Saturday, June 29, 2019

1858 से 1892 ईस्वी के मध्य भारतीय प्रशासन में हुए परिवर्तन

1858 से 1892 के मध्य भारतीय प्रशासन में हुए परिवर्तन | 1 . ईस्ट इण्डिया कम्पनी के प्रशासन का अन्त - 1857 की क्रान्ति का एक प्रमुख परिणाम यह निकला कि इंगलैण्ड की संसद ने एक एक्ट , जो प्रधानमन्त्री लार्ड पामर्सटन के काल ३ ॥ फरवरी , 1858 में पहली बार रखा गया था तथा प्रधानमन्त्री डव के काल में 2 अगस्त , 18585 पारित हुआ . द्वारा भारत पर शासन करने का अधिकार ईस्ट इण्डिया कम्पनी से लेकर बिट राजतन्त्र को सौंप दिया । 1858 के ऐक्ट के अनुसार भारत पर महारानी द्वारा , और उसकी से , शासन चलाया जाएगा । इस घोषणा के साथ ही भारतीय प्रशासन की सीधी जिम्मेवारीकर सकता था । जिनमें से कम से कम आधे सदस्य गैर सरकारी होने जरूरी कर दिये गये तरह कछ भारतीयों को ( जो प्रायः ऊंची श्रेणी के होते थे )

 परिषद में शामिल करने की व्यवस्था । गई । लेकिन भारतीयों के परिषद में नामजद किये जाने की केवल मात्र एक कोटी थी — बिटि । शासन के प्रति उनकी निष्ठा । प्राय : वायसराय बड़े - बड़े पनी जमीदारों , साहूकारों एवं व्यापारियों को ही नामजद करता था । चूंकि वे गवर्नर जनरल द्वारा मनोनीत किये जाते थे इसलिए वे उसकी मर्जी के विरुद्ध नहीं जाते थे । इस परिषद को कुछ ब्रिटिश विद्वानों एवं इतिहासकारों ३ इम्पीरियल लेजिस्लेटिव काउंसिल कहा है , जो ठीक प्रतीत नहीं होता क्योंकि गवर्नर जनरल इसके प्रति उत्तरदायी नहीं था । यह केवल परामर्शदात्री समिति मात्र थी ?

 इसे ब्रिटिश सरकार से पूर्व स्वीकृति लिए बिना किसी महत्त्वपूर्ण मामले पर विचार - विमर्श करने अथवा निर्णय लेने का अधिकार नहीं था । भारतीय ब्रिटिश साम्राज्य के बजट अथवा वित्त पर भी इसका कोई नियन्त्रण नहीं था । यह प्रशासन की कार्यवाही पर भी विचार - विमर्श या प्रश्न पूछने का अधिकार नही रखती थी । स्वयं वायसराय को कानून बनाने के अभी भी अधिकार प्राप्त थे । वस्तुतः अनेछ कानूनों के प्रारूप ब्रिटेन से ही तैयार होकर भारत आते थे तथा वायसराय की यह परिषद केवल । औपचारिकता पूरी करने के लिए उसे स्वीकार कर लेती थी । | 3 . शासन नीति पर प्रभाव और महारानी विक्टोरिया की घोषणा – 1857 ई की क्रान्ति । का ब्रिटिश भारत के सरकारी स्वरूप के साथ - साथ शासन नीति पर भी प्रभाव पड़ा ।

 इस दृष्टि से | तत्कालीन साम्राज्ञी विक्टोरिया की घोषणा उल्लेखनीय है । इलाहाबाद में एक बहुत बड़ा शानदार । दरबार हुआ , जिसमें लार्ड कैनिंग ने 1 नवम्बर , 1858 को महारानी की घोषणा को पढ़कर | सुनाया । महारानी ने घोषणा की — “ हम 3 ' पने अधीनस्थ अधिकारियों एवं कर्मचारियों को इस बात की आज्ञा देते हैं कि वे हमारे प्रजाजन के धार्मिक विश्वास अथवा उपासना में हस्तक्षेप करने । से सदैव दूर रहें , या उन्हें हमारा कोप - भान बनना पड़ेगा । हमारी यह तनिक भी अभिलाषा नहीं है कि हम अपने साम्राज्य को बढ़ायें । हर देशी नरेशों के सम्मान और प्रतिष्ठा का उतना ही ध्यान रखेंगे जितना कि अपना । " इस तरह महारानी की इस घोषणा के अनुसार , क्षेत्रों का सीमा विस्तार की नीति का परित्याग कर दिया गया ।

 स्थानीय राजाओं को उनके अधिकार एवं सम्मान के संरक्षण का विश्वास दिलाया गया । सरकार ने देशी राजाओं को नि : सन्तान होने की । स्थिति में दत्तक पुत्र प्रहण करने का अधिकार लौटा दिया । सैद्धान्तिक रूप से कानून की समानता एवं सरकारी नौकरियों में अवसर की समानता का भी आश्वासन दिया गया । अंग्रेजी  ाति के । लोगों की हत्या के दोषियों को छोड़कर शेष सभी को क्षमादान दे दिया गया । भारतीय रियासत को बनाये रखा गया ताकि ब्रिटिश साम्राज्य की रक्षा के लिये उनसे एक सुरक्षात्मक बांध का काम लिया जा सके । इस नीति के प्रभाव के सन्दर्भ में जवाहरलाल नेहरू ने ठीक ही लिखा है , वे लोग जो अपने आपको अवध के नवाब कहलाने में गर्व अनुभव करते थे , वे ही ब्रिटिश साम्राज्य के को अय सम्रा गई ।

 विद्रोह दिया गया । रख दी गई । जाट रेजीमेंट , सेना में राष्ट्र | 5 , ए . में देखा था कि मिलाकर उनसे प्रयास किये त कोई आंच न । ताकि कृट डार मिल सके । उ शासक के हो भलाई इसी में विरोधी अपने कर दिया । व सुविधाओं के निर्बल बनाने कारण 1906 | 6 . प्र | भारत को प्रान तथा अन्य प्रा गया । इन प्रेर था । इन प्रान्त अधिकार और नियुक्त करतं चीफ कमिश्न था । 1833 अधिकारों में स्थापित कर डाला इसलि गया । इस स्तम्भ बन गये । वस्तुतः 1857 के बाद सामन्तवादी और प्रतिक्रियावादी तत्व साम्राज्यवाद के विशेष कृपापात्र बन गये । ब्रिटिश सरकार ने सर्वसाधारण भारतीयों को दिये गये अपने वायद भी पूरे नहीं किये । न तो उसने राजकीय सेवाओं में जाति आर धर्म के आधार पर भद की गलत नीति ही छोड़ी तथा न ही भारतीय उद्योगों की प्रगति तया लोकहितैषी कायो । ही कोई ध्यान दिया ।

 4 , सना का पुनर्गठन सॅनिक द्वारा बड़ी संख्या में विद्रोह कर देने से सर । भारतीय सैनिकों पर विश्वास नहीं रहा । इसलिए इसका पूर्णतया पुनर्गठन । में गवथा कानून बनाने दिया गया किया गया । कर देने से सरकार का या पुनर्गठन किया गया औरइसका गठन विभाजन तथा  प्रतितोलन । नीति पर माराया । दण्या कम्पनी की सेना । ने की व्यवस्था को * * सनी की संज्ञा दे दी गई । ग्रेना में भारतीय सैनिकों का साया कम कर दी । नौटी थी - विटिश गई । विद्रोह तक भारतीय और यूरोपीय सैनिकों का अनुपात नित 31 होता था जो घटकर 1 कर रों एवं व्यापारियों या महत्वपूर्ण निक वेडा होता तो शानियों पर अब पुरोपीय सेना ही इसलिए वे उसको रख दी गई ।

 भारतीय सेना का संगठन जातीय त पूरा रीमेट रायसेना को संगठन जातीय तुपा धार्मिक आधार पर इतिहासकारों ने जाट रेजीमेट , सिक्ख रेजीमेंट , गोरखा रेजीमेंट आ सख रेजीमंट , गोरखा रेजीमेंट आदि के आधार पर किया गया ताकि भारतीय के गवर्नर जनरल सना में राष्ट्र भक्ति एवं राष्ट्रीयता की भावना न पनप सके । ब्रिटिश सरकार से । | 5 फट डाना आर की नीति पर अधिक जोर - अपजी ने 1857 की क्रान्ति । निर्णय लेने का । में देखा था कि भारत के दो प्रमुख सम्पदा कि भारत के दो प्रमख सम्प्रदाय हिन्दुओं एवं मुसलमानों ने परस्पर कन्धे से कथा का कोई नियन्त्रण मलाकर उनके विरुद संघ या था ।

 इसलिए उन्होंने इस क्रान्ति के बाद हर तरह से ऐसे का अधिकार नहीं प्रयास किये ताकि इन दोनों सम्प्रदायों में परस्पर शत्रुता एवं घृणा बढे ताकि अंग्रेजी साम्राज्य पर वस्तुतः अनेक कोई आंच न आ सके । अंग्रेज इतिहासकारों ने भारतीय इतिहास को इस तरह तोड़ - मरोड़ दिया ताकि फूट डालो और शासन करो की नीति ' को सफल बनाने में ज्यादा से ज्यादा उसका सहयोग मह परिषद केवल मिल सके । उन्होंने इतिहास की पुस्तकों में मुसलमानों को हिन्दुओं का उत्पीड़क एवं अत्याचारी शासक के रूप में अभिव्यक्त किया ।

 उन्होंने हिन्दुओं को यह जताने का प्रयास किया कि उनकी 57 की क्रान्ति | इसी में है कि वे अंग्रेजी शासन के समर्थक बने रहें । कुछ समय के बाद उन्होंने मुस्लिम ड़ा । इस दृष्टि से विरोधी अपनी नीति को बदल डाला । उन्होंने हिन्दुओं की बजाय मुसलमानों का पक्ष लेना शुरू इत बड़ा शानदार दिया । उन्होंने मुसलमानों को भड़काया कि वे अपने लिए सरकारी नौकरियों एवं अन्य पणा को पुरविधाओं के संरक्षण की मांग धर्म के आधार पर करें । उन्होंने कालान्तर में राष्ट्रीय आन्दोलन को चारियों को रमन बनाने के लिए साम्प्रदायिक दलों के निर्माण को प्रोत्साहन दिया ।

उन्हीं के प्रोत्साहन के में हस्तक्षेप करने कारण 1906 ई . में मुस्लिम लीग की स्थापना हुई । अभिलाषा नहीं 6 . प्रान्तीय प्रशासन – 1857 के विद्रोह के बाद अंग्रेजों ने प्रशासनिक सुदिधा की दृष्टि से T उतना ही ध्यान । भारत को प्रान्तों में विभाजित किया । उन्हनि दो प्रकार के प्रान्तों का निर्माण किया - प्रेसीडेंसी । क्षेत्रों का सीमा तथा अन्य प्रान्त । प्रेसीडेंसी प्रान्तों में तीन प्रान्त – वगाल , मद्रास और बम्बई को शामिल किया । 5 अधिकार एवं गया । इन प्रेसीडेंसियों का प्रशासन गवर्नर और तीन व्यक्तियों की कार्यकारी परिषद द्वारा होता मलान होने की थी । इन प्रान्तों ( अर्थात् प्रेसीडेंसियों ) की सरकारों को अन्य प्रान्तों की सरकारों की अपेक्षा अधिक नून की समानता अधिकार और शक्तियाँ थीं ।

 गवर्नर और कार्यकारी पार्षदों को इंगलैण्ड की रानी ( अथवा राजा ) अंग्रेजी जाति के युक्त करती थी । अन्य प्रान्तों का प्रशासन लेफ्टिनेंट गवर्नर ( उपराज्यपाल अथवा L . G . ) और रतीय रियासत | फि कमिश्नर ( मुख्य आयुक्त ) करते थे जिनकी नियुक्ति वायसराय अथवा गवर्नर जनरल करता 1833 तक इन प्रान्तीय सरकारों को पर्याप्त स्वायत्तता थी । 1833 के अधिनियम द्वारा उनके क बांध का काम | धिकारों में कटौती कर दी गई और उनके व्यय करने के अधिकार पर सख्त केन्द्रीय नियन्त्रण खा है , " वे लोग टश साम्राज्य के साम्राज्यवाद के ये अपने अन्य पार पर भेदभाव कायों की ओर पित कर दिया गया ।

मगर केन्द्रीकरण की प्रवृत्ति ने प्रशासनिक कुशलता पर बुरा प्रभाव इमलिए 181 के अधिनियम में केन्द्रीयकरण के स्थान पर विकेन्द्रीकरण को अपनाया इस ऐक्ट ने व्यवस्था की कि केन्द्र की तरह ही बम्बई मद्रास और बंगाल जैसे बड़े प्रान्तों यवस्थापिकाओं की स्थापना की जाये । भविष्य में व्यवस्थापिवाएं ही इन प्रान्तों के लिए बनाने लगीं । अन्य प्रान्तों में भी व्यवस्थापिका गठित करने का अधिकार वायसराय को । । शीघ्र ही संयुक्त प्रान्त और पंजाब में भी इसी तरह की व्यवस्थापिकाओं का निर्माण से सरकार का कया गया और । न्न प्रान्तीय व्यवस्थापिकाओं में दो दोष प्रमुख थे ।

 प्रथम , इन व्यवस्थापिकाओं को कार संस्थाओं का दर्जा ही प्राप्त था और वे आधुनिक लोकतान्त्रिक व्यवस्थाओं की(7) लोक सेवाओं में सर्वोच्च स्थान प्राप्ति के अवसरों को न्यूनतम कर दिया गया । इस परीक्षा ( IL . C , S . ) की अधिकतम आयु को 23 वर्ष से घटाकर 1866 में 21 वर्ष तथा 1878 में 19 वर्ष कर दी गई । अगर 23 वर्ष के भारतीय के लिये नागरिक सेवा की प्रतियोगिता में सफल होना कठिन था तो 19 वर्षीय भारतीय के लिए तो यह बिल्कुल असम्भव सा था । इस तरह से सर्वोच्च पदों पर पेजों का एकाधिकार बना रहा । शीघ्र ही पुलिस , लोक निर्माण विभाग , चिकित्सा , वन , सीमा शुल्क विभाग , रेलवे , डाक - तार , इन्जीनियरिंग आदि के सभी बड़े - बड़े तथा ऊँचे पद अंग्रेजों के लिए आरक्षित कर दिये गये ।

 अंग्रेजों ने लोक सेवा के लिए इस कार की प्रशासनिक नीति दो कारणों से अपनाई - प्रथम , वे 1857 के बाद भारतीयों पर पूरा विश्वास बिल्कुल नहीं करते थे तथा दूसरा , वे परम्परावादी रंगभेद - भाव की नीति के शिकार बने रहे । भारतवासियों ने जब राष्ट्रीय आन्दोलन के दिनों में बार - बार नागरिक सेवाओं के भारतीयकरण की माँग की तब कहीं जाकर 1918 के बाद उसने इस उचित माग की ओर ध्यान देने का कष्ट किया । लेकिन अंग्रेजों ने भारतीय प्रशासन की वास्तविक सत्ता एवं नियन्त्रण को इभी भी भारतीयों को नहीं दिया । (8)वित्तीय प्रशासन में परिवर्तन - 1857 के विद्रोह के बाद वित्तीय प्रशासन में तीन बड़े परिवर्तन हुए । प्रवम् 1860 में पहली बार आयकर लगाया गया । दसरा इसी वर्ष देश में बजट व्यवस्था को शुरू किया गया । सरकार ने प्रत्येक वर्ष विभिन्न स्रोतों से होने वाली आय एवं व्यय के लिए निर्धारित की जाने वाली राशि का अनुमानित ब्योरा तैयार किया । तीसरा 1880 में केन्द्रीय और प्रान्तीय सरकारों में आयु के वितरण की व्यवस्था को लागू किया ।

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