Saturday, June 29, 2019

लार्ड कार्नवालिस का बंगाल का स्थाई बंदोबस्त रैयतवाड़ी तथा महालवाड़ी प्रथा

वारेन हेस्टिग्स की नई भरोस्य नीति अथवा इजारेदारी प्रथा - 1772 . में भारत हेस्टिग्स ने एक नई भू - राजस्व गवस्था को अपनाया जिससे अधिकारिक राजस्व वसूल हो । सके । यह इजारेदारी व्यवस्था के नाम से प्रसिद्ध हुई । उसने सर्वप्रथम पंचपथ ठेके की व्यवस्था की । इसमें सबसे अधिक बोली लगाने वाले को भूमि ठेके पर दी जाती थी । यह इजारेदारी प्रथा सफल नहीं हुई क्योंकि इससे कम्पनी के राजस्व में अस्थिरता आ गई । प्रत्येक वर्ष वसूल की गई राशि की मात्रा अलग अलग होती थी । कम्पनी को यह अनिश्चितता होती थी । कि अगले साल कितना लगान वसूल होगा ।

 पंचवर्षीय व्यवस्था की त्रुटियों को देखते हुए 1777 ई में वार्षिक ठेके की व्यवस्था की गई । यह व्यवस्था भी असफल रही क्योंकि हर वर्ष नये - नये व्यक्ति को लेकर किसानों से लगान वसूल करते थे जिनका उद्देश्य अधिक से अधिक रकम वसूल करना होता था । इजारेदारों ( जमीदारो ) का भूमि पर अस्थायी स्वामित्व होने के कारण वे भूमि सुधार के बारे में सोचते तक नहीं थे । वे किसानों को काफी सताते थे तथा उनसे अधिक धन बटोरते थे । इजारेदार कम्पनी को भी पूरी रकम नहीं देते थे । फिर भी 1793 ई . में बंगाल में कम्पनी को ( स्थायी बन्दोबस्त शुरू होने से पूर्व ) 30 , 91 , 000 पौण्ड प्राप्त होने लगे थे ।

 लार्ड कार्नवालिस द्वारा बंगाल का स्थायी बन्दोबस्त - इजारेदारी प्रथा के कारण बंगाल की आर्थिक व्यवस्था बिगड़ गई थी । चारों ओर गरीबी का राज्य था । अनेक स्थानों पर अकाल के कारण भुखमरी फैली हुई थी । 1779 ई . में लार्ड कार्नवालिस ने कहा था , " कम्पनी की एक तिहाई भूमि अब जंगल है तथा वहाँ पर जंगली जानवर ही बसते हैं । स्वयं लार्ड कार्नवालिस के इस कथन से हमें स्पष्ट हो जाता है कि इजारेदारी प्रथा बंगाल , बिहार और उड़ीसा के किसानों के लिए कितनी कष्टकारी थी ।

 एक लम्बे विचार - विमर्श के उपरान्त और बोर्ड ऑफ कन्ट्रोल को स्वीकृति लेकर लार्ड कार्नवालिस ने 22 मार्च , 1793 ई . को बंगाल , बिहार और उड़ीसा और बाद में उत्तरी मद्रास के कुछ इलाकों के लिए इस्तमरारी बन्दोबस्त अथवा स्थायी भूमि बन्दोबस्त लागू किया । इसकी तीन खास विशेषतायें थीं । प्रधम् जमींदारों और लगान वसूल करने वालों को पहले की तरह अब केवल मात्र मालगुजारी वसूल करने वाले कर्मचारी मात्र ही नहीं रखा गया बल्कि उन्हें हमेशा के लिए जमीन का मालिक बना दिया गया और स्थायी तौर पर एक ऐसी राशि तय कर दी गई जो वे सरकार को दे सकें । जमींदारों के स्वामित्व के अधिकार को पैतृक और हस्तान्तरणीय बना दिया गया । दूसरी ओर किसानों को मात्र रैयतों का नीचा दर्जा दिया गया?

 और उनसे भूमि सम्बन्धी तथा अन्य परम्परागत अधिकारों को छीन लिया गया । चरागाह , जंगले , नहरों , मछली पालन के लिए उपयोगी स्थानों , मकान बनाने के लिए उपयोगी भूमि और लगाने वृद्धि से सुरक्षा आदि के उनके अधिकारों को जमींदारों के हितों के लिए कम्पनी ने बलि चढ़ा दिया । तीसरा अगर किसी जमींदार से प्राप्त लगान की रकम कषि सुधार अधव पसार किसानों से अधिक रकम उगाहने के कारण राजस्व की रकम बढ़ जाती तो जमींदार की ब रकम रखने का अधिकार दे दिया गया । । उद्देश्य - स्थायी भूमि बन्दोबस्त का प्रथम उद्देश्य इंग्लैण्ड के ढग पर जमींदारों को ऐसा नया वर्ग तैयार करना था जो अंग्रेजी राज्य के लिए सामाजिक आधार का कार्य करे । अंग्रेजोनै ऐसा महसूस किया कि उनकी संख्या भारत में कम है और उन्हें एक विशाल आबादी पर अपना अधिकार रखनी है ।

 इसलिए अपनी सत्ता को बनाये रखने के लिए एक सामाजिक आधार तयार करना उनके लिए बहुत जरूरी है । इसके लिए उन्होंने एक ऐसा नया वर्ग पैदा किया जो कम्पनी से लूट - खसोट का एक हिस्सा पाकर अपने निहित स्वार्थ को अंग्रेजी साम्राज्य के बने रहने के साथ जोड़ ले । उनका दूसरा उद्देश्य था कि जमींदार कम्पनी की काफी ऊंची भू - राजस्व सम्बन्धी माग को पूरा कर सकें । जमींदारों को आदेश दिया गया कि वे किसानों से वसूल किये गये । राजस्व की रकम का 10 / 11 भाग कम्पनी को दें और शेष 1 / 11 भाग अपने लिए रखें । मगर भू - राजस्व की जो कुल रकम कम्पनी को अदा करनी थी वह सदा के लिए निश्चित कर दी गई । सरकार ने यह निर्धारित किया कि बंगाल के जमींदार प्रतिवर्ष तीस लाख पौण्ड किसानों से वसूल करके सरकारी कोष को दिया करेंगे ।

 पुराने राजाओं के काल में सरकार के लिए जमींदार जो वसूली करते थे उससे यह राशि बहुत अधिक थी । अगर कोई जमींदार निश्चित तारीख पर भू - राजस्व की मात्रा जमा नहीं करता था तो उसकी जमींदारी नीलाम कर दी जाती थी । _ लाभ - ( 1 ) स्थायी भूमि बन्दोबस्त से सबसे अधिक लाभ जमीदारों को हुआ । वे स्थायी रूप से भूमि के मालिक हो गये । वे भू - राजस्व को बढ़ा सकते थे । वे अपने जीवनकाल में या वसीयत द्वारा अपनी जमींदारी अपने वैध उत्तराधिकारी को दे सकते थे । चूंकि उन्हें एक निश्चित रकम ही सरकार को देनी होती थी इसलिए वे अपने स्वार्थ के लिए ( अर्थात् अधिक भू - राजस्व प्राप्ति के लिए ) कृषि सुधार और विस्तार में अधिक रुचि लेने लगे । कालान्तर में वे बहुत अधिक धनी हो गये और उनका जीवन अधिक सुखी हो गया । ( 2 ) स्थायी भूमि बन्दोबस्त से सरकार को भी कई लाभ हुए । प्रथम उसे जमींदारों का एक ऐसा वर्ग प्राप्त हुआ जिसके स्वार्थ सरकार के साथ जुड़े हुए थे और जो हर स्थिति में सरकार का साथ देने को तैयार थे ।

 जमींदारों ने ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध होने वाले विद्रोहों को कुचलने में कई बार महत्वपूर्ण भूमिका अदा की । आगे चलकर इन्हीं जमींदारों ने अनेक संस्थाएं ( लैंड होल्डर्स फेडरेशन , लैंड ओनर एसोसिएशन आदि ) बनाई और इन संस्थाओं ने राष्ट्रीय आंदोलन में विटिश शासन के प्रति अपनी अटूट निष्ठा की घोषणा की । दूसरा सरकार को प्राप्त होने वाली लगान राशि बहुत ज्यादा बढ़ गई । उदाहरण के लिए , 1793 ई . में ( जब बंगाल में स्थायी बन्दोबस्त लागू किया गया ) यह राशि 30 , 91 , 000 पौंड थी जो बढ़कर 1800 - 1801 में 42 , 00 , 000 पौंड और 1857 - 58 में 1 , 53 , 00 , 000 पौंड हो गई । तीसरा सरकार को इजारेदारी प्रथा के अंतर्गत जो प्रतिवर्ष लगान की नीलामी के झंझट करने पड़ते थे , उससे वह बच गई । चौथा सरकार की आय निश्चित हो गई जिससे वह अपना बजट ठीक प्रकार बना सकती थी । पांचवां वार्षिक प्रबन्ध में लगे अनेक कर्मचारी भूमि प्रबन्ध के कार्य से मुक्त हो गये । वह उन्हें प्रशासन के दूसरे कार्यों में लगा सकते थे ।

 इससे उसके प्रशासनिक व्यय में कमी आई और प्रशासनिक कुशलता बढ़ी । स्थायी भूमि बन्दोवस्त से हानियाँ ( 1 ) स्थायी बन्दोबस्त से सबसे अधिक हानियां किसानों को हुई । इस व्यवस्था ने उनसे रम्परागत भूमि सम्बन्धी तथा अन्य अधिकार छीन लिए । इस व्यवस्था के कारण बंगाल , बिहार , स , मद्रास के उत्तरी जिलों , वाराणसी जिले आदि के किसान पूर्णतया जमींदारों की दया पर हो गये । वे अपने जमीन पर ही मजदरों के रूप में काम करने वालों की स्थिति में आ गये । ।

 कार के साथ कोई सीधा सम्बन्ध नहीं रहा । उन्हें जमींदारों के अनेक प्रकार के अत्याचार नस के नों के ल को र बाद लागू नों को गया राशि और और नगल , नगान चढ़ा र या एक ग्रेजों की सरकार के साथ र शोषण को सहना पड़ा ।(2) बहुत से जमींदार लागान की वसूली में अपनी पारिवारिक परम्परा के अनसार । किसानों पर कुछ रहम दिखाते थे तथा कडाई के साथ पेश नहीं आते थे । वे मालगुजारी की निर्धारित ऊंची राशि के बोझ को नहीं उठा सके । फलस्वरूप उनकी जमीदारी बड़ी बेरहमी के साथ नीलाम कर दी गई । ( 3 ) इस पवस्था में लगान बढ़ाने की छूट के कारण ही अनेक जमींदारों के पास अधिक धन आ गया ।

 उन्होंने धनी हो जाने के कारण गांव छोड़ दिये । वे शहरों में विलासी जीवन गुजारने लगे जिससे समाज में अनैतिकता को बढ़ावा मिला । | ( 4 ) स्थायी बन्दोबस्त ने ( कालान्तर में ) हमारे देश में राष्ट्रीय भावनों की जागृति और राष्ट्रीय आन्दोलन को गहरा आघात पहुंचाया । चूंकि जमींदार वर्ग के हित ब्रिटिश सरकार के हितों से जुड़े हुए थे इसलिए उन्होंने उसकी रक्षा के लिए यथासम्भव सभी प्रयास किये । कुछ चन्द्र जमीदारों को छोड़कर किसी ने भी स्वतंत्रता संग्राम में अपना कोई योगदान नहीं दिया । ( 5 ) स्थायी भूमि बन्दोबस्त से सरकार को भी हानि हुई । चूंकि इस व्यवस्था में प्राचीन व्यवस्था के विपरीत भू - राजस्व बढ़ाने का अधिकार सरकार से छीनकर जमींदारों को दे दिया गया था

था । था इसलिए भविष्य में भी कृषि विस्तार होने पर या भू - राजस्व ( जमींदारों द्वारा ) बढ़ने पर भी उसकी आय नहीं बढ़ी । जबकि उसकी इस दूषित भूमि व्यवस्था के विरुद्ध जनता में असन्तोष निरन्तर बढ़ा जो आगे चलकर राष्ट्रीय आन्दोलन के दौरान व्यक्त हुआ । स्थायी बन्दोबस्त का किसानों पर प्रभाव - स्थायी बन्दोबस्त का किसानों पर सर्वाधिक बुरा प्रभाव पड़ा । इस व्यवस्था में किसानों को मात्र रैयतों का नीचा दर्जा दिया गया । उनसे भूमि सम्बन्धी तथा अन्य परम्परागत सभी अधिकार छीन लिए गए ।

 चरागाह एवं जंगल की जमीनों , सिंचाई की नहरों , मछली पालन तथा गृह निर्माण के लिए भूमि का प्रयोग करने तथा भू - राजस्व की वृद्धि से सुरक्षा उनके वे अधिकार थे जिन्हें पूरी तरह समाप्त कर दिया गया । इस व्यवस्था के कारण किसानों से बेगार लेना जमींदारों के लिए अधिक सरल था । वे लग्न न अदा करने के । आरोप पर जय चाहते उन्हें भूमि से बेदखल कर सकते थे । धीरे - धीरे किसान दरिद्र हो गए । क्योंकि जमींदार भूमि सुधारों में कोई रुचि नहीं रखते थे । वे पूरी तरह जमींदारों की दया पर निर्भर थे । जमींदारों ने निजी लाभ बढ़ाने के लिए असहनीय सीमाओं तक भूराजस्व बढ़ा दिया ।

उन्हें समय पर कर न देने के कारण जमींदारों के कई प्रकार के अत्याचार सहने पड़े तथा बेगार करनी पड़ी । उन्हें समय पर भूराजस्व चुकाने के लिए ( ताकि उनकी भूमि छीनकर जमीदार किसी अन्य को न दे दें ) सूदखोरों से भारी व्याज पर ऋण लेना पड़ता था जो उनके खून - पसीने का कमाई को हर वर्ष फसल के समय मनमाने भावों पर ले जाता था लेकिन किसान को ऋण की । समाप्त नहीं होता था । रैयतवाड़ी व्यवस्था स्थायी बन्दोबस्त के बाट ( 1800 ई में ) अनेक जिलों में विकल्प है । रूप में एक नई भू - राजस्व नीति अपनाई गई जिसका सर्वप्रथम प्रारम्भ मद्रास में किया गया । बन्दोबस्त की खास बात यह थी कि सरकार को किसानों के साथ सीधे - सीधे कोई बन्द करना चाहिए जो स्थायी नहीं , अस्थायी हो अर्थात् जिसमें हमेशा कुछ वर्षों के अन्न प्रकार संशोधन किया जा सके कि लगान की रकम निरन्तर बढ़त्री रहे । ब्रिटिश सरक । से प्राप्त होने वाले लगान के धन को किसी विचौलिए में बांटने की बजाय पूरा का पूर करना चाहती थी ।

 अगर एक वाक्य में कहा जाये तो कहा जा सकता है कि सर शुरू की गई रैयतवाड़ी बन्दोबस्त का केवल मात्र उद्देश्य स्थायी भूमि बन्दोबस्त दूर करना था । सर टामस रो की यह व्यवस्था बाद में अनेक सबों में लागू की गई और बीसवींशताब्दी के आरम्भ तक यह व्यवस्था ब्रिटिश भारत के आधे से अधिक भाग में लागू कर दी गई । वस्तुतः यह व्यवस्था ब्रिटिश सरकार ने इसलिए शह को क्योंकि उसके अधिकारियों का । विचार था कि दक्षिण और दक्षिण - पश्चिम भारत में , बड़ी भू - सम्पत्तियों वाले जमीदार नहीं है । जिनके साथ भू - राजस्व का स्थायी बन्दोबस्त किया जा सके । । ' हालांकि रैयतवाड़ी बन्दोबस्त के बारे में यह दलील दी गई थी कि यह भूमि व्यवस्था भारतीय संस्थाओं के काफी अनुकूल है परन्तु व्यावहारिक रूप में यह व्यवस्था जमीदारी व्यवस्था से किसी भी प्रकार से कम हानिकारक नहीं थी ।

 इसका कारण यह था कि इस प्रणाली के अन्तर्गत किसानों से अलग - अलग समझौते कर लिये जाते थे और मालगुजारी का निर्धारण वास्तविक उपज की मात्रा पर न करके भूमि के क्षेत्रफल के आधार पर किया जाता था । इस व्यवस्था ने उन पुराने बन्धनों को समाप्त कर दिया जिन्होंने हर गांव की जनता को सूत्र में बांध रखा था । ग्रामीण समाज के सामूहिक स्वामित्व को इस व्यवस्था ने समाप्त कर दिया । वस्तुतः इस व्यवस्था में जमींदार का स्थान स्वयं ब्रिटिश सरकार ने ले लिया था । सरकार ने किसानों से मनमाने ढंग से कर का निर्धारण किया और उनको जबर्दस्ती खेत जोतने पर मजबूर किया । इस संदर्भ में मद्रास बोर्ड ऑफ रेवेन्यू की रिपोर्ट के आधार पर यह विवरण उल्लेखनीय है -

“ यदि किसानों ने खेत जोतने से इन्कार किया और गांव छोड़ने की कोशिश की तो वे जबरन उन्हें । वापिस घसीट लाये , उनकी मांगों को तब तक टालते रहे जब तक फसलें पककर तैयार नहीं हो गई । इसके बाद जितना भी वे वसूल कर सकते थे , उतना उन्होंने वसूल किया और बैलों तथा • अनाज के दानों ( बीज के लिए ) के अलावा किसानों के पास कुछ भी नहीं छोड़ा । " रैयतवाड़ी व्यवस्था में अनेक अन्य दोष भी थे । इस व्यवस्था में किसान तब तक ही भूमि का स्वामी बना रह सकता था जब तक वह सरकार को निश्चित समय पर लगान देता रहता था ।

 चूंकि अधिकांश क्षेत्रों में निर्धारित भू - राजस्व काफी अधिक था इसलिए किसान समय पर ( प्राकृतिक विपत्तियों के समय में विशेषकर और भूमि सुधारों के प्रति सरकार की उपेक्षित नीति के कारण ) भू लगान नहीं दे सकता था । उदाहरण के लिए , इस व्यवस्था के अन्तर्गत मद्रास में किसानों से कुल उत्पादन का 45 से 55 प्रतिशत तक लगान लिया गया । इसी प्रकार बम्बई प्रेसीडेंसी में भी किसानों से ऊंचा लगान वसूल किया गया क्योंकि सरकार ने इच्छानुसार भू - राजस्व बढ़ाने का अधिकार अपने पास रखा था इसलिए समय के साथ - साथ किसानों के कष्ट बढ़ते गये । किसानों को लगान वसूल करने वाले सरकारी कर्मचारियों के दमन का शिकार होना । पड़ता था ।

 ब्रिटिश सरकार सूखे अथवा बाढ़ से हुई बर्बादी के दिनों में भी किसानों से लगान वसूल करती रही । | महालवाड़ी प्रथा - ब्रिटिश सरकार ने लार्ड हेस्टिग्स के काल में गंगा की घाटी , उत्तर - पश्चिमी प्रान्तों , मध्य भारत के भागों में जमींदारी बन्दोबस्त का एक संशोधित रूप लागू किया । वह व्यवस्था आगरा प्रान्त में तीस वर्ष के लिए और पंजाब में बीस वर्ष के लिए लागू की गई । इसे महालवाड़ी बन्दोबस्त कहा गया । इस व्यवस्था के अन्तर्गत राजस्व बन्दोबस्त गांव - गांव या मुहाल - मुहाल में जमींदारों या उन परिवारों के प्रधानों के साथ किया गया , जो सामूहिक रूप से गांव या महाल के जमींदार होने का दावा करते थे ।

 यद्यपि सैद्धांतिक रूप से भनि महाल अथवा सारे समुदाय की सम्पत्ति मानी जाती थी लेकिन व्यावहारिक रूप में किसान स ( भूमि को ) आपस में बाँट लेते थे और गांव का प्रत्येक किसान लगान मुखिया या नम्बरदार देता था । नम्बरदार को यह अधिकार था कि वह किसान को लगान न देने की स्थिति में भूमि दखल कर दे । इस व्यवस्था का सबसे बड़ा दोष यह था कि इसने गांव के मुखिया केविशेष स्थिति प्रदान की । प्रायः सरकार या उसके अधिकारी उसी के साथ लगान सम्बन्धी मामलों में सम्पर्क रखते थे । किसानों और सरकार में सीधे सम्बन्ध समाप्त हो गये ।

| संक्षेप में अंग्रेजों ने भारत में इजारेदारी , जमींदारी , रैयतवाड़ी और महालवाडी व्यवस्थाओं को अलग - अलग क्षेत्रों में अलग - अलग समय पर शुरू किया उनकी किसी भी भूमि व्यवस्था में किसानों के हितों की रक्षा के लिए कभी प्रयास नहीं किये गये । उनकी भूमि नीतियों ने भूमि को एक ऐसी वस्तु बना दिया जिसे बड़ी आसानी से बेचा जा सकता था या बन्धक रखा जा सकता था । उनकी इस व्यवस्था से भारतीय गांवों की स्थिरता और निरन्तरता हिल गई । अनेक उदार हृदय पुराने जमींदार बर्बाद हो गये । किसानों की स्थिति और अधिक दयनीय हो गई । किसानों को सरकारी कर्मचारियों और बिचौलियों के अत्याचारों और शोषण का शिकार बनना पड़ा ।

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