्यवस्था बिगड़ गई थी । चारों ओर गरीबी का राज्य था । अनेक स्थानों पर अकाल के कारण भुखमरी फैली हुई थी । 1779 ई . में लार्ड कार्नवालिस ने कहा था , " कम्पनी की एक तिहाई भूमि अब जंगल है तथा वहाँ पर जंगली जानवर ही बसते हैं । स्वयं लार्ड कार्नवालिस के इस कथन से हमें स्पष्ट हो जाता है कि इजारेदारी प्रथा बंगाल , बिहार और उड़ीसा के किसानों के लिए कितनी कष्टकारी थी ।

 एक लम्बे विचार - विमर्श के उपरान्त और बोर्ड ऑफ कन्ट्रोल को स्वीकृति लेकर लार्ड कार्नवालिस ने 22 मार्च , 1793 ई . को बंगाल , बिहार और उड़ीसा और बाद में उत्तरी मद्रास के कुछ इलाकों के लिए इस्तमरारी बन्दोबस्त अथवा स्थायी भूमि बन्दोबस्त लागू किया । इसकी तीन खास विशेषतायें थीं । प्रधम् जमींदारों और लगान वसूल करने वालों को पहले की तरह अब केवल मात्र मालगुजारी वसूल करने वाले कर्मचारी मात्र ही नहीं रखा गया बल्कि उन्हें हमेशा के लिए जमीन का मालिक बना दिया गया और स्थायी तौर पर एक ऐसी राशि तय कर दी गई जो वे सरकार को दे सकें । जमींदारों के स्वामित्व के अधिकार को पैतृक और हस्तान्तरणीय बना दिया गया । दूसरी ओर किसानों को मात्र रैयतों का नीचा दर्जा दिया गया?

 और उनसे भूमि सम्बन्धी तथा अन्य परम्परागत अधिकारों को छीन लिया गया । चरागाह , जंगले , नहरों , मछली पालन के लिए उपयोगी स्थानों , मकान बनाने के लिए उपयोगी भूमि और लगाने वृद्धि से सुरक्षा आदि के उनके अधिकारों को जमींदारों के हितों के लिए कम्पनी ने बलि चढ़ा दिया । तीसरा अगर किसी जमींदार से प्राप्त लगान की रकम कषि सुधार अधव पसार किसानों से अधिक रकम उगाहने के कारण राजस्व की रकम बढ़ जाती तो जमींदार की ब रकम रखने का अधिकार दे दिया गया । । उद्देश्य - स्थायी भूमि बन्दोबस्त का प्रथम उद्देश्य इंग्लैण्ड के ढग पर जमींदारों को ऐसा नया वर्ग तैयार करना था जो अंग्रेजी राज्य के लिए सामाजिक आधार का कार्य करे । अंग्रेजोनै ऐसा महसूस किया कि उनकी संख्या भारत में कम है और उन्हें एक विशाल आबादी पर अपना अधिकार रखनी है ।

 इसलिए अपनी सत्ता को बनाये रखने के लिए एक सामाजिक आधार तयार करना उनके लिए बहुत जरूरी है । इसके लिए उन्होंने एक ऐसा नया वर्ग पैदा किया जो कम्पनी से लूट - खसोट का एक हिस्सा पाकर अपने निहित स्वार्थ को अंग्रेजी साम्राज्य के बने रहने के साथ जोड़ ले । उनका दूसरा उद्देश्य था कि जमींदार कम्पनी की काफी ऊंची भू - राजस्व सम्बन्धी माग को पूरा कर सकें । जमींदारों को आदेश दिया गया कि वे किसानों से वसूल किये गये । राजस्व की रकम का 10 / 11 भाग कम्पनी को दें और शेष 1 / 11 भाग अपने लिए रखें । मगर भू - राजस्व की जो कुल रकम कम्पनी को अदा करनी थी वह सदा के लिए निश्चित कर दी गई । सरकार ने यह निर्धारित किया कि बंगाल के जमींदार प्रतिवर्ष तीस लाख पौण्ड किसानों से वसूल करके सरकारी कोष को दिया करेंगे ।

 पुराने राजाओं के काल में सरकार के लिए जमींदार जो वसूली करते थे उससे यह राशि बहुत अधिक थी । अगर कोई जमींदार निश्चित तारीख पर भू - राजस्व की मात्रा जमा नहीं करता था तो उसकी जमींदारी नीलाम कर दी जाती थी । _ लाभ - ( 1 ) स्थायी भूमि बन्दोबस्त से सबसे अधिक लाभ जमीदारों को हुआ । वे स्थायी रूप से भूमि के मालिक हो गये । वे भू - राजस्व को बढ़ा सकते थे । वे अपने जीवनकाल में या वसीयत द्वारा अपनी जमींदारी अपने वैध उत्तराधिकारी को दे सकते थे । चूंकि उन्हें एक निश्चित रकम ही सरकार को देनी होती थी इसलिए वे अपने स्वार्थ के लिए ( अर्थात् अधिक भू - राजस्व प्राप्ति के लिए ) कृषि सुधार और विस्तार में अधिक रुचि लेने लगे । कालान्तर में वे बहुत अधिक धनी हो गये और उनका जीवन अधिक सुखी हो गया । ( 2 ) स्थायी भूमि बन्दोबस्त से सरकार को भी कई लाभ हुए । प्रथम उसे जमींदारों का एक ऐसा वर्ग प्राप्त हुआ जिसके स्वार्थ सरकार के साथ जुड़े हुए थे और जो हर स्थिति में सरकार का साथ देने को तैयार थे ।

 जमींदारों ने ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध होने वाले विद्रोहों को कुचलने में कई बार महत्वपूर्ण भूमिका अदा की । आगे चलकर इन्हीं जमींदारों ने अनेक संस्थाएं ( लैंड होल्डर्स फेडरेशन , लैंड ओनर एसोसिएशन आदि ) बनाई और इन संस्थाओं ने राष्ट्रीय आंदोलन में विटिश शासन के प्रति अपनी अटूट निष्ठा की घोषणा की । दूसरा सरकार को प्राप्त होने वाली लगान राशि बहुत ज्यादा बढ़ गई । उदाहरण के लिए , 1793 ई . में ( जब बंगाल में स्थायी बन्दोबस्त लागू किया गया ) यह राशि 30 , 91 , 000 पौंड थी जो बढ़कर 1800 - 1801 में 42 , 00 , 000 पौंड और 1857 - 58 में 1 , 53 , 00 , 000 पौंड हो गई । तीसरा सरकार को इजारेदारी प्रथा के अंतर्गत जो प्रतिवर्ष लगान की नीलामी के झंझट करने पड़ते थे , उससे वह बच गई । चौथा सरकार की आय निश्चित हो गई जिससे वह अपना बजट ठीक प्रकार बना सकती थी । पांचवां वार्षिक प्रबन्ध में लगे अनेक कर्मचारी भूमि प्रबन्ध के कार्य से मुक्त हो गये । वह उन्हें प्रशासन के दूसरे कार्यों में लगा सकते थे ।

 इससे उसके प्रशासनिक व्यय में कमी आई और प्रशासनिक कुशलता बढ़ी । स्थायी भूमि बन्दोवस्त से हानियाँ ( 1 ) स्थायी बन्दोबस्त से सबसे अधिक हानियां किसानों को हुई । इस व्यवस्था ने उनसे रम्परागत भूमि सम्बन्धी तथा अन्य अधिकार छीन लिए । इस व्यवस्था के कारण बंगाल , बिहार , स , मद्रास के उत्तरी जिलों , वाराणसी जिले आदि के किसान पूर्णतया जमींदारों की दया पर हो गये । वे अपने जमीन पर ही मजदरों के रूप में काम करने वालों की स्थिति में आ गये । ।

 कार के साथ कोई सीधा सम्बन्ध नहीं रहा । उन्हें जमींदारों के अनेक प्रकार के अत्याचार नस के नों के ल को र बाद लागू नों को गया राशि और और नगल , नगान चढ़ा र या एक ग्रेजों की सरकार के साथ र शोषण को सहना पड़ा ।(2) बहुत से जमींदार लागान की वसूली में अपनी पारिवारिक परम्परा के अनसार । किसानों पर कुछ रहम दिखाते थे तथा कडाई के साथ पेश नहीं आते थे । वे मालगुजारी की निर्धारित ऊंची राशि के बोझ को नहीं उठा सके । फलस्वरूप उनकी जमीदारी बड़ी बेरहमी के साथ नीलाम कर दी गई । ( 3 ) इस पवस्था में लगान बढ़ाने की छूट के कारण ही अनेक जमींदारों के पास अधिक धन आ गया ।

 उन्होंने धनी हो जाने के कारण गांव छोड़ दिये । वे शहरों में विलासी जीवन गुजारने लगे जिससे समाज में अनैतिकता को बढ़ावा मिला । | ( 4 ) स्थायी बन्दोबस्त ने ( कालान्तर में ) हमारे देश में राष्ट्रीय भावनों की जागृति और राष्ट्रीय आन्दोलन को गहरा आघात पहुंचाया । चूंकि जमींदार वर्ग के हित ब्रिटिश सरकार के हितों से जुड़े हुए थे इसलिए उन्होंने उसकी रक्षा के लिए यथासम्भव सभी प्रयास किये । कुछ चन्द्र जमीदारों को छोड़कर किसी ने भी स्वतंत्रता संग्राम में अपना कोई योगदान नहीं दिया । ( 5 ) स्थायी भूमि बन्दोबस्त से सरकार को भी हानि हुई । चूंकि इस व्यवस्था में प्राचीन व्यवस्था के विपरीत भू - राजस्व बढ़ाने का अधिकार सरकार से छीनकर जमींदारों को दे दिया गया था

था । था इसलिए भविष्य में भी कृषि विस्तार होने पर या भू - राजस्व ( जमींदारों द्वारा ) बढ़ने पर भी उसकी आय नहीं बढ़ी । जबकि उसकी इस दूषित भूमि व्यवस्था के विरुद्ध जनता में असन्तोष निरन्तर बढ़ा जो आगे चलकर राष्ट्रीय आन्दोलन के दौरान व्यक्त हुआ । स्थायी बन्दोबस्त का किसानों पर प्रभाव - स्थायी बन्दोबस्त का किसानों पर सर्वाधिक बुरा प्रभाव पड़ा । इस व्यवस्था में किसानों को मात्र रैयतों का नीचा दर्जा दिया गया । उनसे भूमि सम्बन्धी तथा अन्य परम्परागत सभी अधिकार छीन लिए गए ।

 चरागाह एवं जंगल की जमीनों , सिंचाई की नहरों , मछली पालन तथा गृह निर्माण के लिए भूमि का प्रयोग करने तथा भू - राजस्व की वृद्धि से सुरक्षा उनके वे अधिकार थे जिन्हें पूरी तरह समाप्त कर दिया गया । इस व्यवस्था के कारण किसानों से बेगार लेना जमींदारों के लिए अधिक सरल था । वे लग्न न अदा करने के । आरोप पर जय चाहते उन्हें भूमि से बेदखल कर सकते थे । धीरे - धीरे किसान दरिद्र हो गए । क्योंकि जमींदार भूमि सुधारों में कोई रुचि नहीं रखते थे । वे पूरी तरह जमींदारों की दया पर निर्भर थे । जमींदारों ने निजी लाभ बढ़ाने के लिए असहनीय सीमाओं तक भूराजस्व बढ़ा दिया ।

उन्हें समय पर कर न देने के कारण जमींदारों के कई प्रकार के अत्याचार सहने पड़े तथा बेगार करनी पड़ी । उन्हें समय पर भूराजस्व चुकाने के लिए ( ताकि उनकी भूमि छीनकर जमीदार किसी अन्य को न दे दें ) सूदखोरों से भारी व्याज पर ऋण लेना पड़ता था जो उनके खून - पसीने का कमाई को हर वर्ष फसल के समय मनमाने भावों पर ले जाता था लेकिन किसान को ऋण की । समाप्त नहीं होता था । रैयतवाड़ी व्यवस्था स्थायी बन्दोबस्त के बाट ( 1800 ई में ) अनेक जिलों में विकल्प है । रूप में एक नई भू - राजस्व नीति अपनाई गई जिसका सर्वप्रथम प्रारम्भ मद्रास में किया गया । बन्दोबस्त की खास बात यह थी कि सरकार को किसानों के साथ सीधे - सीधे कोई बन्द करना चाहिए जो स्थायी नहीं , अस्थायी हो अर्थात् जिसमें हमेशा कुछ वर्षों के अन्न प्रकार संशोधन किया जा सके कि लगान की रकम निरन्तर बढ़त्री रहे । ब्रिटिश सरक । से प्राप्त होने वाले लगान के धन को किसी विचौलिए में बांटने की बजाय पूरा का पूर करना चाहती थी ।

 अगर एक वाक्य में कहा जाये तो कहा जा सकता है कि सर शुरू की गई रैयतवाड़ी बन्दोबस्त का केवल मात्र उद्देश्य स्थायी भूमि बन्दोबस्त दूर करना था । सर टामस रो की यह व्यवस्था बाद में अनेक सबों में लागू की गई और बीसवींशताब्दी के आरम्भ तक यह व्यवस्था ब्रिटिश भारत के आधे से अधिक भाग में लागू कर दी गई । वस्तुतः यह व्यवस्था ब्रिटिश सरकार ने इसलिए शह को क्योंकि उसके अधिकारियों का । विचार था कि दक्षिण और दक्षिण - पश्चिम भारत में , बड़ी भू - सम्पत्तियों वाले जमीदार नहीं है । जिनके साथ भू - राजस्व का स्थायी बन्दोबस्त किया जा सके । । ' हालांकि रैयतवाड़ी बन्दोबस्त के बारे में यह दलील दी गई थी कि यह भूमि व्यवस्था भारतीय संस्थाओं के काफी अनुकूल है परन्तु व्यावहारिक रूप में यह व्यवस्था जमीदारी व्यवस्था से किसी भी प्रकार से कम हानिकारक नहीं थी ।

 इसका कारण यह था कि इस प्रणाली के अन्तर्गत किसानों से अलग - अलग समझौते कर लिये जाते थे और मालगुजारी का निर्धारण वास्तविक उपज की मात्रा पर न करके भूमि के क्षेत्रफल के आधार पर किया जाता था । इस व्यवस्था ने उन पुराने बन्धनों को समाप्त कर दिया जिन्होंने हर गांव की जनता को सूत्र में बांध रखा था । ग्रामीण समाज के सामूहिक स्वामित्व को इस व्यवस्था ने समाप्त कर दिया । वस्तुतः इस व्यवस्था में जमींदार का स्थान स्वयं ब्रिटिश सरकार ने ले लिया था । सरकार ने किसानों से मनमाने ढंग से कर का निर्धारण किया और उनको जबर्दस्ती खेत जोतने पर मजबूर किया । इस संदर्भ में मद्रास बोर्ड ऑफ रेवेन्यू की रिपोर्ट के आधार पर यह विवरण उल्लेखनीय है -

“ यदि किसानों ने खेत जोतने से इन्कार किया और गांव छोड़ने की कोशिश की तो वे जबरन उन्हें । वापिस घसीट लाये , उनकी मांगों को तब तक टालते रहे जब तक फसलें पककर तैयार नहीं हो गई । इसके बाद जितना भी वे वसूल कर सकते थे , उतना उन्होंने वसूल किया और बैलों तथा • अनाज के दानों ( बीज के लिए ) के अलावा किसानों के पास कुछ भी नहीं छोड़ा । " रैयतवाड़ी व्यवस्था में अनेक अन्य दोष भी थे । इस व्यवस्था में किसान तब तक ही भूमि का स्वामी बना रह सकता था जब तक वह सरकार को निश्चित समय पर लगान देता रहता था ।

 चूंकि अधिकांश क्षेत्रों में निर्धारित भू - राजस्व काफी अधिक था इसलिए किसान समय पर ( प्राकृतिक विपत्तियों के समय में विशेषकर और भूमि सुधारों के प्रति सरकार की उपेक्षित नीति के कारण ) भू लगान नहीं दे सकता था । उदाहरण के लिए , इस व्यवस्था के अन्तर्गत मद्रास में किसानों से कुल उत्पादन का 45 से 55 प्रतिशत तक लगान लिया गया । इसी प्रकार बम्बई प्रेसीडेंसी में भी किसानों से ऊंचा लगान वसूल किया गया क्योंकि सरकार ने इच्छानुसार भू - राजस्व बढ़ाने का अधिकार अपने पास रखा था इसलिए समय के साथ - साथ किसानों के कष्ट बढ़ते गये । किसानों को लगान वसूल करने वाले सरकारी कर्मचारियों के दमन का शिकार होना । पड़ता था ।

 ब्रिटिश सरकार सूखे अथवा बाढ़ से हुई बर्बादी के दिनों में भी किसानों से लगान वसूल करती रही । | महालवाड़ी प्रथा - ब्रिटिश सरकार ने लार्ड हेस्टिग्स के काल में गंगा की घाटी , उत्तर - पश्चिमी प्रान्तों , मध्य भारत के भागों में जमींदारी बन्दोबस्त का एक संशोधित रूप लागू किया । वह व्यवस्था आगरा प्रान्त में तीस वर्ष के लिए और पंजाब में बीस वर्ष के लिए लागू की गई । इसे महालवाड़ी बन्दोबस्त कहा गया । इस व्यवस्था के अन्तर्गत राजस्व बन्दोबस्त गांव - गांव या मुहाल - मुहाल में जमींदारों या उन परिवारों के प्रधानों के साथ किया गया , जो सामूहिक रूप से गांव या महाल के जमींदार होने का दावा करते थे ।

 यद्यपि सैद्धांतिक रूप से भनि महाल अथवा सारे समुदाय की सम्पत्ति मानी जाती थी लेकिन व्यावहारिक रूप में किसान स ( भूमि को ) आपस में बाँट लेते थे और गांव का प्रत्येक किसान लगान मुखिया या नम्बरदार देता था । नम्बरदार को यह अधिकार था कि वह किसान को लगान न देने की स्थिति में भूमि दखल कर दे । इस व्यवस्था का सबसे बड़ा दोष यह था कि इसने गांव के मुखिया केविशेष स्थिति प्रदान की । प्रायः सरकार या उसके अधिकारी उसी के साथ लगान सम्बन्धी मामलों में सम्पर्क रखते थे । किसानों और सरकार में सीधे सम्बन्ध समाप्त हो गये ।

| संक्षेप में अंग्रेजों ने भारत में इजारेदारी , जमींदारी , रैयतवाड़ी और महालवाडी व्यवस्थाओं को अलग - अलग क्षेत्रों में अलग - अलग समय पर शुरू किया उनकी किसी भी भूमि व्यवस्था में किसानों के हितों की रक्षा के लिए कभी प्रयास नहीं किये गये । उनकी भूमि नीतियों ने भूमि को एक ऐसी वस्तु बना दिया जिसे बड़ी आसानी से बेचा जा सकता था या बन्धक रखा जा सकता था । उनकी इस व्यवस्था से भारतीय गांवों की स्थिरता और निरन्तरता हिल गई । अनेक उदार हृदय पुराने जमींदार बर्बाद हो गये । किसानों की स्थिति और अधिक दयनीय हो गई । किसानों को सरकारी कर्मचारियों और बिचौलियों के अत्याचारों और शोषण का शिकार बनना पड़ा ।

1858 से 1892 ईस्वी के मध्य भारतीय प्रशासन में हुए परिवर्तन

1858 से 1892 के मध्य भारतीय प्रशासन में हुए परिवर्तन | 1 . ईस्ट इण्डिया कम्पनी के प्रशासन का अन्त - 1857 की क्रान्ति का एक प्रमुख परिणाम यह निकला कि इंगलैण्ड की संसद ने एक एक्ट , जो प्रधानमन्त्री लार्ड पामर्सटन के काल ३ ॥ फरवरी , 1858 में पहली बार रखा गया था तथा प्रधानमन्त्री डव के काल में 2 अगस्त , 18585 पारित हुआ . द्वारा भारत पर शासन करने का अधिकार ईस्ट इण्डिया कम्पनी से लेकर बिट राजतन्त्र को सौंप दिया । 1858 के ऐक्ट के अनुसार भारत पर महारानी द्वारा , और उसकी से , शासन चलाया जाएगा । इस घोषणा के साथ ही भारतीय प्रशासन की सीधी जिम्मेवारीकर सकता था । जिनमें से कम से कम आधे सदस्य गैर सरकारी होने जरूरी कर दिये गये तरह कछ भारतीयों को ( जो प्रायः ऊंची श्रेणी के होते थे )

 परिषद में शामिल करने की व्यवस्था । गई । लेकिन भारतीयों के परिषद में नामजद किये जाने की केवल मात्र एक कोटी थी — बिटि । शासन के प्रति उनकी निष्ठा । प्राय : वायसराय बड़े - बड़े पनी जमीदारों , साहूकारों एवं व्यापारियों को ही नामजद करता था । चूंकि वे गवर्नर जनरल द्वारा मनोनीत किये जाते थे इसलिए वे उसकी मर्जी के विरुद्ध नहीं जाते थे । इस परिषद को कुछ ब्रिटिश विद्वानों एवं इतिहासकारों ३ इम्पीरियल लेजिस्लेटिव काउंसिल कहा है , जो ठीक प्रतीत नहीं होता क्योंकि गवर्नर जनरल इसके प्रति उत्तरदायी नहीं था । यह केवल परामर्शदात्री समिति मात्र थी ?

 इसे ब्रिटिश सरकार से पूर्व स्वीकृति लिए बिना किसी महत्त्वपूर्ण मामले पर विचार - विमर्श करने अथवा निर्णय लेने का अधिकार नहीं था । भारतीय ब्रिटिश साम्राज्य के बजट अथवा वित्त पर भी इसका कोई नियन्त्रण नहीं था । यह प्रशासन की कार्यवाही पर भी विचार - विमर्श या प्रश्न पूछने का अधिकार नही रखती थी । स्वयं वायसराय को कानून बनाने के अभी भी अधिकार प्राप्त थे । वस्तुतः अनेछ कानूनों के प्रारूप ब्रिटेन से ही तैयार होकर भारत आते थे तथा वायसराय की यह परिषद केवल । औपचारिकता पूरी करने के लिए उसे स्वीकार कर लेती थी । | 3 . शासन नीति पर प्रभाव और महारानी विक्टोरिया की घोषणा – 1857 ई की क्रान्ति । का ब्रिटिश भारत के सरकारी स्वरूप के साथ - साथ शासन नीति पर भी प्रभाव पड़ा ।

 इस दृष्टि से | तत्कालीन साम्राज्ञी विक्टोरिया की घोषणा उल्लेखनीय है । इलाहाबाद में एक बहुत बड़ा शानदार । दरबार हुआ , जिसमें लार्ड कैनिंग ने 1 नवम्बर , 1858 को महारानी की घोषणा को पढ़कर | सुनाया । महारानी ने घोषणा की — “ हम 3 ' पने अधीनस्थ अधिकारियों एवं कर्मचारियों को इस बात की आज्ञा देते हैं कि वे हमारे प्रजाजन के धार्मिक विश्वास अथवा उपासना में हस्तक्षेप करने । से सदैव दूर रहें , या उन्हें हमारा कोप - भान बनना पड़ेगा । हमारी यह तनिक भी अभिलाषा नहीं है कि हम अपने साम्राज्य को बढ़ायें । हर देशी नरेशों के सम्मान और प्रतिष्ठा का उतना ही ध्यान रखेंगे जितना कि अपना । " इस तरह महारानी की इस घोषणा के अनुसार , क्षेत्रों का सीमा विस्तार की नीति का परित्याग कर दिया गया ।

 स्थानीय राजाओं को उनके अधिकार एवं सम्मान के संरक्षण का विश्वास दिलाया गया । सरकार ने देशी राजाओं को नि : सन्तान होने की । स्थिति में दत्तक पुत्र प्रहण करने का अधिकार लौटा दिया । सैद्धान्तिक रूप से कानून की समानता एवं सरकारी नौकरियों में अवसर की समानता का भी आश्वासन दिया गया । अंग्रेजी  ाति के । लोगों की हत्या के दोषियों को छोड़कर शेष सभी को क्षमादान दे दिया गया । भारतीय रियासत को बनाये रखा गया ताकि ब्रिटिश साम्राज्य की रक्षा के लिये उनसे एक सुरक्षात्मक बांध का काम लिया जा सके । इस नीति के प्रभाव के सन्दर्भ में जवाहरलाल नेहरू ने ठीक ही लिखा है , वे लोग जो अपने आपको अवध के नवाब कहलाने में गर्व अनुभव करते थे , वे ही ब्रिटिश साम्राज्य के को अय सम्रा गई ।

 विद्रोह दिया गया । रख दी गई । जाट रेजीमेंट , सेना में राष्ट्र | 5 , ए . में देखा था कि मिलाकर उनसे प्रयास किये त कोई आंच न । ताकि कृट डार मिल सके । उ शासक के हो भलाई इसी में विरोधी अपने कर दिया । व सुविधाओं के निर्बल बनाने कारण 1906 | 6 . प्र | भारत को प्रान तथा अन्य प्रा गया । इन प्रेर था । इन प्रान्त अधिकार और नियुक्त करतं चीफ कमिश्न था । 1833 अधिकारों में स्थापित कर डाला इसलि गया । इस स्तम्भ बन गये । वस्तुतः 1857 के बाद सामन्तवादी और प्रतिक्रियावादी तत्व साम्राज्यवाद के विशेष कृपापात्र बन गये । ब्रिटिश सरकार ने सर्वसाधारण भारतीयों को दिये गये अपने वायद भी पूरे नहीं किये । न तो उसने राजकीय सेवाओं में जाति आर धर्म के आधार पर भद की गलत नीति ही छोड़ी तथा न ही भारतीय उद्योगों की प्रगति तया लोकहितैषी कायो । ही कोई ध्यान दिया ।

 4 , सना का पुनर्गठन सॅनिक द्वारा बड़ी संख्या में विद्रोह कर देने से सर । भारतीय सैनिकों पर विश्वास नहीं रहा । इसलिए इसका पूर्णतया पुनर्गठन । में गवथा कानून बनाने दिया गया किया गया । कर देने से सरकार का या पुनर्गठन किया गया औरइसका गठन विभाजन तथा  प्रतितोलन । नीति पर माराया । दण्या कम्पनी की सेना । ने की व्यवस्था को * * सनी की संज्ञा दे दी गई । ग्रेना में भारतीय सैनिकों का साया कम कर दी । नौटी थी - विटिश गई । विद्रोह तक भारतीय और यूरोपीय सैनिकों का अनुपात नित 31 होता था जो घटकर 1 कर रों एवं व्यापारियों या महत्वपूर्ण निक वेडा होता तो शानियों पर अब पुरोपीय सेना ही इसलिए वे उसको रख दी गई ।

 भारतीय सेना का संगठन जातीय त पूरा रीमेट रायसेना को संगठन जातीय तुपा धार्मिक आधार पर इतिहासकारों ने जाट रेजीमेट , सिक्ख रेजीमेंट , गोरखा रेजीमेंट आ सख रेजीमंट , गोरखा रेजीमेंट आदि के आधार पर किया गया ताकि भारतीय के गवर्नर जनरल सना में राष्ट्र भक्ति एवं राष्ट्रीयता की भावना न पनप सके । ब्रिटिश सरकार से । | 5 फट डाना आर की नीति पर अधिक जोर - अपजी ने 1857 की क्रान्ति । निर्णय लेने का । में देखा था कि भारत के दो प्रमुख सम्पदा कि भारत के दो प्रमख सम्प्रदाय हिन्दुओं एवं मुसलमानों ने परस्पर कन्धे से कथा का कोई नियन्त्रण मलाकर उनके विरुद संघ या था ।

 इसलिए उन्होंने इस क्रान्ति के बाद हर तरह से ऐसे का अधिकार नहीं प्रयास किये ताकि इन दोनों सम्प्रदायों में परस्पर शत्रुता एवं घृणा बढे ताकि अंग्रेजी साम्राज्य पर वस्तुतः अनेक कोई आंच न आ सके । अंग्रेज इतिहासकारों ने भारतीय इतिहास को इस तरह तोड़ - मरोड़ दिया ताकि फूट डालो और शासन करो की नीति ' को सफल बनाने में ज्यादा से ज्यादा उसका सहयोग मह परिषद केवल मिल सके । उन्होंने इतिहास की पुस्तकों में मुसलमानों को हिन्दुओं का उत्पीड़क एवं अत्याचारी शासक के रूप में अभिव्यक्त किया ।

 उन्होंने हिन्दुओं को यह जताने का प्रयास किया कि उनकी 57 की क्रान्ति | इसी में है कि वे अंग्रेजी शासन के समर्थक बने रहें । कुछ समय के बाद उन्होंने मुस्लिम ड़ा । इस दृष्टि से विरोधी अपनी नीति को बदल डाला । उन्होंने हिन्दुओं की बजाय मुसलमानों का पक्ष लेना शुरू इत बड़ा शानदार दिया । उन्होंने मुसलमानों को भड़काया कि वे अपने लिए सरकारी नौकरियों एवं अन्य पणा को पुरविधाओं के संरक्षण की मांग धर्म के आधार पर करें । उन्होंने कालान्तर में राष्ट्रीय आन्दोलन को चारियों को रमन बनाने के लिए साम्प्रदायिक दलों के निर्माण को प्रोत्साहन दिया ।

उन्हीं के प्रोत्साहन के में हस्तक्षेप करने कारण 1906 ई . में मुस्लिम लीग की स्थापना हुई । अभिलाषा नहीं 6 . प्रान्तीय प्रशासन – 1857 के विद्रोह के बाद अंग्रेजों ने प्रशासनिक सुदिधा की दृष्टि से T उतना ही ध्यान । भारत को प्रान्तों में विभाजित किया । उन्हनि दो प्रकार के प्रान्तों का निर्माण किया - प्रेसीडेंसी । क्षेत्रों का सीमा तथा अन्य प्रान्त । प्रेसीडेंसी प्रान्तों में तीन प्रान्त – वगाल , मद्रास और बम्बई को शामिल किया । 5 अधिकार एवं गया । इन प्रेसीडेंसियों का प्रशासन गवर्नर और तीन व्यक्तियों की कार्यकारी परिषद द्वारा होता मलान होने की थी । इन प्रान्तों ( अर्थात् प्रेसीडेंसियों ) की सरकारों को अन्य प्रान्तों की सरकारों की अपेक्षा अधिक नून की समानता अधिकार और शक्तियाँ थीं ।

 गवर्नर और कार्यकारी पार्षदों को इंगलैण्ड की रानी ( अथवा राजा ) अंग्रेजी जाति के युक्त करती थी । अन्य प्रान्तों का प्रशासन लेफ्टिनेंट गवर्नर ( उपराज्यपाल अथवा L . G . ) और रतीय रियासत | फि कमिश्नर ( मुख्य आयुक्त ) करते थे जिनकी नियुक्ति वायसराय अथवा गवर्नर जनरल करता 1833 तक इन प्रान्तीय सरकारों को पर्याप्त स्वायत्तता थी । 1833 के अधिनियम द्वारा उनके क बांध का काम | धिकारों में कटौती कर दी गई और उनके व्यय करने के अधिकार पर सख्त केन्द्रीय नियन्त्रण खा है , " वे लोग टश साम्राज्य के साम्राज्यवाद के ये अपने अन्य पार पर भेदभाव कायों की ओर पित कर दिया गया ।

मगर केन्द्रीकरण की प्रवृत्ति ने प्रशासनिक कुशलता पर बुरा प्रभाव इमलिए 181 के अधिनियम में केन्द्रीयकरण के स्थान पर विकेन्द्रीकरण को अपनाया इस ऐक्ट ने व्यवस्था की कि केन्द्र की तरह ही बम्बई मद्रास और बंगाल जैसे बड़े प्रान्तों यवस्थापिकाओं की स्थापना की जाये । भविष्य में व्यवस्थापिवाएं ही इन प्रान्तों के लिए बनाने लगीं । अन्य प्रान्तों में भी व्यवस्थापिका गठित करने का अधिकार वायसराय को । । शीघ्र ही संयुक्त प्रान्त और पंजाब में भी इसी तरह की व्यवस्थापिकाओं का निर्माण से सरकार का कया गया और । न्न प्रान्तीय व्यवस्थापिकाओं में दो दोष प्रमुख थे ।

 प्रथम , इन व्यवस्थापिकाओं को कार संस्थाओं का दर्जा ही प्राप्त था और वे आधुनिक लोकतान्त्रिक व्यवस्थाओं की(7) लोक सेवाओं में सर्वोच्च स्थान प्राप्ति के अवसरों को न्यूनतम कर दिया गया । इस परीक्षा ( IL . C , S . ) की अधिकतम आयु को 23 वर्ष से घटाकर 1866 में 21 वर्ष तथा 1878 में 19 वर्ष कर दी गई । अगर 23 वर्ष के भारतीय के लिये नागरिक सेवा की प्रतियोगिता में सफल होना कठिन था तो 19 वर्षीय भारतीय के लिए तो यह बिल्कुल असम्भव सा था । इस तरह से सर्वोच्च पदों पर पेजों का एकाधिकार बना रहा । शीघ्र ही पुलिस , लोक निर्माण विभाग , चिकित्सा , वन , सीमा शुल्क विभाग , रेलवे , डाक - तार , इन्जीनियरिंग आदि के सभी बड़े - बड़े तथा ऊँचे पद अंग्रेजों के लिए आरक्षित कर दिये गये ।

 अंग्रेजों ने लोक सेवा के लिए इस कार की प्रशासनिक नीति दो कारणों से अपनाई - प्रथम , वे 1857 के बाद भारतीयों पर पूरा विश्वास बिल्कुल नहीं करते थे तथा दूसरा , वे परम्परावादी रंगभेद - भाव की नीति के शिकार बने रहे । भारतवासियों ने जब राष्ट्रीय आन्दोलन के दिनों में बार - बार नागरिक सेवाओं के भारतीयकरण की माँग की तब कहीं जाकर 1918 के बाद उसने इस उचित माग की ओर ध्यान देने का कष्ट किया । लेकिन अंग्रेजों ने भारतीय प्रशासन की वास्तविक सत्ता एवं नियन्त्रण को इभी भी भारतीयों को नहीं दिया । (8)वित्तीय प्रशासन में परिवर्तन - 1857 के विद्रोह के बाद वित्तीय प्रशासन में तीन बड़े परिवर्तन हुए । प्रवम् 1860 में पहली बार आयकर लगाया गया । दसरा इसी वर्ष देश में बजट व्यवस्था को शुरू किया गया । सरकार ने प्रत्येक वर्ष विभिन्न स्रोतों से होने वाली आय एवं व्यय के लिए निर्धारित की जाने वाली राशि का अनुमानित ब्योरा तैयार किया । तीसरा 1880 में केन्द्रीय और प्रान्तीय सरकारों में आयु के वितरण की व्यवस्था को लागू किया ।

अवध का अंग्रेजी साम्राज्य में विलय

मुगल साम्राज्य के भग्नावशेषों पर बंगाल की ही तरह अवध के राज्य का भी उत्कर्ष हुआ । इस राज्य ने भी बंगाल के समान तत्कालीन राजनीति में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई । फलतः इसे भी अंग्रेजों का कोपभाजन बनना पड़ा और अंततः अवध का राज्य भी अंग्रेजी साम्राज्यवाद का शिकार बना । । । अवध के राज्य की स्थापना - अवध के स्वतन्त्र राज्य का संस्थापक सआदत खा नामक एक ईरानी सरदार था ।

 सैय्यद भाइयों के प्रभाव से मुक्ति पाने में सहायता देने के पारितोषिक स्वरूप मुगल सम्राट मुहम्मदशाह ' रंगीला ' ( 1719 - 48 ) ने सआदत खाँ को आगरा का सूबेदार नियुक्त किया । बाद में उसे आगरा से हटाकर अवध का सूबेदार बनाया गया ( 1722 ई ) । सआदत खाँ ने धीरे - धीरे अपनी शक्ति का विस्तार कर एक स्वतन्त्र राज्य की स्थापना कर ली । नवावे सफदरजंग के समय में अवध की शक्ति और प्रतिष्ठा में और अधिक वृद्धि हुई और वह उत्तरी भारत की एक प्रमुख शक्ति के रूप में उभरा ।अवध के विलय के लिए उत्तरदायी परिस्थितियाँ अवध के नवाब और अंग्रेजों में संघर्ष की शुरूआत बक्सर के युद्ध के साथ हुई ।

अत्रे से पराजित होकर मीरकासिम ने अवध के नवाब शुजाउद्दौला के दरबार में शरण ली एवं उससे सहायता की मॉग की । संभवतः , अवध का नवाव भी बंगाल में अंग्रेजों के बढ़ते प्रभुत्व में चिन्तित था । अतः उसने मीरकासिम को सहायता दी , परन्तु बक्सर के युद्ध में मीरकासिम और मुगल सम्राट के साथ ही शुजाउद्दौला की भी पराजय हुई । | लाइव और शुजाउद्दीला - बक्सर के युद्ध के पश्चात् 1765 ई . में लार्ड क्लाइव बंगाल का गवर्नर बनकर दूसरी बार भारत आया ।

 भारत आते ही उसने पराजित शक्तियों पर नियन्त्रण ने के उद्देश्य से उनके साथ अपने सम्बन्ध निश्चित किए । 16 अगस्त , 1765 को नवाब आजादौना के साघ क्लाइव ने इलाहाबाद को सन्धि की । इस सन्धि के द्वारा नवाब ने इलाहाबाद और कारा के जिले कम्पनी को सौंप दिए । युद्ध की क्षतिपूर्ति के लिए उसने 50 लाख रुपए भी दिए । चुनार का क्षेत्र और बिना चुंगी दिए अवध में व्यापार करने का अधिकार भी । कम्पनी को मिला । गाजीपुर और बनारस की जगीर अंग्रेजों के हितेषी बलवंत सिंह को सौंप दी । गई । नवाब ने अपनी रक्षा के लिए कम्पनी की सहायता लेने का आश्वासन भी दिया । इससे अंग्रेजों को अवध पर अपना शिकंजा कसने का सुनहरा मौका प्राप्त हो गया , जिसका लाभ आगे अंग्रेजों ने उठाया ।

 अवध अब अंग्रेजी प्रभाव में आ गया , वह कम्पनी का आश्रित बन गया । वारेन हेस्टिग्स की अवध के प्रति नीति - क्लाइव ने अवध के नवाब से कारा और इलाहाबाद के जिले लेकर मुगल सम्राट को इस उद्देश्य से दिये थे कि वह अंग्रेजों का भित्र रहेगा . परन्तु उसके मराठों के संरक्षण में चले जाने से अवध के साथ नए सिरे से संधि करनी पड़ी वनारर्स की सन्यि 1773 ई ) । हेस्टिस ने 50 लाख रुपए के बदले इन जिलों को पुनः अवध के नवाब को लौटा दिया । उसने नवाब को रूहेलखण्ड पर विजय प्राप्त करने में भी सहायता दी तथा बदले में 40 लाख रुपए प्राप्त किए । इसके अतिरिक्त हेस्टिग्स ने नवाब को बाह्य आक्रमण से सुरक्षा की गारंटी भी दी । परन्तु इसके बदले नवाब को धन देना था । इस सन्धि के द्वारा हेस्टिग्स मराठों के विरुद्ध कम्पनी की सीमा को सुरक्षा करना चाहता था । नवाब शजाउद्दौला की मृत्यु के पश्चात् जनवरी , 1775 में कम्पनी ने नए नवाब आसफउद्दौला के साथ फैजाबाद की संधि की । इस संधि के द्वारा कम्पनी को बनारस एवं गाजीपुर पर अधिकार मिल गया । अवघे को । अंग्रेजी सेना के खर्च के लिए भी पहले से अधिक रकम देनी पड़ी ।

 उसे भूतपूर्व नवाब की विधवा बेगमों को भी राजकोष से बहुत अधिक धन देना पड़ा । इस संधि ने अवध के नवाब की आर्थिक स्थिति अत्यन्त ही दुर्वल कर दी तथा कम्पनी का नवाब पर प्रभाव बढ़ा दिया । अवघ को वेगमा पर होस्टिस का अत्याचार - अनेक युद्धों में संलग्न रहने के कारण कम्पनी को धन की अत्यधिक आवश्यकता थी , इसलिए उसने कुछ अनुचित कार्य किए । मृत नवाब शुजाउद्दौला की बेगम के पास अपार सम्पत्ति थी । इधर आसफउद्दौला पर भी कम्पनी की बहुत अधिक रकम बाकी थी , अतः हेस्टिग्स ने उसे धन देने पर मजबूर किया । नवाब ने हेस्टिग्स की अनुमति माँगी कि वह बेगमों से धन वसूल कर कम्पनी को दे सके । हेस्टिस ने इसकी अनुमति दे दी ; यद्यपि कलकत्ता काँसिल और अंग्रेज रेजीडेंट ने बेगमों से धन लेकर इस बात की ।

गारंटी दी थी कि उनसे और धन की मॉग नहीं की जाएगी । हेस्टिास ने अवध के ब्रिटिश रेजीडेंट मिडलटन को नवाब के इस कार्य में मदद करने का आदेश भी दिया । अंग्रेजी सेना की सहायता से नवाब ने बेगमों से जबर्दस्ती करीब 105 लाख रुपया वसूला और अपना ऋण चुकाया । हेस्टिग्स का यह काम सर्वथा अनुचित था और इसकी तीव्र भत्र्सना की गई । हेस्टिग्स की नीतियों के फलस्वरूप अवध पर कम्पनी का अब सीधा नियन्त्रण कायम हो गया ।अवध के प्रति कॉर्नवालिस की नीति - कॉर्नवालिस के भारत आगमन के समय तक व पर कम्पनी का पूरा नियन्त्रण कायम हो चुका था ।

 लेकिन इसी के साथ अयप की सनिक व्यवस्था भी ढीली पड़ चुकी थी तथा सर्वत्र भ्रष्टाचार का बोलबाला था । अवध की tक स्थिति भी अत्यन्त ही खरेख हो चुकी थी । इसके बावजूद कम्पनी के लिए अवध का सामरिक महत्व बहुत ज्यादा था । अतः कानवालिस ने अहस्तक्षेप की नीति के बावजूद अवध की तरफ अपना ध्यान दिया । उसने नवाव के प्रधानमंत्री हैदरवेग से स्थिति की जानकारी प्राप्त की । तथा उसके अनुरोध पर सेना के खर्च के लिए दी जाने वाली रकम को 74 लाख से घटाकर 5 ) लाख रुपए नियमित रूप से कर अदा करने के आश्वासन पर कर दिया ।

 उसने राज्य के आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं करने का भी आश्वासन दिया , लेकिन इस अनुरोध को स्वीकार नहीं किया कि कानपुर और फतेहगढ़ से अंग्रेजी सेना हटा ली जाए । कॉर्नवालिस के प्रयासों के बावजूद अवध की स्थिति में कोई अन्तर नहीं आया । | सर जॉन शार आर अवध – सर जॉन शोर के समय में अवध और कम्पनी के सम्बन्ध कटुतापूर्ण हो गए , परन्तु नवाब अंग्रेजों की मनमानी को रोकने में सर्वथा असमर्थ रहा । अफगान के सम्भावित आक्रमणों से रक्षा का बहाना कर सर जॉन शोर ने अवध में अंग्रेजी सेना बढ़ाने का । प्रस्ताव रखा तथा इसके लिए साढे पाँच लाख रुपयों की माँग नवाब से की तथा उन्हें वसूलने के लिए स्वयं लखनऊ जा धमका । नवाब आसफउद्दौला को विवश कर उसने रुपए वसूले । इसी बीच 1797 ई . में नवाब की मृत्यु हो गई ।

 उसकी जगह पर वजीरअली नवाब बना । कुछ समय । के बाद यह पता चला कि वह आसफउद्दौला का वास्तविक पुत्र नहीं था । इसलिए , शोर ने उसे गद्दी से हटाकर मृत नवाब के भाई सआदत अली को नवाब बनाया । दोनों के बीच एक संधि हुई , जिसके अनुसार अब कम्पनी को 76 लाख रुपए सालाना कर मिलना तय हुआ । इलाहाबाद का । किला और उसकी मरम्मत का खर्च ( 8 लाख ) मी कम्पनी को मिला । इसके अलावा भी नवाब ने । 22 लाख रुपए कम्पनी को गद्दी प्राप्त करने की खुशी में दिए । नवाब की सेना की संख्या घटा दी गई । नवाब को किसी भी विदेशी शक्ति से बिना कम्पनी की आज्ञा के सम्बन्ध बनाने का अधिकार नहीं रहा । वजीरअली को पेंशन देकर बनारस भेज दिया गया ।

 इस नई संधि से अवध पर कम्पनी का नियन्त्रण ओर अधिक बढ़ गया और उसकी आर्थिक स्थिति दयनीय हो गई । वेलेस्नी और अवध – वेलेस्ली साम्राज्यवादी प्रवृत्ति का ' गवर्नर जनरल था । वह भारत में ब्रिटिश सत्ता का विस्तार तेजी से करना चाहता था । इसके लिए उसने एक अनूठा अस्त्र निकाला । जो इतिहास में सहायक संधि ' के नाम से विख्यात है । अवध की आन्तरिक दुर्बलता का लाभ उठाकर उसने अवघ पर भी सहायक संधि जबर्दस्ती थोप दी । इस समय अफगानों मराठों एवं सिखों के सम्भावित आक्रमण को ध्यान में रखते हुए अवध के साथ सहायक संधि करना अवश्यक हो गया । वेलेस्ली ने नवाब के समक्ष अंग्रेजी सेना में वृद्धि करने का प्रस्ताव रखा , जिसे नवाव ने ठुकरा दिया । दबाव डाले जाने पर पहले नवाव ने गद्दी त्यागने की इच्छा प्रकट की , परन्तु बाद में वेलेस्ली के रुख को देखते हुए बाध्य होकर उसने 10 नवम्बर , 18 / 01 को वेलेस्ली से संधि कर ली ।

 इसके अनुसार रुहेलखंड और दोआब पर कम्पनी का अधिकार हो गया । नवाब में सेना घटाकर कम्पनी की सेना बढ़ा दी गई । नवाब की बाह्य नीति पर कम्पनी का नियन्त्रण रायम हो गया । आन्तरिक प्रशासन में सहायता देने के लिए एक अंग्रेज रेजीडेंट बहाल किया या । वेलेस्ली की नीतियों के परिणामस्वरूप अवध अब पूर्णत : कम्पनी के नियन्त्रण में आ नवाब के राज्य के एक बड़े भू - भाग पर कम्पनी ने अधिकार कर लिया । नवाब की स्थिति । हाय सी हो गई । उसकी सेना विदेश नीति एवं प्रशासन पर कम्पनी का नियन्त्रण हो गया । अवध के प्रति कॉर्नवालिस की नीति - कॉर्नवालिस के भारत आगमन के समय तक व पर कम्पनी का पूरा नियन्त्रण कायम हो चुका था ।

लेकिन इसी के साथ अयप की सनिक व्यवस्था भी ढीली पड़ चुकी थी तथा सर्वत्र भ्रष्टाचार का बोलबाला था । अवध की tक स्थिति भी अत्यन्त ही खरेख हो चुकी थी । इसके बावजूद कम्पनी के लिए अवध का सामरिक महत्व बहुत ज्यादा था । अतः कानवालिस ने अहस्तक्षेप की नीति के बावजूद अवध की तरफ अपना ध्यान दिया । उसने नवाव के प्रधानमंत्री हैदरवेग से स्थिति की जानकारी प्राप्त की । तथा उसके अनुरोध पर सेना के खर्च के लिए दी जाने वाली रकम को 74 लाख से घटाकर 5 ) लाख रुपए नियमित रूप से कर अदा करने के आश्वासन पर कर दिया । उसने राज्य के आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं करने का भी आश्वासन दिया , लेकिन इस अनुरोध को स्वीकार नहीं किया कि कानपुर और फतेहगढ़ से अंग्रेजी सेना हटा ली जाए । कॉर्नवालिस के प्रयासों के बावजूद अवध की स्थिति में कोई अन्तर नहीं आया । |

 सर जॉन शार आर अवध – सर जॉन शोर के समय में अवध और कम्पनी के सम्बन्ध कटुतापूर्ण हो गए , परन्तु नवाब अंग्रेजों की मनमानी को रोकने में सर्वथा असमर्थ रहा । अफगान के सम्भावित आक्रमणों से रक्षा का बहाना कर सर जॉन शोर ने अवध में अंग्रेजी सेना बढ़ाने का । प्रस्ताव रखा तथा इसके लिए साढे पाँच लाख रुपयों की माँग नवाब से की तथा उन्हें वसूलने के लिए स्वयं लखनऊ जा धमका । नवाब आसफउद्दौला को विवश कर उसने रुपए वसूले । इसी बीच 1797 ई . में नवाब की मृत्यु हो गई । उसकी जगह पर वजीरअली नवाब बना । कुछ समय । के बाद यह पता चला कि वह आसफउद्दौला का वास्तविक पुत्र नहीं था । इसलिए , शोर ने उसे गद्दी से हटाकर मृत नवाब के भाई सआदत अली को नवाब बनाया ।

 दोनों के बीच एक संधि हुई , जिसके अनुसार अब कम्पनी को 76 लाख रुपए सालाना कर मिलना तय हुआ । इलाहाबाद का । किला और उसकी मरम्मत का खर्च ( 8 लाख ) मी कम्पनी को मिला । इसके अलावा भी नवाब ने । 22 लाख रुपए कम्पनी को गद्दी प्राप्त करने की खुशी में दिए । नवाब की सेना की संख्या घटा दी गई । नवाब को किसी भी विदेशी शक्ति से बिना कम्पनी की आज्ञा के सम्बन्ध बनाने का अधिकार नहीं रहा । वजीरअली को पेंशन देकर बनारस भेज दिया गया । इस नई संधि से अवध पर कम्पनी का नियन्त्रण ओर अधिक बढ़ गया और उसकी आर्थिक स्थिति दयनीय हो गई ।

 वेलेस्नी और अवध – वेलेस्ली साम्राज्यवादी प्रवृत्ति का ' गवर्नर जनरल था । वह भारत में ब्रिटिश सत्ता का विस्तार तेजी से करना चाहता था । इसके लिए उसने एक अनूठा अस्त्र निकाला । जो इतिहास में सहायक संधि ' के नाम से विख्यात है । अवध की आन्तरिक दुर्बलता का लाभ उठाकर उसने अवघ पर भी सहायक संधि जबर्दस्ती थोप दी । इस समय अफगानों मराठों एवं सिखों के सम्भावित आक्रमण को ध्यान में रखते हुए अवध के साथ सहायक संधि करना अवश्यक हो गया । वेलेस्ली ने नवाब के समक्ष अंग्रेजी सेना में वृद्धि करने का प्रस्ताव रखा , जिसे नवाव ने ठुकरा दिया । दबाव डाले जाने पर पहले नवाव ने गद्दी त्यागने की इच्छा प्रकट की , परन्तु बाद में वेलेस्ली के रुख को देखते हुए बाध्य होकर उसने 10 नवम्बर , 18 / 01 को वेलेस्ली से संधि कर ली ।

 इसके अनुसार रुहेलखंड और दोआब पर कम्पनी का अधिकार हो गया । नवाब में सेना घटाकर कम्पनी की सेना बढ़ा दी गई । नवाब की बाह्य नीति पर कम्पनी का नियन्त्रण रायम हो गया । आन्तरिक प्रशासन में सहायता देने के लिए एक अंग्रेज रेजीडेंट बहाल किया या । वेलेस्ली की नीतियों के परिणामस्वरूप अवध अब पूर्णत : कम्पनी के नियन्त्रण में आ नवाब के राज्य के एक बड़े भू - भाग पर कम्पनी ने अधिकार कर लिया । नवाब की स्थिति । हाय सी हो गई । उसकी सेना विदेश नीति एवं प्रशासन पर कम्पनी का नियन्त्रण हो गया ।नवाब के समक्ष आर्थिक संकट भी उत्पन्न हो गया । यापि , वेलेस्ली का यह कार्य नैतिक दृष्टिकोण से अनुचित पा , तथापि इससे कम्पनी को लाभ हुआ ।

 लॉर्ड हेस्टिस से लॉर्ड हाईज तक अवध शेर कमी का सप्वन्य - लॉर्ड वेलेस्ली के समय तक अवध पर कम्पनी का नियन्त्रण पूरी तरह कायम हो चुका था । अंग्रेजों ने जी भर का नवाब का शोषण किया । ऐसी स्थिति में आर्थिक विपन्नता की स्थिति व्याप्त हो गई । इसके साथ - साथ प्रशासनिक दुर्व्यवस्था भी फैल गई । कम्पनी ने प्रशासनिक सुधार का न तो स्वयं कोई प्रयास किया और ३ , को नवाब को इसका मौका प्रदान किया । उस पर इतना अधिक आर्थिक दबाव डाला गया कि वह कम्पनी को धन जुटाने में ही हमेशा व्यस्त रहा । लॉर्ड हेस्टिग्स ने नेपाल युद्ध का बहाना बनाकर नवाब से बहुत अधिक आशिक सहायता प्राप्त की ( करीब 2 करोड़ रुपए तथा इसके बदले में नवाब को ‘ बादशाह ' को उपाधि धारण करने की आज्ञा प्रदान कर दी ।

 लॉई एमहर्ट ने भी करीब 50 लाख रुपए नवाब से वसूले । विलियम बेटिक अवघ की शोचनीय स्थिति से चिन्तित था । इसलिए 1831 ई . में वह अवध गया और नवाब को प्रशासनिक सुधार करने के लिए कहा । स्थिति में सुधार नहीं होने पर शासन कम्पनी के हाथ में ले लेने की चेतावनी दी गई । इसके बावजूद अवघ की स्थिति में कोई परिवर्तन नहीं आया । 1837 ई . में नवाब नसीरुद्दीन हैदर को मृत्यु के पश्चात् अवध में उत्तराधिकार का प्रश्न उठ खड़ा हुआ । लॉर्ड आंकलेड के प्रयासों के फलस्वरूप मुहम्मद अली नया नवाब बना . जिसने शासन व्यवस्था में सुधार लाने का आश्वासन दिया , परन्तु अवघ को आन्तरिक स्थिति लगातार बिगड़ती ही गई । बाध्य होकर लॉर्ड हार्डिज ने 1847 ई . में पुनः नवाब वाजिद अली शाह को चेतावनी दी कि यटि शीघ्र ही अवघ की स्थिति नहीं सुधरी तो कम्पनी राज्य पर अधिकार कर लेगी ।

इस कार्य को आगे लॉर्ड डलहौजी ने पैरा किया । लॉर्ड डलहौजी और अवध का विलयीकरण - 1848 ई . में लॉर्ड डलहौजी गवर्नर - जनरल बनकर औय उसने ' हड़प की नीति ' का सहारा लेकर अवध को अंग्रेजी राज्य में मिला लिया । इस समय अवध को नवाब वाजिद अली शाह था । डलहौजी ने अवध पर कुशासन और भ्रष्टाचार का आरोप लगाया । उसने 1849 ई . में कर्नल स्लीमेन को अवध के शासन की जांच करने के लिए भेजा । यद्यपि उसने अवध के प्रशासन को भत्र्सना की , तथापि विद्रोह की आशंका से देखते हुए उसने अवध के विलय का विरोध किया । अब डलहौजी ने स्वयं ही अवध का दौरा किया ।

1854 ई . में स्लीमेन की जगह ओट्म को अवध का रेजीडेंट बनाया गया । उसने डलहौजी की इच्छानुसार रिपोर्ट दी । डलहौजी ने संचालकों को अपने पक्ष में मिलाकर नवाब को गद्दी से हटाने का निश्चय कर लिया । ओट्रम एक सेना के साथ लखनऊ पहुंचा । उसने वाजिद अली शाह को एक संधि - पत्र पर हस्ताक्षर करने को कहा , जिसके अनुसार नवाब स्वेच्छा से गद्दी त्याग रहा था । नवाब के इन्कार करने पर अंग्रेजी सेना ने महल में प्रवेश कर नवाब को बंद बना लिया । वाजिद अली शाह को कलकत्ता भेज दिया गया । 13 फरवरी , 1856 को अवध अंग्रेजी राज्य में मिला लिया गया ।

 इस प्रकार , अंतत : अवध भी अंग्रेजी साम्राज्यवाद का शिकार भारतवान् नाम से 1 . रानं कारन । नागपुर , लिया गए । म बन्द साम्रा इलह नदान अद लार बन गया । अवध के विलयीकरण का औचित्य - प्रारम्भ से ही कम्पनी की नीति अवध के प्रति विद्वेषपूर्ण रही । अंग्रेज अवध को सोने की चिड़िया समझते रहे और नवाब पर अनुचित दबाव डालकर अपना उल्लू सीधा करते रहे । डलहौजी की अवध के प्रति नीति भारतीय दृष्टिकोण है । सर्वथा अनुचित थी , क्योंकि अवध के नवाब हमेशा ही कम्पनी के प्रति वफादार रहे थे । नव सदैव ही संधियों का ईमानदारी से पालन किया था । कुशासन भी अंग्रेजों को देन था ।