Sunday, June 30, 2019

उदारवादियो की विचारधारा

भारत में उदारवाद का विकास 19 वीं शताब्दी के उत्तराई में हुआ । धीरे - धीरे भारत में राजनीतिक चेतना का विकास हुआ और 1885 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना हुई । 1885 से 1905 तक कांग्रेस परतदारयादियों काप्रभुत्व र । उदारवादी नेताओं में महादेव गोविन्द रानाडे , दादाभाई नौरोजी , फीरोजशारा मेहता , गुरेन्द्रनाथ बनर्जी , गोपालकृण गोखले तथा श्रीनिवास शास्त्री आदि प्रमुख थे । उदारवादी नेता प्रखर देशभक्त थे परना अपने समय की टाओं और सामाजिव पृष्ठभूमि से आबद्ध थे । ये लोग उच्च वर्ग से सम्बन्धित थे तथा पाश्चात्य शिक्षा एवं पिटिश उदारवादियों से अत्यन्त प्रभावित थे ।

 उदारवादियों का विचार या फि टि सम्पर्क से भारत को बहुत लाभ हुआ है उसे राजनीतिक एकता और राष्ट्रीय चेतना प्राप्त हुई है । वे त्रिटिश शासन की इस देन के कि उसने भारत के सामाजिक जीवन को पाश्चात्य ज्ञान और सभ्यता से अवगत करा लोकतन्त्र एवं स्वतन्त्रता की भावनाओं को जागृत किया । ये लोग अंग्रेजों की न्यायप्रियता में पूर्ण विश्वास रखते थे तथा निर्देशों और सुधारों के लिए ब्रिटिश सरकार का मुंह देखा करते थे । उदारवादियों को राजनीतिक विरोध के प्रति संयत दृष्टिकोण था ।

 वे ब्रिटिश सरकार के प्रति राजभक्ति रखते हुए राजनीतिक एवं प्रशासनिक क्षेत्र में धीरे - धीरे सुधार लाना चाहते थे । वे क्रमिक सुधार नीति में विश्वास करते थे । इसलिए उनके द्वारा व्यावहारिक दृष्टिकोण अपनाते हुए । बहुत ऊंची मांगे नहीं की गई । उदारवादियों की विचारधारा और कार्य पद्धति 1885 - 1905 के काल में भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन पर उदारवादियों का प्रभाव और नियन्त्रण बना रहा । उनकी विचारधारा और कार्य पद्धति का अध्ययन निम्नलिखित रूपों में किया थी ।

 कास । यात 3 = ( 1 ) ब्रिटिश सरकार के प्रति राज - भक्ति - यद्यपि उदारवादी नेता प्रखर देशभक्त थे । सन्तु अपनी देशभक्ति के बावजूद वे विटिश शासन के पूर्ण समर्थक थे । ब्रिटिश राज्यों के इमारों के प्रति उनके हृदय में कृतज्ञता का भाव था और वे विटिश साम्राज्य के प्रति राज - भक्ति = | ( 2 ) अंग्रेजों की न्यायप्रियता में विश्वास – उदारवादी नेताओं को अंग्रेजों की न्यायप्रियता अरट विश्वास था और वास्तव में इस विश्वास ने ही उनमें राज - भक्ति की भावना को जन्म था । डॉ . पट्टाभि सीतारमैया के मतानुसार , “ उदारवादी नेता इस बात पर विश्वास करते थे ।न कि अंग्रेज स्वभाव से न्यायप्रिय होते हैं तथा यदि उन्हें भारतीय दृष्टिकोण का सही ज्ञान करा दिया गया , तो वे इसे स्वीकार कर लेंगे । "

 | ( 3 ) संवैधानिक साधनों में विश्वास - उदारवादी हिंसा और संघर्ष के विरोधी थे तथा वे संवैधानिक साधनों में विश्वास करते थे । अतः वे प्रार्थना - पत्रों स्मृति पत्रों और प्रतिनिधि मण्डलों के द्वारा अपनी मांगों को सरकार के समक्ष रखते थे । वे ऐसा कोई कार्य नहीं करना चाहते थे जिसमें शक्ति प्रदर्शन हो या विद्रोह हो या बाह्य आक्रमण को सहायता या प्रोत्साहन दिया जाता हो या कानूनों का उल्लंघन कर अपराध की प्रवृत्ति को बढ़ावा मिलता हो । इस प्रकार वे हिंसात्मक एवं क्रान्तिकारी साधनों से घृणा करते थे और राजनीतिक सुधारों के लिए संवैधानिक उपायों से सरकार पर सतत् दबाव डालते थे ।

उदारवादियों को यह विश्वास था कि वे अंग्रेजों पर नैतिक दबाव डाल कर उन्हें अपनी मांगों के औचित्य के प्रति विश्वस्त कर अपने उद्देश्यों को । प्राप्त कर लेंगे । | ( 4 ) ब्रिटेन के साथ स्थायी सम्बन्ध बनाये रखने में विश्वास – उदारवादियों की यह निश्चित धारणा बन चुकी थी कि भारत का कल्याण अंग्रेजों के साथ सम्बन्ध बनाये रखने में निहित है । वे ब्रिटिश सभ्यता में पले होने के कारण पाश्चात्य विज्ञान एवं संस्कृति के प्रति आसक्त थे । उनका विचार था कि ब्रिटिश शासन ने अंग्रेजी साहित्य , शिक्षा पद्धति , यातायात और संचार की व्यवस्था , न्याय व्यवस्था और स्थानीय स्वायत्त शासन के रूप में हमें एक प्रगतिशील सभ्यता प्रदान की है और ब्रिटिश शासन ही आन्तरिक अशान्ति और बाहरी आक्रमण से भारत की रक्षा करने में समर्थ है ।

 ( 5 ) धीरे - धीरे परिवर्तन लाने में विश्वास - उदारवादी नेता भारत में क्रांतिकारी परिवर्तन के समर्थक नहीं थे । वे सुधारवादी थे और राजनीतिक क्षेत्र में क्रमबद्ध विकास की धारणा में विश्वास करते थे । वे इस तथ्य से परिचित थे कि प्रतिनिधि सरकार को वे तत्काल प्राप्त नहीं कर सकते । तात्कालिक रूप में वे प्रशासन में आवश्यक सुधारों , विधायी परिषदों , सेवाओं , स्थानीय स्वायत्त संस्थाओं और रक्षा सेवाओं में सुधार से ही सन्तुष्ट थे और वे क्रान्तिकारी परिवर्तन के विरुद्ध थे ।

 | ( 6 ) राजनीतिक स्वशासन की प्राप्ति - उदारवादी ब्रिटिश शासन के अन्तर्गत स्वशासन की स्थापना चाहते थे । सुरेन्द्रनाथ बनर्जी के अनुसार , " स्वराज्य प्रकृति की अवस्था है . विधि का विधान है प्रकृति ने अपनी पुस्तक में स्वयं अपने हाथों से यह सबसे ऊंची व्यवस्था लिख रखी । प्रत्येक राष्ट्र अपने भाग्य का आप ही निर्माता होना चाहिए । " उदारवादी प्रजातन्त्र स्वशासन p4 संसदीय संस्थाओं के प्रशंसक थे और वैसी ही संस्थाएं भारत में चाहते थे परन्त वे ब्रिटिश शासन के अन्तर्गत ही स्वशासन चाहते थे । ( 7 ) प्रशासनिक सुधार - ब्रिटिश शासन में पूर्ण आस्था रखते हुए भी उदारवादियों ने प्रशासनिक और वैधानिक सुधारों पर बल दिया ।

 उन्होंने सरकार के शोषणकारी और दमनात्मक कार्यों की निन्दा की और भारतवासियों की उचित शिकायतों को दूर किये जाने पर जोर दिया । उदारवादियों ने प्रशासनिक सेवाओं के भारतीयकरण पर बल दिया । उदारवादी नेताओं ने भारतीय जनता की आकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व करते हुए सरकार के समक्ष निम्नलिखित मागे । रखीं | ( i ) सार्वजनिक सेवाओं में भारतीयों को अधिक संख्या में लिया जाये तथा प्रतियोगिता परीक्षाएँ भारत और इंग्लैण्ड में एक साथ आयोजित की जाएँ और भारतीयों के लिए इसकी अधिकतम आयु - सीमा बढ़ा दी जाए ।( ii ) व्यवस्थापिकाओं में निर्वाचिन की पद्धति अपनाई जाये तथा सदस्यों को प्रश्न पूछने । का , पूरक प्रश्न पूछने का प्रस्ताव पास करने का तथा बहुमत से बजट पारित करने के अधिकारों । की मांग की गई ।

 ( ii ) भारत - सचिव की परिषद को समाप्त किया जाये तथा केन्द्र व प्रान्तों में कार्यपालिका परिषद में भारतीयों की नियुक्ति की जाये । ( iv ) भारत के सनिक व्यय में कमी की जाये । ( v ) न्यायपालिका को कार्यपालिका से पृथक किया जाये । । ( vi ) सन् 1892 ई . में कांग्रेस ने लगान को स्थायी और निश्चित करने की मांग की । ( vii ) कृषि - बैक एवं अकाल - बीमा फण्ड स्थापित किये जाएँ , स्थानीय एवं गृह उद्योगों का विकास किया जाये एवं भारतीयों की आर्थिक अवस्था की जांच कराई जाये । । ( ii ) जंगलात कानूनों को उदार बनाया जाये । । ( ix ) स्थानीय संस्थाओं को अधिक शक्तियां प्रदान की जाएं तथा उन पर नियन्त्रण में कमी की जाये । ( x ) नमक पर कर कम किया जाये । ।

 ( i ) विदेशों में रहने वाले भारतीयों के हितों को सुरक्षा प्रदान की जाये । ( xii ) प्रेस पर नियन्त्रण कम कर उन्हें अधिक स्वतन्त्रता दी जाये । ( iii ) भारतीय शासन की जांच के लिए समय समय पर संसदीय कमीशन की नियुक्ति की जाए । ५ ) आर्थिक शोषण की नीति की निन्दा - अंग्रेजी शासन की उदारवादिता एवं न्यायप्रियता में आस्था रखते हुए भी उदारवादियों ने उनकी आर्थिक शोषण की नीति की । आलोचना की । उन्होंने देश में फैली हुई गरीबी , भुखमरी और बेकारी के लिए अंग्रेजों की आर्थिक शोषण नीति को उत्तरदायी ठहराया । दादाभाई नौरोजी ने धन निष्कासन सिद्धान्त का प्रतिपादन करते हुए कहा था कि भारत की निर्धनता के लिए विटिश शासन की शोषण नीति ही उत्तरदायी है ।

 " उदारवादियों ने सरकार की कराधान प्रणाली की निन्दा की । उनका यह भी कहना था कि अंग्रेजों की गलत नीति के कारण भारत के उद्योग - धन्धे और व्यापार नष्ट हो गये हैं । उदारवादियों की दुर्बलताएँ । उदारवादी विचारधारा में अनेक कमजोरियाँ थीं जिनके कारण वह अपने उद्देश्यों को । प्राप्त करने में असफल रही । उदारवादियों की दुर्बलताओं का वर्णन निम्न रूप से किया जा री परिवर्तन 1 धारणा में त नहीं कर नों , स्थानीय परिवर्तन के न स्वशासन विधि का लिख रखी , स्वशासन ब्रिटिश सकता है रवादियों ने दमनात्मक जोर दिया । नेताओं ने । नखित मांगें ( 1 ) ब्रिटिश साम्राज्य सम्वन्धी दृष्टिकोण की मिथ्यापर्ण धारणा – उदारवादियों का पिटिश साम्राज्यवाद सम्बन्धी दृष्टिकोण मिथ्यपूर्ण एवं हास्यास्पद था । उनका यह विश्वास था कि विटिश साम्राज्य भारत के हित में है तथा अंग्रेजों का उद्देश्य भारतीयों का कल्याण करना है ।

 न वास्तविकता यह थी कि अंग्रेजों ने साम्राज्य हितों को ही प्राथमिकता दी और भारत का थिक शोषण कर अपने देश को मालामाल बनाया । अपने स्वयं के स्वार्थों के कारण किन्ही मत क्षेत्रों में ब्रिटेन के द्वारा भारत को भले ही भौतिक प्रगति प्रदान की गई हो , परन्तु सामूहिक नेता बिटिश शासन भारत के चतुर्मुखी विनाश का ही कारण था । अंग्रेजों की न्यायप्रियता में में विश्वास निर्मूल था । जैसे कि बाद की घटनाओं ने सिद्ध किया कि साम्राज्यवादी और न्याय के स्थान पर शक्ति और दवाव की भाषा ही समझते थे ।

( 2 ) संवैधानिक साधनों की प्रभावहीनता – उदारवादियों ने अपने उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए जिन संवैधानिक साधनों का प्रयोग किया , ब्रिटिश साम्राज्यवादियों पर उनका कोई प्रभाव नहीं पड़ा । सन् 1918 तक उनकी अनेक प्रार्थनाओं और याचनाओं के बावजूद भी अंग्रेजों ने उनकी नितान्त उचित एवं वैध मांगों को मानने से इन्कार कर दिया था । ब्रिटिश सरकार ने उदारवादी नेताओं के साथ उपेक्षापूर्ण व्यवहार किया और उनकी दुर्बलता को भांपते हुए उनकी प्रमुख मांगों पर कोई विशेष ध्यान नहीं दिया ।

 उदारवादी यह नहीं समझ सके कि विदेशी शासन से , जो पशु - शक्ति पर आधारित है , अधिकारों की प्राप्ति केवल संवैधानिक साधनों द्वारा नहीं हो सकती । उनके लिए संघर्ष का रास्ता भी ग्रहण करना पड़ता है । इसी कारण उग्रवादियों ने उदारवादियों की राजनीतिक भिक्षावृत्ति ' कह कर निन्दा की । | ( 3 ) उदारवादियों में आत्म - त्याग की भावना का अभाव – उदारवादियों की इसलिए भी आलोचना की जाती है कि उन्होंने न तो व्यक्तिगत त्याग किये और न ही निजी कष्ट उठाये । । लाला लाजपत राय का कथन है कि " उदारवादी आन्दोलन लंगडा और निरुत्साही राजनैतिक आन्दोलन था ।

 यह रियासतों और स्वतन्त्रता की मांग तो करता था परन्तु यह बलिदान पर आधारित नहीं था । " | ( 4 ) उदारवादियों का आन्दोलन जनआन्दोलन न बन सका - अधिकांश उदारवादी नेता उच्च वर्ग से सम्बन्धित थे । उनका साधारण जनता से कोई सम्पर्क नहीं था । इसी कारण उनका आन्दोलन शिक्षित - वर्ग तक ही सीमित रहा । उदारवादी अपनी मांगों के प्रति जन - साधारण की । सहानुभूति अर्जित करने में असफल रहे । । उदारवादियों की सफलताएँ । यद्यपि उदारवादी आंदोलन में अनेक कमजोरियों थीं परन्तु उनकी सफलताओं की उपेक्षा नहीं की जा सकती ।

तत्कालीन परिस्थितियों को दृष्टिगत रखते हुए यह कहना पड़ेगा कि उदारवादियों द्वारा अपनाया गया मार्ग नितान्त औचित्यपूर्ण और व्यावहारिक था । यदि प्रारम्भ से ही ' पूर्ण स्वराज्य ' की मांग की जाती और इसके लिए हिंसात्मक साधन अपनाये जाते तो कांग्रेस के अस्तित्व को ही खतरा उत्पन्न हो जाता । अतः इससे पहले संसदीय प्रजातन्त्र के लिए आवश्यक नैतिक और राजनैतिक मूल्यों के विकास में जो उन्होंने योगदान दिया है . वह अपने आप में अत्यन्त महत्वपूर्ण है ।

अतः तत्कालीन परिस्थितियों में उनके द्वारा अपनाया गया मार्ग नितान्त स्वाभाविक और विवेकपूर्ण था । वे पक्के देशभक्त थे , उनमें राष्ट्र के निर्माण की । अभिलाषा थी और उन्होंने प्रारम्भिक काल में राष्ट्र की अमूल्य सेवाएं कीं । उदारवादियों की सफलताओं को निम्न बिन्दुओं में व्यक्त किया जा सकता है | ( 1 ) ब्रिटिश शासन के दोष स्पष्ट करना – उदारवादियों ने प्रारम्भ से ही ब्रिटिश शासन की बुराइयों से देशवासियों को अवगत कराना शुरु कर दिया था । नौकरशाही की बुराइयों बताने । के क्रम में उन्होंने विदेशी शासन के दोष स्पष्ट कर दिये । उन्होंने ब्रिटिश साम्राज्यवाद के - वास्तविक स्वरूप को जनता के सामने रखा और सरकार के दमनारमक एवं शोषणकारी कार्यों की निन्दा की ।

इस प्रकार कांग्रेस उदारवादियों के नेतत्व में एक प्रकार से सरकार का विरोधी पक्ष बन गई थी । ( 2 ) भारतीय राष्ट्रीयता के जनक - भारत में राष्ट्रीयता के अनक ये उदारवादी नेता ही थे । उन्होंने देशवासियों को शिक्षा दी कि वे साम्प्रदायिक और प्रान्तीय धरातल से उसर उठकर सामान्य राष्ट्रीयता की भावना को अपने हृदय में विकसित करें । उदारवादियों ने देश की सामाजिक , आर्थिक एवं राजनीतिक समस्याओं को एकता के सूत्र में गूंथने का प्रयास किया ।( 3 ) भारतीयों को राजनीतिक शिक्षा प्रदान करना - राष्ट्रीय आन्दोलन को उदारवादियों की एक प्रमुख देन यह है कि उन्होंने भारतीय जनता को राजनीतिक शिक्षा प्रदान की और उनमें प्रजातन्त्र तथा स्वतन्त्रता के आदर्शों को प्रसारित किया ।

उन्होंने सभी महत्त्वपूर्ण प्रश्नों पर विचार - विमर्श के लिए एक संगठन प्रदान किया और इस प्रकार शासन से सम्बद्ध प्रमुख प्रश्नों पर प्रबल जनमत का निर्माण किया । उन्होंने भारतीय जनता को व्यक्तिगत स्वाधीनता , प्रतिनिध्यात्मक संस्थाओं की स्थापना , आर्थिक और सामाजिक सुधार और अन्त में स्वशासन की मांग करने के लिए प्रेरित किया । जनमत को प्रभावित करने और भारतीयों को राष्ट्रीय जीवन की ओर आकर्षित करने की दिशा में उनके योगदान की उपेक्षा नहीं की जा सकती । । | ( 4 ) भारतीय स्वतन्त्रता - संग्राम का आधार तैयार करना – यद्यपि उदारवादियों के द्वारा स्वयं गम्भीरतापूर्वक स्वतन्त्रता की मांग या इस हेतु कोई आंदोलन नहीं किया गया , परन्तु उन्होंने एक पृष्ठभूमि तैयार की जिसके आधार पर ही भविष्य में स्वतन्त्रता हेतु विभिन्न आंदोलन किये गये ।

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