ब्रिटिश शासन का प्रभाव
भारत का आर्थिक शोषण - अंग्रेजों के आगमन से पूर्व भारत की आर्थिक स्थिति । काफी अच्छी थी तथा भारत एक समृद्ध और धन - सम्पन्न राष्ट्र था । प्रो . रमेशचन्द्र दत्त का कथन है । कि " अमेजों ने भारतीय अर्थव्यवस्था का जिस प्रकार निर्दयतापूर्ण शोषण किया तथा देश को निर्धनता के गर्त में ढकेला , उसका उदाहरण अन्यत्र मिलना कठिन है । " ( 1 ) कृषि की उपेक्षा - यद्यपि भारत एक कृषिप्रधान देश है , परन्तु ब्रिटिश सरकार द्वारा भारतीय कृषि की घोर उपेक्षा की गई । ब्रिटिश शासकों ने सिंचाई पर विशेष ध्यान नहीं दिया । यद्यपि अंग्रेजी कम्पनी ने पंजाब में अपर गंगा नहर , दोआब नहर आदि का निर्माण करवाया , परन्तु नहरें भारतीय कृषि की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये अपर्याप्त थीं ।
1918 - 21 के बीच खेती । की भूमि के केवल 11 प्रतिशत भूमि में सरकारी सिंचाई के प्रबन्ध उपलब्ध थे । किसानों पर भारी । कर लगा हुआ था तथा कम्पनी के कर्मचारी बड़ी निर्दयतापूर्वक लगान वसूल करते थे । ( 2 ) लगान में वृद्धि - किसानों को अपनी भूमि के लिए सरकार को लगान देना पड़ता था । अंग्रेजी कम्पनी की राजस्व नीति बड़ी कठोर थी । कम्पनी का उद्देश्य किसानों से आधिकाधिक लगान वसूल करना था । जहां अंग्रेजी कम्पनी द्वारा बंगाल में 1765 - 666 ई . में लगान की राशि 14 . 17 , 000 पौंड थी वही राशि 1771 - 72 में बढ़कर 23 , 41 , 000 पौंड हो गई । अंग्रेजों की भू - राजस्व प्रणालियों ने भी भारतीय कृषि की उन्नति में बाधा डाली । स्थानीय बन्दोबस्त के कारण किसानों को अपार कष्ट उठाने पड़े ।
रैयतबारी इलाकों में सरकार निष्ठुरतापूर्वक लगान वसूल करती थी । मद्रास तथा बम्बई में जहां महलवारी व्यवस्था लागू थी । लगान की मांग इतनी अधिक थी कि उसमें भूमि की पूरी अतिरिक्त उपज समा जाती थी । इस प्रकार लगान की कठोरता ने किसानों को बर्बाद कर दिया और खेती की दशा शोचनीय होती गई । ( 3 ) किसानों की दुर्दशा - ब्रिटिश सरकार की आर्थिक नीतियों के कारण किसानों की दशा बहुत शोचनीय थी । उन्हें अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये तथा लगान चुकाने के लिये साहूकारों से कर्जा लेना पड़ता था । यूरोपीय प्लान्टर्स भी किसानों का शोषण करते थे औरउन पर भारी अत्याचार करते थे ।
इससे भी किसानों की स्थिति दयनीय हो गई थी । 10वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में भी भारत के विभिन्न भागों में 24 बार अकाल पड़ा और लगभग 2 करोड़ 85 लाख व्यक्ति मौत का शिकार बन गये । | ( 4 ) खाद्यान्नों का अभाव - आबादी में वृद्धि के अनुसार अनुपात से खेती का कुल त्रिफल बढ़ा नहीं था और लोग अनाज की जगह नकद फसलें उगाते थे । अतः इन कारणों से देश में खाद्यान्नों का अभाव हो गया । इसके बावजूद विटिश सरकार रुई , चाय , तिलहन , अनाज आदि का निर्यात करती थी । इससे भी भारतीय किसानों को अपार कष्टों का सामना करना पड़ा । |
( 5 ) कुटीर उद्योगों का विनाश - ब्रिटिश सरकार की दोपपूर्ण औद्योगिक एवं व्यापारिक नीति के कारण भारतीय कुटीर उद्योगों का ह्रास हुआ । ब्रिटिश सरकार ने स्वतन्त्र व्यापार की नीति का अनुसरण करते हुये इंग्लैंड में मशीनों से निर्मित सामान को भारत की मण्डियों में भेजकर भारी मुनाफा कमाना शुरु कर दिया । इसके अतिरिक्त भारतीय कारीगरों से बहुत कम मूल्यों पर माल खरीद कर अंग्रेजी कम्पनी विदेशों में ऊंचे मूल्यों पर बेचकर भारी लाभ कमाती थी । भारतीय वस्त्र - व्यवसाय का चौपट करने के लिये इंग्लैंड में भारतीय वस्त्रों के आयात पर प्रतिबन्ध व भारी आयात कर लगाया गया । भारत में इंग्लैंड में बने माल के आयात को प्रोत्साहन दिया गया । | ( 6 ) वस्त्र उद्योग का पतन - ब्रिटिश शासन की स्थापना के पूर्व भारत का वस्त्र उद्योग सबसे बड़ा उद्योग था । परन्तु अंग्रेजों ने अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए वस्त्र उद्योग को चौपट करना शुरु कर दिया ।
बुनकरों को अंग्रेजी कम्पनी की पटरियों में काम करने के लिये बाध्य किया जाता था , उनका माल कम कीमत पर खरीदा जाता था तथा उन्हें अमानुषिक यातनायें दी जाती थीं । बुनकर को अपनी मेहनत के बदले में बहुत थोड़ी राशि मिलती थी । । अंग्रेजों की आर्थिक नीति के कारण भारतीय उद्योग - धन्धे चौपट हो गये और देश में । बेकारी तथा निर्धनता बढ़ती गई । ब्रिटिश सरकार ने भारत को इंग्लैण्ड के लिये कच्चे माल की खरीद तथा तैयार माल की मण्डी बना रखा था । अंग्रेजों की दोषपूर्ण औद्योगिक एवं व्यापारिक नीति के कारण 1757 से 1829 तक के 75 वर्षों से कम की अवधि में भारत एक औद्योगिक देश की स्थिति से कच्चे माल की पूर्ति करने वाले देश की स्थिति में आ गया ।
( 7 ) भारत के धन का निष्कासन - भारत के प्रसिद्ध राष्ट्रवादी नेता दादाभाई नौरोजी ने अपने विद्वत्तापूर्ण लेख में यह सिद्ध किया है कि ब्रिटिश सरकार की आर्थिक नीति का मुख्य उद्देश्य भारत के धन का निष्कासन करना था । ब्रिटिश सरकार ने सुनियोजित तरीके से भारत का अतुल धन इंग्लैण्ड पहुंचाया और भारत को निर्धनता के गर्त में डाल दिया । इतिहासकारों के अनुसार 1757 से 1857 की अवधि में लगभग 15 करोड़ पौंड के मूल्य के साधनों का निष्कासन किया गया । प्रो . वकील के अनुसार 1834 से 1839 तक की अवधि में 105 करोड़ पौंड मूल्य का निष्कासन किया गया ।
इस प्रकार 1757 से 1939 तक सरकारी खाते के अन्तर्गत 120 करोड़ पीड मूल्य का धन था । यदि इसमें गैर - सरकारी भुगतानों को जोड़ दिया जाये तो सन् 1757 से 1939 की अवधि में कुल 600 करोड़ पौंड का धन ब्रिटेन को निष्कासित किया गया । यह धन निष्कासन अनेक रूपों में होता था । जैसे अंग्रेज अधिकारियों द्वारा समस्त बचतों को इंग्लैंड नी , भारत सरकार तथा अंग्रेज अधिकारियों द्वारा इंग्लैंड में बनी वस्तुओं को खरीदना , भारत में तथा सार्वजनिक कार्यों के लिये ऋण पर ब्याज तथा मूलधन चुकाना आदि । इसके त ब्रिटिश शासन का सारा खर्च भारत को ही उठाना पड़ता था ।धन - निकासन की प्रणाली के कारण भारतीय कृषि , उद्योग और व्यापार चौपट हो गये । किसानों और मजदूरों की दशा सर्वाधिक शोचनीय हो गई ।
धन , खाद्यान्न कच्चे माल आदि के निष्कासन के कारण पैदावार कम हो गई । जनता की आय पर हानिप्रद प्रभाव पड़ा और देश के गरीबी , बेकारी तथा भुखमरी बढ़ी गई । | निष्कर्ष - ब्रिटिश शासन के 150 वर्षों के शासनकाल के परिणामस्वरूप भारत की कवि उद्योग , वाणिज्य व्यापार आदि सभी को प्रबल आघात पहुंचा । अंग्रेजों की स्वार्थपूर्ण आर्थिक नीति के कारण देश की अर्थव्यवस्था बिगड़ती चली गई । गरीबी , भुखमरी तथा बेरोजगारी बढती । गयी । अंग्रेज भारत को एक निर्धन देश छोड़ गये जिसमें प्रति व्यक्ति आय बहुत कम थी । | डॉ . आर . सी . दत्त का कथन है कि , " अंग्रेजों की नीति के कारण लाखों भारतीय बेकार ने गए और सारा देश एक महान आर्थिक प्रलय में डूब गया । वास्तव में भारत की आर्थिक दुरावस्था अंग्रेजी शासन का अत्यन्त दुःखदायी परिणाम है ।
भारतीय धन का निष्कासन - धन निष्कासन से तात्पर्य उस धन से है , जो भारत से इंग्लैंड भेजा जाता था किन्तु उसके बदले में कुछ भी प्राप्त नहीं होता था । देश से दो प्रकार का धन बाहर जाता था - मुद्रा के रूप में या पदार्थों के रूप में । यह धन - निष्कासन धातु मुद्रा के रूप में कम और वस्तुओं के निर्यात व्यापार के रूप में अधिक होता था । प्रो . नाथूरामका का कथन है - " इसमें ब्रिटेन को किये जाने वाले वे विभिन्न भुगतान शामिल थे जिनके बदले में भी भारतीयों को कोई प्रतिफल नहीं मिलता था ।
ये भुगतान देश की बचत के प्रतीक थे जिनसे ब्रिटेन में विकास की गति को तेज करने में सहायता मिली । यदि यही बचत भारत में विनियोजित होती तो देश का आर्थिक विकास हो सकता था । ” | धन - निष्कासन के साधन ( 1 ) अंग्रेजी कम्पनी द्वारा व्यापार – भारत का धन इंग्लैंड ले जाने के लिये अंग्रेजी कम्पनी ने भरसक प्रयास किये । व्यापार इस प्रकार से किया जाता था कि कच्चा माल खरीदने के लिए पूंजी राजस्व की बचत में से ली जाती थी । मुनाफा कम्पनी के साझेदारों को उनके लाभांश के रूप में दिया जाता था । 1873 तक ( 6 . 3 लाख पड़ ब्रिटिश अधिकारियों को भुगतान किया गया ।
| ( 2 ) होम चार्जेज - होम चार्जेज में रेलों में लगी पूंजी का ब्याज , अन्य ऋणों पर व्याज , सुरक्षा सेवाओं पर ध्यय , इंग्लैंड में भारत - सचिव के कार्यालय का प्रशासनिक व्यय , अंग्रेज । अधिकारियों की पेन्शनें एवं भत्ते की राशि एवं भारत में विभिन्न विभागों के लिये किया गया । व्यय सम्मिलित था । भारत पर सैनिक व्यय का भार भी बहुत अधिक था । इस प्रकार वार शासन का सारा खर्च भारत को ही उठाना पड़ता था । विटिश सरकार अपनी विस्तारवादान की पूर्ति के लिए चीन , फारस , वर्मा , अफगानिस्तान आदि में अपने प्रभाव को बनाये रखने के बहुत बड़ी सेना रखती थी जिसका सारा खर्चा भारतीय जनता को करों के रूप में देना पड़ता इस प्रकार इंग्लैंड में खुलने वाले पागलखाने का व्यय , चीन और फारस में दूतावास की E F EA | | " " " का व्यय आदि भी भारतीयों को ही वहन करना पड़ता था ।
भारत पर यह भार निरन्तर गया । जहां 1851 में होम चार्जेज की राशि 25 लाख पौंड थी . वह 1933 - 34 में 275 हो गई थी । ( 3 ) सार्वजनिक ऋण - भारत में होने वाले युद्धों तथा विटिश प्रशासन से व्यय होते थे , उन्हें भारतीय ऋण की संज्ञा दी जाती थी । 1792 में इस प्रकार ऋण 70 लाख पड़ था , जो 1829 में 300 लाख पौंड हो गया था । 1858 मे अंग्रेजी कंपनी का 7करोड़ पौंड का समस्त ऋण भारत सरकार पर डाल दिया गया । 1900 में यह राशि 224 करोड़ पौंड हो गई थी । ( 4 ) रेल - निर्माण - भारत में लें बनाने के लिये अंग्रेज पंजीपतियों को अत्यधिक लाभ । पर ठेके दिये गए । उन्हें पूजी - विनियोग पर प्रारम्भ में 5 प्रतिशत का गारन्टीड व्याज तथा लाभ में आधा - आधा हिस्सा देना स्वीकार किया गया । इस प्रकार 1849 से 1900 की अवधि में भारत । को 58 करोड़ रुपये का घाटा उठाना पड़ा जो विटिश पूंजीपतियों को गारन्टी भुगतान के रूप में । चुकाया गया ।
| ( 5 ) अन्य साधन - भारतीय धन - निष्कासन का एक मार्ग यह भी था कि भारत से अफीम को निर्यात चीन को किया जाता था और इस व्यापार का लाभ इंग्लैण्ड भेज दिया जाता था । चीन के मार्ग से अनुचित तरीके से उपलब्ध किये हुए धन को इंग्लैंड भेज दिया जाता था । सरकारी आय का व्यय भी इस प्रकार किया जाता था कि जिससे अंग्रेजों को अधिक लाभ हो । अतः शासन - व्यय की वृद्धि के कारण आंतरिक आर्थिक निष्कासन निरन्तर बढ़ता ही जाता था । इस प्रकार स्पष्ट है कि शासन प्रणाली बहुत मंहगी थी और जनता के हितों की रक्षा करना उसको मुख्य उद्देश्य नहीं था । 75 प्रतिशत राजस्व गरीब जनता से लिया जाता था ।
भारतीय धन के निष्कासन के प्रभाव ( 1 ) निर्धनता में वृद्धि - विपुल मात्रा में भारत के धन के निष्कासित हो जाने से देश की निर्धनता में वृद्धि हुई । धन , खाद्यान्न , कच्चे माल आदि के निष्कासन के कारण पैदावार कम हो गई । जनता की आय पर हानिकारक प्रभाव पड़ा और देश में गरीबी तथा बेरोजगारी बढ़ती गई । ( 2 ) पूँजी - निर्माण की हानि - धन - निकासन के कारण न केवल धन की क्षति होती थी , बल्कि इससे पूंजी की भी हानि होती थी । इससे देश की आय व रोजगार पर बुरा प्रभाव पड़ता था । ( 3 ) भारत में विदेशी पूंजीपतियों का एकाधिकार - धन - निष्कासन के परिणामस्वरूप विदेशी पूँजी को भारत में एकाधिकार के लाभ मिल गए क्योंकि देशी पूंजी में प्रतिस्पर्धा की पर्याप्त शक्ति व सामर्थ्य नहीं थी ।
( 4 ) देश के औद्योगीकरण के लिए साधनों का अभाव - धन के बाह्य प्रवाह के कारण भारत के पास साधनों का अभाव हो गया जिससे औद्योगीकरण में बाधा पड़ी । इसके अतिरिक्त प्रतिकूल व्यापार शत , बचत एवं विनियोग साधनों के अभाव आटि के कारण भी देश के औद्योगीकरण में बाधा पहुंची । | ( 5 ) भारतीय कृषि का पिछड़ा रहना - प्रो . रमेश चन्द्र दत्त का मत है कि किसानों से भारी । लगान वसूल किया जाता था अंरि उस कर का प्रयोग भारतीय कृषि के विकास में न कर कृषि वस्तुओं को खरीद कर उन्हें इंग्लैंड भेज दिया जाता था ताकि कच्चा माल भारतीयों को प्राप्त न हो सके । इस प्रकार धन निष्कासन ने कृषि के लिए भी पूजी का अभाव उत्पन्न कर दिया । |
( 6 ) लघु एवं कुटीर उद्योगों का पतन - धन निकासन के कारण कच्चा माल सस्ती दरों पर इंग्लैण्ड भेजा जाता था और वहाँ से निर्मित माल ऊंची कीमतों पर भारत की मण्डियों में बेचा जाता था । भारतीय उद्योग विदेशी प्रतिस्पर्द्ध के कारण नष्ट होते चले गए जिससे देश में गरीबी और बेरोजगारी में वृद्धि हुई । । ( 7 ) करों का बोझ - निरन्तर धन - निष्कासन के परिणामस्वरूप भारतीयों पर करों का कम्पनी के लिए के रूप र व्याज , | अंग्रेज या गया ब्रिटिश दी नीति के लिए ता था । स्थापना ढता ही ख पाँड बोझ बढ़ गया । जो भी ल योग जी का ? ( 8 ) गांवों में निर्धनता बढना - धन - निष्कासन के फलस्वरूप गांवों में भी निर्धनता बढती । पाप सरकार की आय का 75 प्रतिशत से अधिक भाग गांवों तथा किसानों से प्राप्त होता ।
1918 - 21 के बीच खेती । की भूमि के केवल 11 प्रतिशत भूमि में सरकारी सिंचाई के प्रबन्ध उपलब्ध थे । किसानों पर भारी । कर लगा हुआ था तथा कम्पनी के कर्मचारी बड़ी निर्दयतापूर्वक लगान वसूल करते थे । ( 2 ) लगान में वृद्धि - किसानों को अपनी भूमि के लिए सरकार को लगान देना पड़ता था । अंग्रेजी कम्पनी की राजस्व नीति बड़ी कठोर थी । कम्पनी का उद्देश्य किसानों से आधिकाधिक लगान वसूल करना था । जहां अंग्रेजी कम्पनी द्वारा बंगाल में 1765 - 666 ई . में लगान की राशि 14 . 17 , 000 पौंड थी वही राशि 1771 - 72 में बढ़कर 23 , 41 , 000 पौंड हो गई । अंग्रेजों की भू - राजस्व प्रणालियों ने भी भारतीय कृषि की उन्नति में बाधा डाली । स्थानीय बन्दोबस्त के कारण किसानों को अपार कष्ट उठाने पड़े ।
रैयतबारी इलाकों में सरकार निष्ठुरतापूर्वक लगान वसूल करती थी । मद्रास तथा बम्बई में जहां महलवारी व्यवस्था लागू थी । लगान की मांग इतनी अधिक थी कि उसमें भूमि की पूरी अतिरिक्त उपज समा जाती थी । इस प्रकार लगान की कठोरता ने किसानों को बर्बाद कर दिया और खेती की दशा शोचनीय होती गई । ( 3 ) किसानों की दुर्दशा - ब्रिटिश सरकार की आर्थिक नीतियों के कारण किसानों की दशा बहुत शोचनीय थी । उन्हें अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये तथा लगान चुकाने के लिये साहूकारों से कर्जा लेना पड़ता था । यूरोपीय प्लान्टर्स भी किसानों का शोषण करते थे औरउन पर भारी अत्याचार करते थे ।
इससे भी किसानों की स्थिति दयनीय हो गई थी । 10वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में भी भारत के विभिन्न भागों में 24 बार अकाल पड़ा और लगभग 2 करोड़ 85 लाख व्यक्ति मौत का शिकार बन गये । | ( 4 ) खाद्यान्नों का अभाव - आबादी में वृद्धि के अनुसार अनुपात से खेती का कुल त्रिफल बढ़ा नहीं था और लोग अनाज की जगह नकद फसलें उगाते थे । अतः इन कारणों से देश में खाद्यान्नों का अभाव हो गया । इसके बावजूद विटिश सरकार रुई , चाय , तिलहन , अनाज आदि का निर्यात करती थी । इससे भी भारतीय किसानों को अपार कष्टों का सामना करना पड़ा । |
( 5 ) कुटीर उद्योगों का विनाश - ब्रिटिश सरकार की दोपपूर्ण औद्योगिक एवं व्यापारिक नीति के कारण भारतीय कुटीर उद्योगों का ह्रास हुआ । ब्रिटिश सरकार ने स्वतन्त्र व्यापार की नीति का अनुसरण करते हुये इंग्लैंड में मशीनों से निर्मित सामान को भारत की मण्डियों में भेजकर भारी मुनाफा कमाना शुरु कर दिया । इसके अतिरिक्त भारतीय कारीगरों से बहुत कम मूल्यों पर माल खरीद कर अंग्रेजी कम्पनी विदेशों में ऊंचे मूल्यों पर बेचकर भारी लाभ कमाती थी । भारतीय वस्त्र - व्यवसाय का चौपट करने के लिये इंग्लैंड में भारतीय वस्त्रों के आयात पर प्रतिबन्ध व भारी आयात कर लगाया गया । भारत में इंग्लैंड में बने माल के आयात को प्रोत्साहन दिया गया । | ( 6 ) वस्त्र उद्योग का पतन - ब्रिटिश शासन की स्थापना के पूर्व भारत का वस्त्र उद्योग सबसे बड़ा उद्योग था । परन्तु अंग्रेजों ने अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए वस्त्र उद्योग को चौपट करना शुरु कर दिया ।
बुनकरों को अंग्रेजी कम्पनी की पटरियों में काम करने के लिये बाध्य किया जाता था , उनका माल कम कीमत पर खरीदा जाता था तथा उन्हें अमानुषिक यातनायें दी जाती थीं । बुनकर को अपनी मेहनत के बदले में बहुत थोड़ी राशि मिलती थी । । अंग्रेजों की आर्थिक नीति के कारण भारतीय उद्योग - धन्धे चौपट हो गये और देश में । बेकारी तथा निर्धनता बढ़ती गई । ब्रिटिश सरकार ने भारत को इंग्लैण्ड के लिये कच्चे माल की खरीद तथा तैयार माल की मण्डी बना रखा था । अंग्रेजों की दोषपूर्ण औद्योगिक एवं व्यापारिक नीति के कारण 1757 से 1829 तक के 75 वर्षों से कम की अवधि में भारत एक औद्योगिक देश की स्थिति से कच्चे माल की पूर्ति करने वाले देश की स्थिति में आ गया ।
( 7 ) भारत के धन का निष्कासन - भारत के प्रसिद्ध राष्ट्रवादी नेता दादाभाई नौरोजी ने अपने विद्वत्तापूर्ण लेख में यह सिद्ध किया है कि ब्रिटिश सरकार की आर्थिक नीति का मुख्य उद्देश्य भारत के धन का निष्कासन करना था । ब्रिटिश सरकार ने सुनियोजित तरीके से भारत का अतुल धन इंग्लैण्ड पहुंचाया और भारत को निर्धनता के गर्त में डाल दिया । इतिहासकारों के अनुसार 1757 से 1857 की अवधि में लगभग 15 करोड़ पौंड के मूल्य के साधनों का निष्कासन किया गया । प्रो . वकील के अनुसार 1834 से 1839 तक की अवधि में 105 करोड़ पौंड मूल्य का निष्कासन किया गया ।
इस प्रकार 1757 से 1939 तक सरकारी खाते के अन्तर्गत 120 करोड़ पीड मूल्य का धन था । यदि इसमें गैर - सरकारी भुगतानों को जोड़ दिया जाये तो सन् 1757 से 1939 की अवधि में कुल 600 करोड़ पौंड का धन ब्रिटेन को निष्कासित किया गया । यह धन निष्कासन अनेक रूपों में होता था । जैसे अंग्रेज अधिकारियों द्वारा समस्त बचतों को इंग्लैंड नी , भारत सरकार तथा अंग्रेज अधिकारियों द्वारा इंग्लैंड में बनी वस्तुओं को खरीदना , भारत में तथा सार्वजनिक कार्यों के लिये ऋण पर ब्याज तथा मूलधन चुकाना आदि । इसके त ब्रिटिश शासन का सारा खर्च भारत को ही उठाना पड़ता था ।धन - निकासन की प्रणाली के कारण भारतीय कृषि , उद्योग और व्यापार चौपट हो गये । किसानों और मजदूरों की दशा सर्वाधिक शोचनीय हो गई ।
धन , खाद्यान्न कच्चे माल आदि के निष्कासन के कारण पैदावार कम हो गई । जनता की आय पर हानिप्रद प्रभाव पड़ा और देश के गरीबी , बेकारी तथा भुखमरी बढ़ी गई । | निष्कर्ष - ब्रिटिश शासन के 150 वर्षों के शासनकाल के परिणामस्वरूप भारत की कवि उद्योग , वाणिज्य व्यापार आदि सभी को प्रबल आघात पहुंचा । अंग्रेजों की स्वार्थपूर्ण आर्थिक नीति के कारण देश की अर्थव्यवस्था बिगड़ती चली गई । गरीबी , भुखमरी तथा बेरोजगारी बढती । गयी । अंग्रेज भारत को एक निर्धन देश छोड़ गये जिसमें प्रति व्यक्ति आय बहुत कम थी । | डॉ . आर . सी . दत्त का कथन है कि , " अंग्रेजों की नीति के कारण लाखों भारतीय बेकार ने गए और सारा देश एक महान आर्थिक प्रलय में डूब गया । वास्तव में भारत की आर्थिक दुरावस्था अंग्रेजी शासन का अत्यन्त दुःखदायी परिणाम है ।
भारतीय धन का निष्कासन - धन निष्कासन से तात्पर्य उस धन से है , जो भारत से इंग्लैंड भेजा जाता था किन्तु उसके बदले में कुछ भी प्राप्त नहीं होता था । देश से दो प्रकार का धन बाहर जाता था - मुद्रा के रूप में या पदार्थों के रूप में । यह धन - निष्कासन धातु मुद्रा के रूप में कम और वस्तुओं के निर्यात व्यापार के रूप में अधिक होता था । प्रो . नाथूरामका का कथन है - " इसमें ब्रिटेन को किये जाने वाले वे विभिन्न भुगतान शामिल थे जिनके बदले में भी भारतीयों को कोई प्रतिफल नहीं मिलता था ।
ये भुगतान देश की बचत के प्रतीक थे जिनसे ब्रिटेन में विकास की गति को तेज करने में सहायता मिली । यदि यही बचत भारत में विनियोजित होती तो देश का आर्थिक विकास हो सकता था । ” | धन - निष्कासन के साधन ( 1 ) अंग्रेजी कम्पनी द्वारा व्यापार – भारत का धन इंग्लैंड ले जाने के लिये अंग्रेजी कम्पनी ने भरसक प्रयास किये । व्यापार इस प्रकार से किया जाता था कि कच्चा माल खरीदने के लिए पूंजी राजस्व की बचत में से ली जाती थी । मुनाफा कम्पनी के साझेदारों को उनके लाभांश के रूप में दिया जाता था । 1873 तक ( 6 . 3 लाख पड़ ब्रिटिश अधिकारियों को भुगतान किया गया ।
| ( 2 ) होम चार्जेज - होम चार्जेज में रेलों में लगी पूंजी का ब्याज , अन्य ऋणों पर व्याज , सुरक्षा सेवाओं पर ध्यय , इंग्लैंड में भारत - सचिव के कार्यालय का प्रशासनिक व्यय , अंग्रेज । अधिकारियों की पेन्शनें एवं भत्ते की राशि एवं भारत में विभिन्न विभागों के लिये किया गया । व्यय सम्मिलित था । भारत पर सैनिक व्यय का भार भी बहुत अधिक था । इस प्रकार वार शासन का सारा खर्च भारत को ही उठाना पड़ता था । विटिश सरकार अपनी विस्तारवादान की पूर्ति के लिए चीन , फारस , वर्मा , अफगानिस्तान आदि में अपने प्रभाव को बनाये रखने के बहुत बड़ी सेना रखती थी जिसका सारा खर्चा भारतीय जनता को करों के रूप में देना पड़ता इस प्रकार इंग्लैंड में खुलने वाले पागलखाने का व्यय , चीन और फारस में दूतावास की E F EA | | " " " का व्यय आदि भी भारतीयों को ही वहन करना पड़ता था ।
भारत पर यह भार निरन्तर गया । जहां 1851 में होम चार्जेज की राशि 25 लाख पौंड थी . वह 1933 - 34 में 275 हो गई थी । ( 3 ) सार्वजनिक ऋण - भारत में होने वाले युद्धों तथा विटिश प्रशासन से व्यय होते थे , उन्हें भारतीय ऋण की संज्ञा दी जाती थी । 1792 में इस प्रकार ऋण 70 लाख पड़ था , जो 1829 में 300 लाख पौंड हो गया था । 1858 मे अंग्रेजी कंपनी का 7करोड़ पौंड का समस्त ऋण भारत सरकार पर डाल दिया गया । 1900 में यह राशि 224 करोड़ पौंड हो गई थी । ( 4 ) रेल - निर्माण - भारत में लें बनाने के लिये अंग्रेज पंजीपतियों को अत्यधिक लाभ । पर ठेके दिये गए । उन्हें पूजी - विनियोग पर प्रारम्भ में 5 प्रतिशत का गारन्टीड व्याज तथा लाभ में आधा - आधा हिस्सा देना स्वीकार किया गया । इस प्रकार 1849 से 1900 की अवधि में भारत । को 58 करोड़ रुपये का घाटा उठाना पड़ा जो विटिश पूंजीपतियों को गारन्टी भुगतान के रूप में । चुकाया गया ।
| ( 5 ) अन्य साधन - भारतीय धन - निष्कासन का एक मार्ग यह भी था कि भारत से अफीम को निर्यात चीन को किया जाता था और इस व्यापार का लाभ इंग्लैण्ड भेज दिया जाता था । चीन के मार्ग से अनुचित तरीके से उपलब्ध किये हुए धन को इंग्लैंड भेज दिया जाता था । सरकारी आय का व्यय भी इस प्रकार किया जाता था कि जिससे अंग्रेजों को अधिक लाभ हो । अतः शासन - व्यय की वृद्धि के कारण आंतरिक आर्थिक निष्कासन निरन्तर बढ़ता ही जाता था । इस प्रकार स्पष्ट है कि शासन प्रणाली बहुत मंहगी थी और जनता के हितों की रक्षा करना उसको मुख्य उद्देश्य नहीं था । 75 प्रतिशत राजस्व गरीब जनता से लिया जाता था ।
भारतीय धन के निष्कासन के प्रभाव ( 1 ) निर्धनता में वृद्धि - विपुल मात्रा में भारत के धन के निष्कासित हो जाने से देश की निर्धनता में वृद्धि हुई । धन , खाद्यान्न , कच्चे माल आदि के निष्कासन के कारण पैदावार कम हो गई । जनता की आय पर हानिकारक प्रभाव पड़ा और देश में गरीबी तथा बेरोजगारी बढ़ती गई । ( 2 ) पूँजी - निर्माण की हानि - धन - निकासन के कारण न केवल धन की क्षति होती थी , बल्कि इससे पूंजी की भी हानि होती थी । इससे देश की आय व रोजगार पर बुरा प्रभाव पड़ता था । ( 3 ) भारत में विदेशी पूंजीपतियों का एकाधिकार - धन - निष्कासन के परिणामस्वरूप विदेशी पूँजी को भारत में एकाधिकार के लाभ मिल गए क्योंकि देशी पूंजी में प्रतिस्पर्धा की पर्याप्त शक्ति व सामर्थ्य नहीं थी ।
( 4 ) देश के औद्योगीकरण के लिए साधनों का अभाव - धन के बाह्य प्रवाह के कारण भारत के पास साधनों का अभाव हो गया जिससे औद्योगीकरण में बाधा पड़ी । इसके अतिरिक्त प्रतिकूल व्यापार शत , बचत एवं विनियोग साधनों के अभाव आटि के कारण भी देश के औद्योगीकरण में बाधा पहुंची । | ( 5 ) भारतीय कृषि का पिछड़ा रहना - प्रो . रमेश चन्द्र दत्त का मत है कि किसानों से भारी । लगान वसूल किया जाता था अंरि उस कर का प्रयोग भारतीय कृषि के विकास में न कर कृषि वस्तुओं को खरीद कर उन्हें इंग्लैंड भेज दिया जाता था ताकि कच्चा माल भारतीयों को प्राप्त न हो सके । इस प्रकार धन निष्कासन ने कृषि के लिए भी पूजी का अभाव उत्पन्न कर दिया । |
( 6 ) लघु एवं कुटीर उद्योगों का पतन - धन निकासन के कारण कच्चा माल सस्ती दरों पर इंग्लैण्ड भेजा जाता था और वहाँ से निर्मित माल ऊंची कीमतों पर भारत की मण्डियों में बेचा जाता था । भारतीय उद्योग विदेशी प्रतिस्पर्द्ध के कारण नष्ट होते चले गए जिससे देश में गरीबी और बेरोजगारी में वृद्धि हुई । । ( 7 ) करों का बोझ - निरन्तर धन - निष्कासन के परिणामस्वरूप भारतीयों पर करों का कम्पनी के लिए के रूप र व्याज , | अंग्रेज या गया ब्रिटिश दी नीति के लिए ता था । स्थापना ढता ही ख पाँड बोझ बढ़ गया । जो भी ल योग जी का ? ( 8 ) गांवों में निर्धनता बढना - धन - निष्कासन के फलस्वरूप गांवों में भी निर्धनता बढती । पाप सरकार की आय का 75 प्रतिशत से अधिक भाग गांवों तथा किसानों से प्राप्त होता ।
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