Saturday, June 29, 2019

अवध का अंग्रेजी साम्राज्य में विलय

मुगल साम्राज्य के भग्नावशेषों पर बंगाल की ही तरह अवध के राज्य का भी उत्कर्ष हुआ । इस राज्य ने भी बंगाल के समान तत्कालीन राजनीति में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई । फलतः इसे भी अंग्रेजों का कोपभाजन बनना पड़ा और अंततः अवध का राज्य भी अंग्रेजी साम्राज्यवाद का शिकार बना । । । अवध के राज्य की स्थापना - अवध के स्वतन्त्र राज्य का संस्थापक सआदत खा नामक एक ईरानी सरदार था ।

 सैय्यद भाइयों के प्रभाव से मुक्ति पाने में सहायता देने के पारितोषिक स्वरूप मुगल सम्राट मुहम्मदशाह ' रंगीला ' ( 1719 - 48 ) ने सआदत खाँ को आगरा का सूबेदार नियुक्त किया । बाद में उसे आगरा से हटाकर अवध का सूबेदार बनाया गया ( 1722 ई ) । सआदत खाँ ने धीरे - धीरे अपनी शक्ति का विस्तार कर एक स्वतन्त्र राज्य की स्थापना कर ली । नवावे सफदरजंग के समय में अवध की शक्ति और प्रतिष्ठा में और अधिक वृद्धि हुई और वह उत्तरी भारत की एक प्रमुख शक्ति के रूप में उभरा ।अवध के विलय के लिए उत्तरदायी परिस्थितियाँ अवध के नवाब और अंग्रेजों में संघर्ष की शुरूआत बक्सर के युद्ध के साथ हुई ।

अत्रे से पराजित होकर मीरकासिम ने अवध के नवाब शुजाउद्दौला के दरबार में शरण ली एवं उससे सहायता की मॉग की । संभवतः , अवध का नवाव भी बंगाल में अंग्रेजों के बढ़ते प्रभुत्व में चिन्तित था । अतः उसने मीरकासिम को सहायता दी , परन्तु बक्सर के युद्ध में मीरकासिम और मुगल सम्राट के साथ ही शुजाउद्दौला की भी पराजय हुई । | लाइव और शुजाउद्दीला - बक्सर के युद्ध के पश्चात् 1765 ई . में लार्ड क्लाइव बंगाल का गवर्नर बनकर दूसरी बार भारत आया ।

 भारत आते ही उसने पराजित शक्तियों पर नियन्त्रण ने के उद्देश्य से उनके साथ अपने सम्बन्ध निश्चित किए । 16 अगस्त , 1765 को नवाब आजादौना के साघ क्लाइव ने इलाहाबाद को सन्धि की । इस सन्धि के द्वारा नवाब ने इलाहाबाद और कारा के जिले कम्पनी को सौंप दिए । युद्ध की क्षतिपूर्ति के लिए उसने 50 लाख रुपए भी दिए । चुनार का क्षेत्र और बिना चुंगी दिए अवध में व्यापार करने का अधिकार भी । कम्पनी को मिला । गाजीपुर और बनारस की जगीर अंग्रेजों के हितेषी बलवंत सिंह को सौंप दी । गई । नवाब ने अपनी रक्षा के लिए कम्पनी की सहायता लेने का आश्वासन भी दिया । इससे अंग्रेजों को अवध पर अपना शिकंजा कसने का सुनहरा मौका प्राप्त हो गया , जिसका लाभ आगे अंग्रेजों ने उठाया ।

 अवध अब अंग्रेजी प्रभाव में आ गया , वह कम्पनी का आश्रित बन गया । वारेन हेस्टिग्स की अवध के प्रति नीति - क्लाइव ने अवध के नवाब से कारा और इलाहाबाद के जिले लेकर मुगल सम्राट को इस उद्देश्य से दिये थे कि वह अंग्रेजों का भित्र रहेगा . परन्तु उसके मराठों के संरक्षण में चले जाने से अवध के साथ नए सिरे से संधि करनी पड़ी वनारर्स की सन्यि 1773 ई ) । हेस्टिस ने 50 लाख रुपए के बदले इन जिलों को पुनः अवध के नवाब को लौटा दिया । उसने नवाब को रूहेलखण्ड पर विजय प्राप्त करने में भी सहायता दी तथा बदले में 40 लाख रुपए प्राप्त किए । इसके अतिरिक्त हेस्टिग्स ने नवाब को बाह्य आक्रमण से सुरक्षा की गारंटी भी दी । परन्तु इसके बदले नवाब को धन देना था । इस सन्धि के द्वारा हेस्टिग्स मराठों के विरुद्ध कम्पनी की सीमा को सुरक्षा करना चाहता था । नवाब शजाउद्दौला की मृत्यु के पश्चात् जनवरी , 1775 में कम्पनी ने नए नवाब आसफउद्दौला के साथ फैजाबाद की संधि की । इस संधि के द्वारा कम्पनी को बनारस एवं गाजीपुर पर अधिकार मिल गया । अवघे को । अंग्रेजी सेना के खर्च के लिए भी पहले से अधिक रकम देनी पड़ी ।

 उसे भूतपूर्व नवाब की विधवा बेगमों को भी राजकोष से बहुत अधिक धन देना पड़ा । इस संधि ने अवध के नवाब की आर्थिक स्थिति अत्यन्त ही दुर्वल कर दी तथा कम्पनी का नवाब पर प्रभाव बढ़ा दिया । अवघ को वेगमा पर होस्टिस का अत्याचार - अनेक युद्धों में संलग्न रहने के कारण कम्पनी को धन की अत्यधिक आवश्यकता थी , इसलिए उसने कुछ अनुचित कार्य किए । मृत नवाब शुजाउद्दौला की बेगम के पास अपार सम्पत्ति थी । इधर आसफउद्दौला पर भी कम्पनी की बहुत अधिक रकम बाकी थी , अतः हेस्टिग्स ने उसे धन देने पर मजबूर किया । नवाब ने हेस्टिग्स की अनुमति माँगी कि वह बेगमों से धन वसूल कर कम्पनी को दे सके । हेस्टिस ने इसकी अनुमति दे दी ; यद्यपि कलकत्ता काँसिल और अंग्रेज रेजीडेंट ने बेगमों से धन लेकर इस बात की ।

गारंटी दी थी कि उनसे और धन की मॉग नहीं की जाएगी । हेस्टिास ने अवध के ब्रिटिश रेजीडेंट मिडलटन को नवाब के इस कार्य में मदद करने का आदेश भी दिया । अंग्रेजी सेना की सहायता से नवाब ने बेगमों से जबर्दस्ती करीब 105 लाख रुपया वसूला और अपना ऋण चुकाया । हेस्टिग्स का यह काम सर्वथा अनुचित था और इसकी तीव्र भत्र्सना की गई । हेस्टिग्स की नीतियों के फलस्वरूप अवध पर कम्पनी का अब सीधा नियन्त्रण कायम हो गया ।अवध के प्रति कॉर्नवालिस की नीति - कॉर्नवालिस के भारत आगमन के समय तक व पर कम्पनी का पूरा नियन्त्रण कायम हो चुका था ।

 लेकिन इसी के साथ अयप की सनिक व्यवस्था भी ढीली पड़ चुकी थी तथा सर्वत्र भ्रष्टाचार का बोलबाला था । अवध की tक स्थिति भी अत्यन्त ही खरेख हो चुकी थी । इसके बावजूद कम्पनी के लिए अवध का सामरिक महत्व बहुत ज्यादा था । अतः कानवालिस ने अहस्तक्षेप की नीति के बावजूद अवध की तरफ अपना ध्यान दिया । उसने नवाव के प्रधानमंत्री हैदरवेग से स्थिति की जानकारी प्राप्त की । तथा उसके अनुरोध पर सेना के खर्च के लिए दी जाने वाली रकम को 74 लाख से घटाकर 5 ) लाख रुपए नियमित रूप से कर अदा करने के आश्वासन पर कर दिया ।

 उसने राज्य के आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं करने का भी आश्वासन दिया , लेकिन इस अनुरोध को स्वीकार नहीं किया कि कानपुर और फतेहगढ़ से अंग्रेजी सेना हटा ली जाए । कॉर्नवालिस के प्रयासों के बावजूद अवध की स्थिति में कोई अन्तर नहीं आया । | सर जॉन शार आर अवध – सर जॉन शोर के समय में अवध और कम्पनी के सम्बन्ध कटुतापूर्ण हो गए , परन्तु नवाब अंग्रेजों की मनमानी को रोकने में सर्वथा असमर्थ रहा । अफगान के सम्भावित आक्रमणों से रक्षा का बहाना कर सर जॉन शोर ने अवध में अंग्रेजी सेना बढ़ाने का । प्रस्ताव रखा तथा इसके लिए साढे पाँच लाख रुपयों की माँग नवाब से की तथा उन्हें वसूलने के लिए स्वयं लखनऊ जा धमका । नवाब आसफउद्दौला को विवश कर उसने रुपए वसूले । इसी बीच 1797 ई . में नवाब की मृत्यु हो गई ।

 उसकी जगह पर वजीरअली नवाब बना । कुछ समय । के बाद यह पता चला कि वह आसफउद्दौला का वास्तविक पुत्र नहीं था । इसलिए , शोर ने उसे गद्दी से हटाकर मृत नवाब के भाई सआदत अली को नवाब बनाया । दोनों के बीच एक संधि हुई , जिसके अनुसार अब कम्पनी को 76 लाख रुपए सालाना कर मिलना तय हुआ । इलाहाबाद का । किला और उसकी मरम्मत का खर्च ( 8 लाख ) मी कम्पनी को मिला । इसके अलावा भी नवाब ने । 22 लाख रुपए कम्पनी को गद्दी प्राप्त करने की खुशी में दिए । नवाब की सेना की संख्या घटा दी गई । नवाब को किसी भी विदेशी शक्ति से बिना कम्पनी की आज्ञा के सम्बन्ध बनाने का अधिकार नहीं रहा । वजीरअली को पेंशन देकर बनारस भेज दिया गया ।

 इस नई संधि से अवध पर कम्पनी का नियन्त्रण ओर अधिक बढ़ गया और उसकी आर्थिक स्थिति दयनीय हो गई । वेलेस्नी और अवध – वेलेस्ली साम्राज्यवादी प्रवृत्ति का ' गवर्नर जनरल था । वह भारत में ब्रिटिश सत्ता का विस्तार तेजी से करना चाहता था । इसके लिए उसने एक अनूठा अस्त्र निकाला । जो इतिहास में सहायक संधि ' के नाम से विख्यात है । अवध की आन्तरिक दुर्बलता का लाभ उठाकर उसने अवघ पर भी सहायक संधि जबर्दस्ती थोप दी । इस समय अफगानों मराठों एवं सिखों के सम्भावित आक्रमण को ध्यान में रखते हुए अवध के साथ सहायक संधि करना अवश्यक हो गया । वेलेस्ली ने नवाब के समक्ष अंग्रेजी सेना में वृद्धि करने का प्रस्ताव रखा , जिसे नवाव ने ठुकरा दिया । दबाव डाले जाने पर पहले नवाव ने गद्दी त्यागने की इच्छा प्रकट की , परन्तु बाद में वेलेस्ली के रुख को देखते हुए बाध्य होकर उसने 10 नवम्बर , 18 / 01 को वेलेस्ली से संधि कर ली ।

 इसके अनुसार रुहेलखंड और दोआब पर कम्पनी का अधिकार हो गया । नवाब में सेना घटाकर कम्पनी की सेना बढ़ा दी गई । नवाब की बाह्य नीति पर कम्पनी का नियन्त्रण रायम हो गया । आन्तरिक प्रशासन में सहायता देने के लिए एक अंग्रेज रेजीडेंट बहाल किया या । वेलेस्ली की नीतियों के परिणामस्वरूप अवध अब पूर्णत : कम्पनी के नियन्त्रण में आ नवाब के राज्य के एक बड़े भू - भाग पर कम्पनी ने अधिकार कर लिया । नवाब की स्थिति । हाय सी हो गई । उसकी सेना विदेश नीति एवं प्रशासन पर कम्पनी का नियन्त्रण हो गया । अवध के प्रति कॉर्नवालिस की नीति - कॉर्नवालिस के भारत आगमन के समय तक व पर कम्पनी का पूरा नियन्त्रण कायम हो चुका था ।

लेकिन इसी के साथ अयप की सनिक व्यवस्था भी ढीली पड़ चुकी थी तथा सर्वत्र भ्रष्टाचार का बोलबाला था । अवध की tक स्थिति भी अत्यन्त ही खरेख हो चुकी थी । इसके बावजूद कम्पनी के लिए अवध का सामरिक महत्व बहुत ज्यादा था । अतः कानवालिस ने अहस्तक्षेप की नीति के बावजूद अवध की तरफ अपना ध्यान दिया । उसने नवाव के प्रधानमंत्री हैदरवेग से स्थिति की जानकारी प्राप्त की । तथा उसके अनुरोध पर सेना के खर्च के लिए दी जाने वाली रकम को 74 लाख से घटाकर 5 ) लाख रुपए नियमित रूप से कर अदा करने के आश्वासन पर कर दिया । उसने राज्य के आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं करने का भी आश्वासन दिया , लेकिन इस अनुरोध को स्वीकार नहीं किया कि कानपुर और फतेहगढ़ से अंग्रेजी सेना हटा ली जाए । कॉर्नवालिस के प्रयासों के बावजूद अवध की स्थिति में कोई अन्तर नहीं आया । |

 सर जॉन शार आर अवध – सर जॉन शोर के समय में अवध और कम्पनी के सम्बन्ध कटुतापूर्ण हो गए , परन्तु नवाब अंग्रेजों की मनमानी को रोकने में सर्वथा असमर्थ रहा । अफगान के सम्भावित आक्रमणों से रक्षा का बहाना कर सर जॉन शोर ने अवध में अंग्रेजी सेना बढ़ाने का । प्रस्ताव रखा तथा इसके लिए साढे पाँच लाख रुपयों की माँग नवाब से की तथा उन्हें वसूलने के लिए स्वयं लखनऊ जा धमका । नवाब आसफउद्दौला को विवश कर उसने रुपए वसूले । इसी बीच 1797 ई . में नवाब की मृत्यु हो गई । उसकी जगह पर वजीरअली नवाब बना । कुछ समय । के बाद यह पता चला कि वह आसफउद्दौला का वास्तविक पुत्र नहीं था । इसलिए , शोर ने उसे गद्दी से हटाकर मृत नवाब के भाई सआदत अली को नवाब बनाया ।

 दोनों के बीच एक संधि हुई , जिसके अनुसार अब कम्पनी को 76 लाख रुपए सालाना कर मिलना तय हुआ । इलाहाबाद का । किला और उसकी मरम्मत का खर्च ( 8 लाख ) मी कम्पनी को मिला । इसके अलावा भी नवाब ने । 22 लाख रुपए कम्पनी को गद्दी प्राप्त करने की खुशी में दिए । नवाब की सेना की संख्या घटा दी गई । नवाब को किसी भी विदेशी शक्ति से बिना कम्पनी की आज्ञा के सम्बन्ध बनाने का अधिकार नहीं रहा । वजीरअली को पेंशन देकर बनारस भेज दिया गया । इस नई संधि से अवध पर कम्पनी का नियन्त्रण ओर अधिक बढ़ गया और उसकी आर्थिक स्थिति दयनीय हो गई ।

 वेलेस्नी और अवध – वेलेस्ली साम्राज्यवादी प्रवृत्ति का ' गवर्नर जनरल था । वह भारत में ब्रिटिश सत्ता का विस्तार तेजी से करना चाहता था । इसके लिए उसने एक अनूठा अस्त्र निकाला । जो इतिहास में सहायक संधि ' के नाम से विख्यात है । अवध की आन्तरिक दुर्बलता का लाभ उठाकर उसने अवघ पर भी सहायक संधि जबर्दस्ती थोप दी । इस समय अफगानों मराठों एवं सिखों के सम्भावित आक्रमण को ध्यान में रखते हुए अवध के साथ सहायक संधि करना अवश्यक हो गया । वेलेस्ली ने नवाब के समक्ष अंग्रेजी सेना में वृद्धि करने का प्रस्ताव रखा , जिसे नवाव ने ठुकरा दिया । दबाव डाले जाने पर पहले नवाव ने गद्दी त्यागने की इच्छा प्रकट की , परन्तु बाद में वेलेस्ली के रुख को देखते हुए बाध्य होकर उसने 10 नवम्बर , 18 / 01 को वेलेस्ली से संधि कर ली ।

 इसके अनुसार रुहेलखंड और दोआब पर कम्पनी का अधिकार हो गया । नवाब में सेना घटाकर कम्पनी की सेना बढ़ा दी गई । नवाब की बाह्य नीति पर कम्पनी का नियन्त्रण रायम हो गया । आन्तरिक प्रशासन में सहायता देने के लिए एक अंग्रेज रेजीडेंट बहाल किया या । वेलेस्ली की नीतियों के परिणामस्वरूप अवध अब पूर्णत : कम्पनी के नियन्त्रण में आ नवाब के राज्य के एक बड़े भू - भाग पर कम्पनी ने अधिकार कर लिया । नवाब की स्थिति । हाय सी हो गई । उसकी सेना विदेश नीति एवं प्रशासन पर कम्पनी का नियन्त्रण हो गया ।नवाब के समक्ष आर्थिक संकट भी उत्पन्न हो गया । यापि , वेलेस्ली का यह कार्य नैतिक दृष्टिकोण से अनुचित पा , तथापि इससे कम्पनी को लाभ हुआ ।

 लॉर्ड हेस्टिस से लॉर्ड हाईज तक अवध शेर कमी का सप्वन्य - लॉर्ड वेलेस्ली के समय तक अवध पर कम्पनी का नियन्त्रण पूरी तरह कायम हो चुका था । अंग्रेजों ने जी भर का नवाब का शोषण किया । ऐसी स्थिति में आर्थिक विपन्नता की स्थिति व्याप्त हो गई । इसके साथ - साथ प्रशासनिक दुर्व्यवस्था भी फैल गई । कम्पनी ने प्रशासनिक सुधार का न तो स्वयं कोई प्रयास किया और ३ , को नवाब को इसका मौका प्रदान किया । उस पर इतना अधिक आर्थिक दबाव डाला गया कि वह कम्पनी को धन जुटाने में ही हमेशा व्यस्त रहा । लॉर्ड हेस्टिग्स ने नेपाल युद्ध का बहाना बनाकर नवाब से बहुत अधिक आशिक सहायता प्राप्त की ( करीब 2 करोड़ रुपए तथा इसके बदले में नवाब को ‘ बादशाह ' को उपाधि धारण करने की आज्ञा प्रदान कर दी ।

 लॉई एमहर्ट ने भी करीब 50 लाख रुपए नवाब से वसूले । विलियम बेटिक अवघ की शोचनीय स्थिति से चिन्तित था । इसलिए 1831 ई . में वह अवध गया और नवाब को प्रशासनिक सुधार करने के लिए कहा । स्थिति में सुधार नहीं होने पर शासन कम्पनी के हाथ में ले लेने की चेतावनी दी गई । इसके बावजूद अवघ की स्थिति में कोई परिवर्तन नहीं आया । 1837 ई . में नवाब नसीरुद्दीन हैदर को मृत्यु के पश्चात् अवध में उत्तराधिकार का प्रश्न उठ खड़ा हुआ । लॉर्ड आंकलेड के प्रयासों के फलस्वरूप मुहम्मद अली नया नवाब बना . जिसने शासन व्यवस्था में सुधार लाने का आश्वासन दिया , परन्तु अवघ को आन्तरिक स्थिति लगातार बिगड़ती ही गई । बाध्य होकर लॉर्ड हार्डिज ने 1847 ई . में पुनः नवाब वाजिद अली शाह को चेतावनी दी कि यटि शीघ्र ही अवघ की स्थिति नहीं सुधरी तो कम्पनी राज्य पर अधिकार कर लेगी ।

इस कार्य को आगे लॉर्ड डलहौजी ने पैरा किया । लॉर्ड डलहौजी और अवध का विलयीकरण - 1848 ई . में लॉर्ड डलहौजी गवर्नर - जनरल बनकर औय उसने ' हड़प की नीति ' का सहारा लेकर अवध को अंग्रेजी राज्य में मिला लिया । इस समय अवध को नवाब वाजिद अली शाह था । डलहौजी ने अवध पर कुशासन और भ्रष्टाचार का आरोप लगाया । उसने 1849 ई . में कर्नल स्लीमेन को अवध के शासन की जांच करने के लिए भेजा । यद्यपि उसने अवध के प्रशासन को भत्र्सना की , तथापि विद्रोह की आशंका से देखते हुए उसने अवध के विलय का विरोध किया । अब डलहौजी ने स्वयं ही अवध का दौरा किया ।

1854 ई . में स्लीमेन की जगह ओट्म को अवध का रेजीडेंट बनाया गया । उसने डलहौजी की इच्छानुसार रिपोर्ट दी । डलहौजी ने संचालकों को अपने पक्ष में मिलाकर नवाब को गद्दी से हटाने का निश्चय कर लिया । ओट्रम एक सेना के साथ लखनऊ पहुंचा । उसने वाजिद अली शाह को एक संधि - पत्र पर हस्ताक्षर करने को कहा , जिसके अनुसार नवाब स्वेच्छा से गद्दी त्याग रहा था । नवाब के इन्कार करने पर अंग्रेजी सेना ने महल में प्रवेश कर नवाब को बंद बना लिया । वाजिद अली शाह को कलकत्ता भेज दिया गया । 13 फरवरी , 1856 को अवध अंग्रेजी राज्य में मिला लिया गया ।

 इस प्रकार , अंतत : अवध भी अंग्रेजी साम्राज्यवाद का शिकार भारतवान् नाम से 1 . रानं कारन । नागपुर , लिया गए । म बन्द साम्रा इलह नदान अद लार बन गया । अवध के विलयीकरण का औचित्य - प्रारम्भ से ही कम्पनी की नीति अवध के प्रति विद्वेषपूर्ण रही । अंग्रेज अवध को सोने की चिड़िया समझते रहे और नवाब पर अनुचित दबाव डालकर अपना उल्लू सीधा करते रहे । डलहौजी की अवध के प्रति नीति भारतीय दृष्टिकोण है । सर्वथा अनुचित थी , क्योंकि अवध के नवाब हमेशा ही कम्पनी के प्रति वफादार रहे थे । नव सदैव ही संधियों का ईमानदारी से पालन किया था । कुशासन भी अंग्रेजों को देन था ।

0 Comments:

Post a Comment

Subscribe to Post Comments [Atom]

<< Home