अधिनियम 1935
सन् 1919 ई . के अधिनियम से भारतीय शासन व्यवस्था में जो परिवर्तन हुए , उनसे भारतीयों को सन्तोष नहीं हुआ । गांधीजी के नेतृत्व में राष्ट्रीय आन्दोलन प्रचण्ड गति से चलता रहा । अन्त में विवश होकर टिश सरकार ने सन् 1927 ई . में सर जॉन साइमन की अता में ' गन शिन ' , जिसके सभी सदस्य अमेज को भारत भेजा । भारतीयों ने इस कमीशन का रिकार किया । मई , 13 ( ) में इस कमीशन ने अपनी रिपोर्ट प्रकाशित की जिसमें उसने भारत के वैधानिक ढाँचे एवं इसमें प्रान्तों के स्थान के बारे में सुझाव दिए । लन्दन में तीन गोलमेज सम्मेलन का आयोजन किया गया परन्तु समस्या का कोई समाधान नहीं हो सका । अन्त में निटिश संसद ने 1935 का अधिनियम पारित किया । जिसके अन्तर्गत भारत में संघीय व्यथा । ।
योजना दिखाई गई । इसी 1935 के अधिनियम के द्वारा भारतीय संघ की स्थापना की गई तथा प्रान्तों को स्वायत्तता प्रदान की गई । इस अधिनियम को अगस्त , 1935 ई . में ब्रिटिश संसद द्वारा पारित किया गया । इसमें 451 . अनुच्छेद तथा 15 परिशिष्ट थे । । 1935 के अधिनियम की विशेषताएँ । प्रस्तावमा रहित संविधान – 1935 के अधिनियम के सम्बन्ध में कोई नई भूमिका या प्रस्तावना नहीं रखी गई । 191 ) के अधिनियम की भूमिका को 1 ) 35 के अधिनियम की भूमिका बना देने से स्पष्ट था कि विटिश शासक 1935 से अधिनियम द्वारा उत्तरदायी सरकार की धीरे - धीरे स्थापना की नीति को दुहरा रहे थे । 1935 से अधिनियम ने 1919 से अधिनियम की । प्रस्तावना में केवल इतना परिवर्तन किया था कि इसमें विटिश प्रान्तों के साथ देशी राज्यों को भी सम्मिलित कर लिया गया था ।
2 . अखिल भारतीय संघ की स्थापना 1935 के अधिनियम के अन्तर्गत यह निर्णय लिया गया कि केन्द्र में ब्रिटिश प्रान्तों और देशी रियासतों को मिलाकर एक अखिल भारतीय संघकी स्थापना की जाये । यह संघ 11 ब्रिटिश प्रान्त , चीफ कमिश्नर प्रान्तों और देशी रियासतों से मिलकर बनना धा । इस अधिनियम के अनुसार प्रतों के लिए संघ में शामिल होना अनिवार्य था . परन्तु देशी राज्यों के लिए ऐच्छिक था । यह प्रावधान रखा गया कि प्रत्येक देशी रियासत को , जो संघ में शामिल होना चाहती थी , एक प्रवेश लेख या स्वीकृति लेख पर हस्ताक्षर करने होंगे । स्वीकृति - लेख में उन शतों का उल्लेख होना था , जिन पर वह संघ में शामिल होने के लिए तैयार थी । इस स्वीकृति - पत्र में उन सब शक्तियों का उल्लेख होना था ,
जो रियासत संघ को समर्पित करना चाहती थी । संघ की इकाइयों को अपने आन्तरिक मामलों में पूर्ण अधिकार प्राप्त था । संघ और उसकी इकाइयों के मतभेदों का या झगड़ों का फैसला करने के लिए एक संघीय न्यायालय की स्थापना की गई । इसी अधिनियम के अनुसार एक संघीय कार्यकारिणी तथा व्यवस्थापिका की स्थापना की गई थी । 3 . केन्द्र में दोहरा शासन - इस अधिनियम ने प्रान्तों में दोहरे शासन का अन्त कर दिया , परन्तु यह केन्द्र में लागू कर दिया गया ।
संघीय विषयों को दो भागों में बाँटा गया — सुरक्षित एवं हस्तान्तरित । सुरक्षित विषयों में प्रतिरक्षा , चर्च सम्बन्धी मामले , विदेश विभाग , कबीलों सम्बन्धी मामले आदि थे । उनका शासन गवर्नर जनरल अपनी इच्छा से चला सकता था । सुरक्षित विषयों के शासन में अपनी सहायता के लिए गवर्नर - जनरल कुछ सभासद नियुक्त कर सकता था , जिनकी संख्या 3 से अधिक नहीं हो सकती थी । | हस्तान्तरित विषयों को मन्त्रियों के हाथों में रखा गया था , जिनकी संख्या 10 से अधिक नहीं हो सकती थी ।
मन्त्री विधानमण्डल में बहुमत प्राप्त दल के सदस्य होते थे तथा उसके प्रति उत्तरदायी थे । अधिनियम में यह आशा प्रकट की गई थी कि गवर्नर जनरल देशी रियासतों तथा अल्पसंख्यकों को मन्त्रिमण्डल में उचित प्रतिनिधित्व दिलाने का प्रयत्न करेंगे । इस क्षेत्र में भी विर्नर जनरल को विशेषाधिकार प्राप्त थे । 4 . विषयों का बँटवारा - 1935 के ऐक्ट के अन्तर्गत विषयों का बँटवारा निम्नलिखित प्रकार से किया गया और यही द्वैध - प्रणाल अन्त हो ग मण्डल में उत्तरदायी है था ।
8 . विधानमण्डः ( i ) सदन के सद थी । उच्च को ब्रिटिश भारत वहाँ के नरेश | निम्न को उनकी जन भारत की जन ( 1 ) संघीय सूची – इस सूची में अखिल भारतीय हित के 5७ विषय रखे गये . जैसे संश । • पेनाएं , मुद्रा एवं नोट , रेल , डाक व तार , केन्द्रीय सेवाएँ , विदेशी मामले में संचार , बीमा , बैंक । आदि । संघीय सूची के विषयों पर केवल केन्द्रीय व्यवस्थापिका ही कानून बना सकती थी । ( ii ) प्रान्तों की सूची – इस सूची में प्रान्तीय हित के 54 विषय रखे गये , जैसे शि६ भू - राजस्व , स्थानीय स्वशासन , कानून व व्यवस्था , सार्वजनिक स्वास्थ्य , कृषि , सिंचाई , नहरे , खान जंगल , प्रान्त के अन्दर व्यापार व उद्योग - धन्धे आदि । प्रान्तीय सूची के विषयों पर केवल व्यवस्थापिका ही कानून बना सकती थी ।
( ii ) समवर्ती सूची – इस सूची में 30 विषय रखे गये थे जिन पर संघीय एवं दानी विधानमण्डल कानून बना सकते थे । इस सूची के प्रमुख विषय घे दीवानी तथा कानून , विवाह , तलाक , कारखाने , श्रम कल्याण आदि । केन्द्रीय और प्रान्तीय व मतभेद हो जाने पर केन्द्रीय विधानमण्डल का ही कानुन मान्य समझा जाता । व्यवस्था की गई कि गवर्नर जनरल अपनी इच्छा से केन्द्रीय विम * शक्तियां - अवशिष्ट शक्तियों के अनियमित होने के सम्बन विधानमण्डल को इन विषयों पर कानून बनाने का अधिकार दे ।5 . रक्षा कवच तथा संरक्षण - 135 के अधिनियम में अनेक संरक्षण तथा आरक्षणा की । व्यवस्था थी , जैसे कि साम्राज्यीय ब्रिटिश सेवाओं , अल्पसंख्यकों देशी रियासतों आदि के हित । । इनके सम्बन्ध में गवर्नर जनरल और गवर्नर्स को विशेष उत्तरदायित्व सौपे गये थे जिनके लिए उन्हें विशेष शक्तियों तथा मन्त्रियों के विरुद्ध स्वविवेक से कार्य की शक्ति दी गई थी ।
6 , संघीय न्यायालय - इस ऐक्ट के अन्तर्गत केन्द्र और इकाइयों के आपसी झगड़े निपटाने के लिए एक संघीय न्यायालय की स्थापना की गई । इस न्यायालय को 1935 के अधिनियम की व्याख्या करने का भी अधिकार दिया गया । संघीय न्यायालय भारत सरकार की । उच्चतम न्यायालय नहीं था । कुछ विशेष परिस्थितियों में प्रिवी कौन्सिल में भी अपील की जा सकती थी । 7 . प्रान्तीय स्वायत्तता – प्रान्तीय स्वायत्तता 1935 के अधिनियम की मुख्य विशेषता थी । और यही इस अधिनियम का भाग था जो लागू किया गया था ।
अधिनियम ने प्रान्तों में वैध - प्रणाली को समाप्त कर दिया , जिससे प्रान्तों में सुरक्षित व हस्तान्तरित विषयों के भेद का अन्त हो गया । | अब प्रान्तों के सभी विभागों पर मन्त्रियों का पूर्ण नियन्त्रण हो गया । ये मन्त्री विधान मण्डल में बहुमत प्राप्त दल के सदस्य होते थे और विधानमण्डल के प्रति संयुक्त रूप से उत्तरदायी होते थे । प्रान्त अब केन्द्र के अभिकरण मात्र नहीं रहे , उनका अपना संवैधानिक क्षेत्र था । । 8 . विधानमण्डलो तथा मताधिकार का विस्तार इस अधिनियम के अन्तर्गत विधानमण्डलों और मताधिकार का विस्तार निम्नलिखित प्रकार से किया गया | ( i ) केन्द्र केन्द्र में द्वि - सदनात्मक व्यवस्थापिका की व्यवस्था की गई ।
केन्द्र के उच्च सदन के सदस्यों की संख्या 260 और निम्न सदन के सदस्यों की संख्या 375 निश्चित की गई । थी । उच्च सदन के सदस्यों में 156 ब्रिटिश भारत और 104 देशी रियासतों में से लिये जाने थे । विटिश भारत के सदस्य निर्वाचित किये जाते थे । देशी रियासतों के सदस्यों के चयन का तरीका - वहाँ के नरेशों पर छोड़ दिया गया था । । निम्न सदन के 375 सदस्यों में 125 स्थान देशी रियासतों को दिये जाने थे । देशी राज्यों को उनकी जनसंख्या के अनुपात को देखते हुए अधिक स्थान मिले थे ।
उनकी जनसंख्या सम्पूर्ण भारत की जनसंख्या का 24 प्रतिशत थी , लेकिन उच्च सदन में 40 प्रतिशत और निम्न सदन में उन्हें 33 . 33 प्रतिशत स्थान प्राप्त हुए थे । ब्रिटिश प्रान्तों में केवल 14 , को ही मतदान का अधिकार था । । ( ii ) प्रान्त - प्रान्तीय विधानमण्डल के सदस्यों की संख्या लगभग दरानी कर दी गई । दो । । । प्रान्तों में से 6 विधानमण्डल द्वि - सदनात्मक कर दिये गये । संयुक्त प्रान्त की विधानसभा निम्न सदन ) के सदस्यों की अधिकतम संख्या 250 थी , जबकि उत्तर पश्चिम सीमा प्रान्त की विधानसभा के सदस्यों की संख्या सबसे कम 50 थी । ( ii ) मताधिकार - इस अधिनियम द्वारा मताधिकार का विस्तार किया गया था , परन्तु अभी जनसंख्या के 15 प्रतिशत को ही यह सुविधा प्राप्त हुई । | 9 , साम्प्रदायिक निर्वाचन प्रणाली का विस्तार साम्प्रदायिक निर्वाचन प्रणाली को न पल वाले रूप में कायम रखा गया बल्कि अनुसूचित जातियों के लिए भी इसे अपनाया मुसलमानों को केन्द्रीय विधानमण्डल में 33 . 33 प्रतिशत स्थान दिये गये , यद्यपि उनकी इस अनुपात में नहीं थी ।
साम्प्रदायिक निर्वाचन प्रणाली का अब मुसलमानो केअतिरिक्त सिक्खों , युरोपियनों हरिजनों पूंजीपतियों , जमींदारों और भारतीय ईसाइयों में भी । विस्तार किया गया । 1935 के अधिनियम की आलोचना | 1935 के ऐक्ट की भारत में कटु आलोचना की गई थी । पं . जवाहरलाल नेहरू ने कहा था , “ यह अधिकारों का चार्टर नहीं , दासता का चार्टर है । " पं . मदनमोहन मालवीय ने कहा था , बढ़ती हु नवीन संविधान हम पर थोपा गया है । ऊपर से यह कुछ जनतान्त्रिक नजर आता है , परन्तु भीतर से पूर्णतया खोखला है । इस ऐक्ट द्वारा प्रतिपादित संविधान को अनुदारवादी , प्रतिक्रियावादी , विस्तार । अप्रजातान्त्रिक , फूट डालने वाला आदि कहा गया ।
अधिनिय 1935 के अधिनियम की निम्नलिखित आधारों पर आलोचना की गई साम्राज्यव 1 . दोषपूर्ण संघीय व्यवस्था - इस अधिनियम के अन्तर्गत प्रस्तावित अखिल भारतीय संघ दोषपूर्ण था क्योंकि आत्म - निए ( G ) यह घटकों की इच्छा पर आधारित न होकर ऊपर से थोपा हुआ था । अधिकार ( ii ) देशी राज्यों के लिए संघ में सम्मिलित होना ऐच्छिक था जबकि ब्रिटिश प्रान्तों के की निर्णाय लिए इसमें सम्मिलित होना अनिवार्य था । ( iii ) घटकों की जनसंख्या , क्षेत्रफल , महत्त्व और दर्जे में बहुत अन्तर था । | एवं असफत ( iv ) ब्रिटिश प्रान्तों को स्वशासित संस्थाओं का अनुभव था . देशी रियासतें इनसे अनभिज्ञ थीं ।
( ५ ) ब्रिटिश प्रान्त संघ में निर्वाचित सदस्य भेजते थे , देशी रियासतों के सदस्यों का चयन वंहा के राजाओं पर छोड़ दिया गया था । लिया गया । 2 . गवर्नर जनरल और गवर्नरों की व्यापक शक्तियाँ इस अधिनियम ने गवर्नर जनरल और गवर्नरों को संवैधानिक अध्यक्ष नहीं बनाया । वे भारतीय विधानमण्डलों के प्रति नहीं , ब्रिटिश संसद के प्रति उत्तरदायी थे । गवर्नर जनरल संविधान को स्थगित कर सकता था और आन्दोलन के विधानमण्डल को भंग कर सकता था तथा साम्राज्यीय हितों की रक्षा के नाम पर समस्त शक्तियों अस् अपने हाथ में ले सकता था । अपने विशेष उत्तरदायित्वों , व्यक्तिगत निर्णयों , संरक्षण और उत्तरदायी घट आरणों के कारण वह निरंकुश और तानाशाह शासक के समान था । सर्वोच्च सत्ता गवर्नर । उत्त जनरल थी न कि संविधान । ।
विश्वयुद्ध के 3 , खाना प्रान्तीय स्वराज्य – 1935 के अधिनियम द्वारा प्रान्तों में स्वायत्तता प्रदान की । सहयोग करने गई थी और दोहरे शासन का अन्त कर दिया गया था , परन्तु गवर्नर जनरल और गवर्नरों का अभिभावी शक्तियों ने इस स्वायत्तता को खोखला बना दिया था । प्रान्तों को दी गई शक्तियों गवर्नर जनरल और गवर्नरों के विशेषाधिकारों से सीमित हो गई थी । दिया । रोलट | 4 , संरक्षण में आरक्षण से हानियों - इस अधिनियम द्वारा प्रदत्त संरक्षण एवं शार राष्ट्रीयता तथा प्रजातान्त्रिक विकास के मार्ग में बड़ी बाधा थे । अल्पसंयकों सेाओं और देशी रियासतों के हितों की रक्षा की आड़ में इस व्यवस्था को स्थापित करने का उद्देश्य भारत में १ हाला साम्राज्यवादी हे मजबूत करना था । |
5 . ब्रिटिश पद की वना - 1035 का अधरियम एक थोपा हुआ है । इका निर्माण विटिश सरकार ने किया था न कि भारतीयों ने । भारतीय उपमें न 5 का अधिनियम एक पोपा हुआ संविधान था । मीन नहीं कर सकते थे । भारत - सचिव की शक्तियों अभी भी बहुत पी । * भारतीयों ने । भारतीय उसमें कोई परिवर्तन या पद में उन दिया गया पर भारतीय भात जी को असह शासकों का है | गांध अहमदाबाद में असहयोग धनियम ' आत्म निर्णय के सिद्धान्त के प्रतिकूल था।6 . अस्थायी संविधान – इस अधिनियम द्वारा प्रदत्त संविधान अस्थायी था और उसमें वे सब दोष विद्यमान थे , जो अस्थायी संविधानों में होते हैं ।
इसमें भारत के राजनीतिक विकास के लिए कोई कार्यक्रम न था । इस संविधान ने मुसलमानों और देशी रियासतों की दिन - प्रतिदिन बढ़ती हुई माँगों को प्रोत्साहन दिया । 7 . साम्प्रदायिकता को प्रोत्साहन - इसे अधिनियम ने साम्प्रदायिक निर्वाचन प्रणाली का विस्तार कर भारत की राष्ट्रीय एकता को बहुत हानि पहुंचाई । मुसलमानों को यद्यपि इस अधिनियम द्वारा बहुत लाभ पहुंचा था , फिर भी वे सन्तुष्ट नहीं हुए क्योंकि उन्हें पता था कि साम्राज्यवादियों से वे और अधिक लाभ प्राप्त कर सकते हैं । 8 . आत्म - निर्णय के अधिकार का अभाव - 1935 के अधिनियम में भारतीयों को आत्म - निर्णय का अधिकार नहीं दिया गया । उन्हें अपने लिए एक स्वतन्त्र संविधान बनाने का अधिकार नहीं था । यह अधिनियम ब्रिटिश संसद ने बनाया था और भारत की भविष्य की प्रगति की निर्णायक भी ब्रिटिश संसद ही थी ।
योजना दिखाई गई । इसी 1935 के अधिनियम के द्वारा भारतीय संघ की स्थापना की गई तथा प्रान्तों को स्वायत्तता प्रदान की गई । इस अधिनियम को अगस्त , 1935 ई . में ब्रिटिश संसद द्वारा पारित किया गया । इसमें 451 . अनुच्छेद तथा 15 परिशिष्ट थे । । 1935 के अधिनियम की विशेषताएँ । प्रस्तावमा रहित संविधान – 1935 के अधिनियम के सम्बन्ध में कोई नई भूमिका या प्रस्तावना नहीं रखी गई । 191 ) के अधिनियम की भूमिका को 1 ) 35 के अधिनियम की भूमिका बना देने से स्पष्ट था कि विटिश शासक 1935 से अधिनियम द्वारा उत्तरदायी सरकार की धीरे - धीरे स्थापना की नीति को दुहरा रहे थे । 1935 से अधिनियम ने 1919 से अधिनियम की । प्रस्तावना में केवल इतना परिवर्तन किया था कि इसमें विटिश प्रान्तों के साथ देशी राज्यों को भी सम्मिलित कर लिया गया था ।
2 . अखिल भारतीय संघ की स्थापना 1935 के अधिनियम के अन्तर्गत यह निर्णय लिया गया कि केन्द्र में ब्रिटिश प्रान्तों और देशी रियासतों को मिलाकर एक अखिल भारतीय संघकी स्थापना की जाये । यह संघ 11 ब्रिटिश प्रान्त , चीफ कमिश्नर प्रान्तों और देशी रियासतों से मिलकर बनना धा । इस अधिनियम के अनुसार प्रतों के लिए संघ में शामिल होना अनिवार्य था . परन्तु देशी राज्यों के लिए ऐच्छिक था । यह प्रावधान रखा गया कि प्रत्येक देशी रियासत को , जो संघ में शामिल होना चाहती थी , एक प्रवेश लेख या स्वीकृति लेख पर हस्ताक्षर करने होंगे । स्वीकृति - लेख में उन शतों का उल्लेख होना था , जिन पर वह संघ में शामिल होने के लिए तैयार थी । इस स्वीकृति - पत्र में उन सब शक्तियों का उल्लेख होना था ,
जो रियासत संघ को समर्पित करना चाहती थी । संघ की इकाइयों को अपने आन्तरिक मामलों में पूर्ण अधिकार प्राप्त था । संघ और उसकी इकाइयों के मतभेदों का या झगड़ों का फैसला करने के लिए एक संघीय न्यायालय की स्थापना की गई । इसी अधिनियम के अनुसार एक संघीय कार्यकारिणी तथा व्यवस्थापिका की स्थापना की गई थी । 3 . केन्द्र में दोहरा शासन - इस अधिनियम ने प्रान्तों में दोहरे शासन का अन्त कर दिया , परन्तु यह केन्द्र में लागू कर दिया गया ।
संघीय विषयों को दो भागों में बाँटा गया — सुरक्षित एवं हस्तान्तरित । सुरक्षित विषयों में प्रतिरक्षा , चर्च सम्बन्धी मामले , विदेश विभाग , कबीलों सम्बन्धी मामले आदि थे । उनका शासन गवर्नर जनरल अपनी इच्छा से चला सकता था । सुरक्षित विषयों के शासन में अपनी सहायता के लिए गवर्नर - जनरल कुछ सभासद नियुक्त कर सकता था , जिनकी संख्या 3 से अधिक नहीं हो सकती थी । | हस्तान्तरित विषयों को मन्त्रियों के हाथों में रखा गया था , जिनकी संख्या 10 से अधिक नहीं हो सकती थी ।
मन्त्री विधानमण्डल में बहुमत प्राप्त दल के सदस्य होते थे तथा उसके प्रति उत्तरदायी थे । अधिनियम में यह आशा प्रकट की गई थी कि गवर्नर जनरल देशी रियासतों तथा अल्पसंख्यकों को मन्त्रिमण्डल में उचित प्रतिनिधित्व दिलाने का प्रयत्न करेंगे । इस क्षेत्र में भी विर्नर जनरल को विशेषाधिकार प्राप्त थे । 4 . विषयों का बँटवारा - 1935 के ऐक्ट के अन्तर्गत विषयों का बँटवारा निम्नलिखित प्रकार से किया गया और यही द्वैध - प्रणाल अन्त हो ग मण्डल में उत्तरदायी है था ।
8 . विधानमण्डः ( i ) सदन के सद थी । उच्च को ब्रिटिश भारत वहाँ के नरेश | निम्न को उनकी जन भारत की जन ( 1 ) संघीय सूची – इस सूची में अखिल भारतीय हित के 5७ विषय रखे गये . जैसे संश । • पेनाएं , मुद्रा एवं नोट , रेल , डाक व तार , केन्द्रीय सेवाएँ , विदेशी मामले में संचार , बीमा , बैंक । आदि । संघीय सूची के विषयों पर केवल केन्द्रीय व्यवस्थापिका ही कानून बना सकती थी । ( ii ) प्रान्तों की सूची – इस सूची में प्रान्तीय हित के 54 विषय रखे गये , जैसे शि६ भू - राजस्व , स्थानीय स्वशासन , कानून व व्यवस्था , सार्वजनिक स्वास्थ्य , कृषि , सिंचाई , नहरे , खान जंगल , प्रान्त के अन्दर व्यापार व उद्योग - धन्धे आदि । प्रान्तीय सूची के विषयों पर केवल व्यवस्थापिका ही कानून बना सकती थी ।
( ii ) समवर्ती सूची – इस सूची में 30 विषय रखे गये थे जिन पर संघीय एवं दानी विधानमण्डल कानून बना सकते थे । इस सूची के प्रमुख विषय घे दीवानी तथा कानून , विवाह , तलाक , कारखाने , श्रम कल्याण आदि । केन्द्रीय और प्रान्तीय व मतभेद हो जाने पर केन्द्रीय विधानमण्डल का ही कानुन मान्य समझा जाता । व्यवस्था की गई कि गवर्नर जनरल अपनी इच्छा से केन्द्रीय विम * शक्तियां - अवशिष्ट शक्तियों के अनियमित होने के सम्बन विधानमण्डल को इन विषयों पर कानून बनाने का अधिकार दे ।5 . रक्षा कवच तथा संरक्षण - 135 के अधिनियम में अनेक संरक्षण तथा आरक्षणा की । व्यवस्था थी , जैसे कि साम्राज्यीय ब्रिटिश सेवाओं , अल्पसंख्यकों देशी रियासतों आदि के हित । । इनके सम्बन्ध में गवर्नर जनरल और गवर्नर्स को विशेष उत्तरदायित्व सौपे गये थे जिनके लिए उन्हें विशेष शक्तियों तथा मन्त्रियों के विरुद्ध स्वविवेक से कार्य की शक्ति दी गई थी ।
6 , संघीय न्यायालय - इस ऐक्ट के अन्तर्गत केन्द्र और इकाइयों के आपसी झगड़े निपटाने के लिए एक संघीय न्यायालय की स्थापना की गई । इस न्यायालय को 1935 के अधिनियम की व्याख्या करने का भी अधिकार दिया गया । संघीय न्यायालय भारत सरकार की । उच्चतम न्यायालय नहीं था । कुछ विशेष परिस्थितियों में प्रिवी कौन्सिल में भी अपील की जा सकती थी । 7 . प्रान्तीय स्वायत्तता – प्रान्तीय स्वायत्तता 1935 के अधिनियम की मुख्य विशेषता थी । और यही इस अधिनियम का भाग था जो लागू किया गया था ।
अधिनियम ने प्रान्तों में वैध - प्रणाली को समाप्त कर दिया , जिससे प्रान्तों में सुरक्षित व हस्तान्तरित विषयों के भेद का अन्त हो गया । | अब प्रान्तों के सभी विभागों पर मन्त्रियों का पूर्ण नियन्त्रण हो गया । ये मन्त्री विधान मण्डल में बहुमत प्राप्त दल के सदस्य होते थे और विधानमण्डल के प्रति संयुक्त रूप से उत्तरदायी होते थे । प्रान्त अब केन्द्र के अभिकरण मात्र नहीं रहे , उनका अपना संवैधानिक क्षेत्र था । । 8 . विधानमण्डलो तथा मताधिकार का विस्तार इस अधिनियम के अन्तर्गत विधानमण्डलों और मताधिकार का विस्तार निम्नलिखित प्रकार से किया गया | ( i ) केन्द्र केन्द्र में द्वि - सदनात्मक व्यवस्थापिका की व्यवस्था की गई ।
केन्द्र के उच्च सदन के सदस्यों की संख्या 260 और निम्न सदन के सदस्यों की संख्या 375 निश्चित की गई । थी । उच्च सदन के सदस्यों में 156 ब्रिटिश भारत और 104 देशी रियासतों में से लिये जाने थे । विटिश भारत के सदस्य निर्वाचित किये जाते थे । देशी रियासतों के सदस्यों के चयन का तरीका - वहाँ के नरेशों पर छोड़ दिया गया था । । निम्न सदन के 375 सदस्यों में 125 स्थान देशी रियासतों को दिये जाने थे । देशी राज्यों को उनकी जनसंख्या के अनुपात को देखते हुए अधिक स्थान मिले थे ।
उनकी जनसंख्या सम्पूर्ण भारत की जनसंख्या का 24 प्रतिशत थी , लेकिन उच्च सदन में 40 प्रतिशत और निम्न सदन में उन्हें 33 . 33 प्रतिशत स्थान प्राप्त हुए थे । ब्रिटिश प्रान्तों में केवल 14 , को ही मतदान का अधिकार था । । ( ii ) प्रान्त - प्रान्तीय विधानमण्डल के सदस्यों की संख्या लगभग दरानी कर दी गई । दो । । । प्रान्तों में से 6 विधानमण्डल द्वि - सदनात्मक कर दिये गये । संयुक्त प्रान्त की विधानसभा निम्न सदन ) के सदस्यों की अधिकतम संख्या 250 थी , जबकि उत्तर पश्चिम सीमा प्रान्त की विधानसभा के सदस्यों की संख्या सबसे कम 50 थी । ( ii ) मताधिकार - इस अधिनियम द्वारा मताधिकार का विस्तार किया गया था , परन्तु अभी जनसंख्या के 15 प्रतिशत को ही यह सुविधा प्राप्त हुई । | 9 , साम्प्रदायिक निर्वाचन प्रणाली का विस्तार साम्प्रदायिक निर्वाचन प्रणाली को न पल वाले रूप में कायम रखा गया बल्कि अनुसूचित जातियों के लिए भी इसे अपनाया मुसलमानों को केन्द्रीय विधानमण्डल में 33 . 33 प्रतिशत स्थान दिये गये , यद्यपि उनकी इस अनुपात में नहीं थी ।
साम्प्रदायिक निर्वाचन प्रणाली का अब मुसलमानो केअतिरिक्त सिक्खों , युरोपियनों हरिजनों पूंजीपतियों , जमींदारों और भारतीय ईसाइयों में भी । विस्तार किया गया । 1935 के अधिनियम की आलोचना | 1935 के ऐक्ट की भारत में कटु आलोचना की गई थी । पं . जवाहरलाल नेहरू ने कहा था , “ यह अधिकारों का चार्टर नहीं , दासता का चार्टर है । " पं . मदनमोहन मालवीय ने कहा था , बढ़ती हु नवीन संविधान हम पर थोपा गया है । ऊपर से यह कुछ जनतान्त्रिक नजर आता है , परन्तु भीतर से पूर्णतया खोखला है । इस ऐक्ट द्वारा प्रतिपादित संविधान को अनुदारवादी , प्रतिक्रियावादी , विस्तार । अप्रजातान्त्रिक , फूट डालने वाला आदि कहा गया ।
अधिनिय 1935 के अधिनियम की निम्नलिखित आधारों पर आलोचना की गई साम्राज्यव 1 . दोषपूर्ण संघीय व्यवस्था - इस अधिनियम के अन्तर्गत प्रस्तावित अखिल भारतीय संघ दोषपूर्ण था क्योंकि आत्म - निए ( G ) यह घटकों की इच्छा पर आधारित न होकर ऊपर से थोपा हुआ था । अधिकार ( ii ) देशी राज्यों के लिए संघ में सम्मिलित होना ऐच्छिक था जबकि ब्रिटिश प्रान्तों के की निर्णाय लिए इसमें सम्मिलित होना अनिवार्य था । ( iii ) घटकों की जनसंख्या , क्षेत्रफल , महत्त्व और दर्जे में बहुत अन्तर था । | एवं असफत ( iv ) ब्रिटिश प्रान्तों को स्वशासित संस्थाओं का अनुभव था . देशी रियासतें इनसे अनभिज्ञ थीं ।
( ५ ) ब्रिटिश प्रान्त संघ में निर्वाचित सदस्य भेजते थे , देशी रियासतों के सदस्यों का चयन वंहा के राजाओं पर छोड़ दिया गया था । लिया गया । 2 . गवर्नर जनरल और गवर्नरों की व्यापक शक्तियाँ इस अधिनियम ने गवर्नर जनरल और गवर्नरों को संवैधानिक अध्यक्ष नहीं बनाया । वे भारतीय विधानमण्डलों के प्रति नहीं , ब्रिटिश संसद के प्रति उत्तरदायी थे । गवर्नर जनरल संविधान को स्थगित कर सकता था और आन्दोलन के विधानमण्डल को भंग कर सकता था तथा साम्राज्यीय हितों की रक्षा के नाम पर समस्त शक्तियों अस् अपने हाथ में ले सकता था । अपने विशेष उत्तरदायित्वों , व्यक्तिगत निर्णयों , संरक्षण और उत्तरदायी घट आरणों के कारण वह निरंकुश और तानाशाह शासक के समान था । सर्वोच्च सत्ता गवर्नर । उत्त जनरल थी न कि संविधान । ।
विश्वयुद्ध के 3 , खाना प्रान्तीय स्वराज्य – 1935 के अधिनियम द्वारा प्रान्तों में स्वायत्तता प्रदान की । सहयोग करने गई थी और दोहरे शासन का अन्त कर दिया गया था , परन्तु गवर्नर जनरल और गवर्नरों का अभिभावी शक्तियों ने इस स्वायत्तता को खोखला बना दिया था । प्रान्तों को दी गई शक्तियों गवर्नर जनरल और गवर्नरों के विशेषाधिकारों से सीमित हो गई थी । दिया । रोलट | 4 , संरक्षण में आरक्षण से हानियों - इस अधिनियम द्वारा प्रदत्त संरक्षण एवं शार राष्ट्रीयता तथा प्रजातान्त्रिक विकास के मार्ग में बड़ी बाधा थे । अल्पसंयकों सेाओं और देशी रियासतों के हितों की रक्षा की आड़ में इस व्यवस्था को स्थापित करने का उद्देश्य भारत में १ हाला साम्राज्यवादी हे मजबूत करना था । |
5 . ब्रिटिश पद की वना - 1035 का अधरियम एक थोपा हुआ है । इका निर्माण विटिश सरकार ने किया था न कि भारतीयों ने । भारतीय उपमें न 5 का अधिनियम एक पोपा हुआ संविधान था । मीन नहीं कर सकते थे । भारत - सचिव की शक्तियों अभी भी बहुत पी । * भारतीयों ने । भारतीय उसमें कोई परिवर्तन या पद में उन दिया गया पर भारतीय भात जी को असह शासकों का है | गांध अहमदाबाद में असहयोग धनियम ' आत्म निर्णय के सिद्धान्त के प्रतिकूल था।6 . अस्थायी संविधान – इस अधिनियम द्वारा प्रदत्त संविधान अस्थायी था और उसमें वे सब दोष विद्यमान थे , जो अस्थायी संविधानों में होते हैं ।
इसमें भारत के राजनीतिक विकास के लिए कोई कार्यक्रम न था । इस संविधान ने मुसलमानों और देशी रियासतों की दिन - प्रतिदिन बढ़ती हुई माँगों को प्रोत्साहन दिया । 7 . साम्प्रदायिकता को प्रोत्साहन - इसे अधिनियम ने साम्प्रदायिक निर्वाचन प्रणाली का विस्तार कर भारत की राष्ट्रीय एकता को बहुत हानि पहुंचाई । मुसलमानों को यद्यपि इस अधिनियम द्वारा बहुत लाभ पहुंचा था , फिर भी वे सन्तुष्ट नहीं हुए क्योंकि उन्हें पता था कि साम्राज्यवादियों से वे और अधिक लाभ प्राप्त कर सकते हैं । 8 . आत्म - निर्णय के अधिकार का अभाव - 1935 के अधिनियम में भारतीयों को आत्म - निर्णय का अधिकार नहीं दिया गया । उन्हें अपने लिए एक स्वतन्त्र संविधान बनाने का अधिकार नहीं था । यह अधिनियम ब्रिटिश संसद ने बनाया था और भारत की भविष्य की प्रगति की निर्णायक भी ब्रिटिश संसद ही थी ।
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