सामाजिक परिवर्तन एवं कुप्रथाओ का अंत
ब्रिटिश काल में परिवर्तन I , सामाजिक परिवर्तन एवं कुप्रथाओं का अन्त अम पर आधारित जाति - प्रथा के कारण राजस्थान के रामाजिक जीवन में है । इन कप में सत - प्रा , कन्या पकन 3 के अलावा अनेक प्रार र विवरण त है । इनमें से कुछ प्रथा और कया जायचे को पर्म से जोड़ इया गया कि उन प र * द । ब्रिटिश सरकार द्वारा राज्य के राजनीतिक , प्रशासनिक एवं आर्थिक दौर्य में किये गये परिवर्तनों में समाजिक में अत्यधिक महय प्राप्त और सामाजिक जीवन में परिवर्तन का मार्ग प्रशस्त कर दिया ।
इसके अति तयप भी राजपूत शरिको ने कुए कुप्रथा त्रिटिश सरकार के निरन्तर या को गैर - कानूनी घोषित कर उन्हें संमत करने का प्रयोग की । उम्परागत जातीय व्यवस्था में परिवर्तन । राजस्थान पर ब्रिटिश आधिपत्य स्थापित होने के बाद , पद्यपि शत - प्रथा का परम्परागत रूप लो ज्यों - का - या भा , लेकिन सामाजिक गतिशीलता आरम्भ हो गयी । निम्नजातियों में यह भवसाग परिव उसतर मात्र के तने में दिखाई पड़ा । राजपूत भी अपने परम्परागत सैनिक कार्यों और भू - स्वामित्र से निकल का रीकीय सेवा यो । - अपनाते जा रहे थे । ब्राह्मण जो अध्ययन - अध्यापन करते थे , वे भी अब अधिकाधिक कृषि पर निर्भर हो गये । व है अब प्रशासनिक एवं सैनिक पद संभालने लगे । तेरी , पोयी , म्हार , झाती और इरिजनों को कर अन्य सभी | F ने अपने प्यवराय यदल लिये ।
इस रामाजिक गतिशीलता के प्रमुख कारण शासको ५ मन्त्रों को रोनाओं को | परन मोर यागिन्य पर अंग्रेजों की बढ़ता हुआ नियंत्रण भूमि बन्दोबस्त , यातायात के सपनों का विकास , प्रशीनिक दिन में परिवर्तन , अंग्रेजी शिक्षा का प्रसार आदि थे । स्वामी दयानन्द सरस्वती का राशन में आगमन परम्परा नक्क ढाँचे को झकझोरने वाला सिद्ध हुआ । घकालीन कुप्रथाओं का अंत । | सती प्रथा का अन्त । लीप रक्त की राद्धता और प्रतिष्ठा को मध्यकालीन असुरक्षित तारण में सुरक्षित रखने । तर रायपूतों में सती प्रथा का प्रचालन सर्वाधिक मा तरा इसने पार्मिक स्वरूप ग्रहण कर लिया । हिन्दुओं को कुछ द शिया में भी पाए प्रधा कप्त मात्रा में प्रचलित थी । राजस्थान में सर्वप्रथम सती प्रथा पर रोक लगाने का प्रयास र के महाराजा सवाई जयसिंह द्वितीय के द्वारा किया गया । 19ीं शताब्दी के आर में इस प्रथा को ध्यापकता कम होती जा रही थी ।
जयपुर में सगाई जगतसिंह की 1818 मन्यु होने पर केवल एक रानी सती हुई थी । उदयपुर में महाराणा भीमसिंह को मृत्यु पर 1828 ई . में 4 रानियां , 4 और 1838 में अमानसिंह की मृत्यु पर केवल 1 उपासन से 1861 में महाराणी रूपसिंह की मृत्य पर न एक दासी को सती होने के लिए तैयार किया जा सका । जापपुर में 1803 ई . में महाराजा भीमसिंह को मृत्य पर 8 २ सी हुई होकिन् 1843 ई . में मानसिंह को मृत्यु पर केवल एक रानी सती हुई । बीकानेर में 1825 है , जोधपुर में1846 ई . में , जोधपुर मह में , ३गरपुर गरे । महारा महाशा स्वरूपसिंह ने 186 ठिकानों में से प्रथा को में तो घा उल्लंघन करने पर जुर्माना वसूल करने की को पुट घटनाएं होती - - है , अभने के गम त अधिकारियों के सहयोग से राजस्थान राज्यों में जो प ? ए थीन का इतिहास , म एव । एक पर " " ५ ५ . के पर कोई शो सो महीं हुई । इस प्रकार मधेश स्या : हो ।
* में राजस्थान में सर्वप्रधम सती प्रथा को दी जोश राव विष्णु रिहा ये 1st में 11875 ई . में बीकानेर में , अलवर नरेश भएका प1ि830 रिपुर नरेश भारत इशरदह ने 1844 में , अपुर । 1816 में जोधपुर महाराजा में विवाह भरा सोसर हि एवं कश महारावन माह 1845 ई . में 86 ई . में तो प्रा से गैरकानुनी ति का दण्डनीय अपराध मरा दिया । इस पर Fषु रमाए होती हो जिसके लिए उमेशरों पर उमा शमा शा भा । रे * नपर्म मी घसूस करने करने की सपना को १ की गई । 1851 में अ५ अर रात ५ सपना भितने घर कारागार का इण्ड दिए । सर को पद र त । और उप में म त के र हा कयी । इ स ५ ५ पा की घटनाए कैच ६ मत्र र आयी । ६ अना : कन्या - वर्ष की प्रा राजस्थान में राजपूतों में मि ! मशि में प्रथतिः । ग्री के छोटे - छोटे कद में मैं - वध का कारण बताया है ।
राजपताना के ए . जी . जी . सदरलैण्ड और जोधपुर के पॉलिटिकल एजेन्ड आगे और अपनी पुश्यों के लिए उचित दर देरे में अ । | भी पामेलदार ने रोके की प्रत को कन्या - वध के लिए दोषी ठहराया है । स में - राजस्थान पर ब्रिटिश प्रभुत्व स्थापित होने के बाद हौती के पोलिटिकल एजंट बिलकिसन के अधप्रधम 153 ई . में कन्वा पप को गैर कानन पौषित करने वाला शासक कोटा महपाय IT | १३ में वि सिंह ने 1834 में और महाराण इतनसंह ने 1877 I में तपी उदयपुर महाराणा स्वरूपसिंह ने 1544 है में काध को गैर - कानूनो पोषित कर दण्डनीय बना दिए । में , उपपुर मग मी किनेर मेराजा रतनसिह ने 1836 ई . में अपने सभी कामों औरण बाकीदार की रात में आयोजित कर पद दिलायी थी कि वे अपनी बेटी का वध नहीं करेंगे , परन्तु उदयपुर पराना पिक परम्परा है . र कारण कुरीतियों के विरुद्ध स्वयं को दो तैयार न कर सका ।
लेकिन यह ध्यान तो उस समय सम्म हो ही आज समाप्त हुई है । । त्याग प्रथा को नियमन । राजपूत जाति में विषाह के अवसर पर प्रदेश के दूसरे राज्यों में धारण आदि धमकते थे और लड़की बातों से मुंह मांगी दान - दक्षिण प्राप्त करने का आ करते थे । इसी । ' त्याग ' कहा जाता था । इससे सड़को पालों की स्थिति काफी दयनीय हो जाती थी । इस ' त्याग ' को मन - के लिए प्राय : उत्तरदायी रहा । आ र । इलिए ब्रिदिश अधिकारियों ने शासकों के सहयोग से इस मन करने के लिए आवश्यक कदम उराश्ये । सर्वपम 1931 में त्याग प्रथा को गैर - कानो पोषित करने । महाराजा मानसिः । शत्पश्चात् बीकानेर महाराजा रतनसिंह में 1544 १ में , जयपुर महराया रामसिंह 1 । महाराणा स्वरूपसिंह में भी पाग १८ को 1 $ 44 ई . में नियमित कर दिया ।
डाकन प्रधा का अन्त : राजस्थान में अनेक जातियों , विशेषकर भौल व मीणा जातियों में त्रिों पर कर । का आरोप लगाकर उनकी हत्या कर देने की कृपा प्रचलित पी । 1853 ई . में जय ' भेवाह स कोर के । एक स्त्री को ज्ञान होने के सन्देश में भी डाली तय कालीन ए . जी . सी . में भारत सरकार ने इन प्रणाम हेतु आवश्यक कार्यवाही करने की स्वीकृति माँगी । भारत सरकार ने एजी को निर्देश दिया कि कपूर । को अपने - अपने राज्य में इसे कुपी को गैर - कानूनी घोषित करने के लिए विवश की और इस त में लिए । के विरुद्ध संत सज्ञा की स्थिी करें ।
सर्वप्रथम औरवाड़ा ( उदयपुर ) में महाराणा स्वरूपसिंह ने मेवाड़ भील कोर के कमाडेर जे सी इक । । प्रयासों से अम्बर , 1853 में क पा को गैर - कानूनी घोषित कर दिया और इसका पर सर । कारावास की सजा देने की घोषणा की । फिर भी य में यह कुप्रथा समाप्त नहीं हुई । जापाचा कोश शरण । जसपर महाराजा सवाई रामसिंह द्वितीय एवं पूदी महाशय वारिनेह ने भी ज्ञान प्रा को गैर - कागदी घोषित ॥ किन्न । यो शताब्दी के अन्त तक यह भी स्मापा नहीं हुई । 20वीं शताब्दी में अंग्रेजी शिक्षा के प्रारद से | समाप्त हो सकी । अभी भी इस प्रकार की घटनाएं घटती होती रहती हैं ।
इसके अति तयप भी राजपूत शरिको ने कुए कुप्रथा त्रिटिश सरकार के निरन्तर या को गैर - कानूनी घोषित कर उन्हें संमत करने का प्रयोग की । उम्परागत जातीय व्यवस्था में परिवर्तन । राजस्थान पर ब्रिटिश आधिपत्य स्थापित होने के बाद , पद्यपि शत - प्रथा का परम्परागत रूप लो ज्यों - का - या भा , लेकिन सामाजिक गतिशीलता आरम्भ हो गयी । निम्नजातियों में यह भवसाग परिव उसतर मात्र के तने में दिखाई पड़ा । राजपूत भी अपने परम्परागत सैनिक कार्यों और भू - स्वामित्र से निकल का रीकीय सेवा यो । - अपनाते जा रहे थे । ब्राह्मण जो अध्ययन - अध्यापन करते थे , वे भी अब अधिकाधिक कृषि पर निर्भर हो गये । व है अब प्रशासनिक एवं सैनिक पद संभालने लगे । तेरी , पोयी , म्हार , झाती और इरिजनों को कर अन्य सभी | F ने अपने प्यवराय यदल लिये ।
इस रामाजिक गतिशीलता के प्रमुख कारण शासको ५ मन्त्रों को रोनाओं को | परन मोर यागिन्य पर अंग्रेजों की बढ़ता हुआ नियंत्रण भूमि बन्दोबस्त , यातायात के सपनों का विकास , प्रशीनिक दिन में परिवर्तन , अंग्रेजी शिक्षा का प्रसार आदि थे । स्वामी दयानन्द सरस्वती का राशन में आगमन परम्परा नक्क ढाँचे को झकझोरने वाला सिद्ध हुआ । घकालीन कुप्रथाओं का अंत । | सती प्रथा का अन्त । लीप रक्त की राद्धता और प्रतिष्ठा को मध्यकालीन असुरक्षित तारण में सुरक्षित रखने । तर रायपूतों में सती प्रथा का प्रचालन सर्वाधिक मा तरा इसने पार्मिक स्वरूप ग्रहण कर लिया । हिन्दुओं को कुछ द शिया में भी पाए प्रधा कप्त मात्रा में प्रचलित थी । राजस्थान में सर्वप्रथम सती प्रथा पर रोक लगाने का प्रयास र के महाराजा सवाई जयसिंह द्वितीय के द्वारा किया गया । 19ीं शताब्दी के आर में इस प्रथा को ध्यापकता कम होती जा रही थी ।
जयपुर में सगाई जगतसिंह की 1818 मन्यु होने पर केवल एक रानी सती हुई थी । उदयपुर में महाराणा भीमसिंह को मृत्यु पर 1828 ई . में 4 रानियां , 4 और 1838 में अमानसिंह की मृत्यु पर केवल 1 उपासन से 1861 में महाराणी रूपसिंह की मृत्य पर न एक दासी को सती होने के लिए तैयार किया जा सका । जापपुर में 1803 ई . में महाराजा भीमसिंह को मृत्य पर 8 २ सी हुई होकिन् 1843 ई . में मानसिंह को मृत्यु पर केवल एक रानी सती हुई । बीकानेर में 1825 है , जोधपुर में1846 ई . में , जोधपुर मह में , ३गरपुर गरे । महारा महाशा स्वरूपसिंह ने 186 ठिकानों में से प्रथा को में तो घा उल्लंघन करने पर जुर्माना वसूल करने की को पुट घटनाएं होती - - है , अभने के गम त अधिकारियों के सहयोग से राजस्थान राज्यों में जो प ? ए थीन का इतिहास , म एव । एक पर " " ५ ५ . के पर कोई शो सो महीं हुई । इस प्रकार मधेश स्या : हो ।
* में राजस्थान में सर्वप्रधम सती प्रथा को दी जोश राव विष्णु रिहा ये 1st में 11875 ई . में बीकानेर में , अलवर नरेश भएका प1ि830 रिपुर नरेश भारत इशरदह ने 1844 में , अपुर । 1816 में जोधपुर महाराजा में विवाह भरा सोसर हि एवं कश महारावन माह 1845 ई . में 86 ई . में तो प्रा से गैरकानुनी ति का दण्डनीय अपराध मरा दिया । इस पर Fषु रमाए होती हो जिसके लिए उमेशरों पर उमा शमा शा भा । रे * नपर्म मी घसूस करने करने की सपना को १ की गई । 1851 में अ५ अर रात ५ सपना भितने घर कारागार का इण्ड दिए । सर को पद र त । और उप में म त के र हा कयी । इ स ५ ५ पा की घटनाए कैच ६ मत्र र आयी । ६ अना : कन्या - वर्ष की प्रा राजस्थान में राजपूतों में मि ! मशि में प्रथतिः । ग्री के छोटे - छोटे कद में मैं - वध का कारण बताया है ।
राजपताना के ए . जी . जी . सदरलैण्ड और जोधपुर के पॉलिटिकल एजेन्ड आगे और अपनी पुश्यों के लिए उचित दर देरे में अ । | भी पामेलदार ने रोके की प्रत को कन्या - वध के लिए दोषी ठहराया है । स में - राजस्थान पर ब्रिटिश प्रभुत्व स्थापित होने के बाद हौती के पोलिटिकल एजंट बिलकिसन के अधप्रधम 153 ई . में कन्वा पप को गैर कानन पौषित करने वाला शासक कोटा महपाय IT | १३ में वि सिंह ने 1834 में और महाराण इतनसंह ने 1877 I में तपी उदयपुर महाराणा स्वरूपसिंह ने 1544 है में काध को गैर - कानूनो पोषित कर दण्डनीय बना दिए । में , उपपुर मग मी किनेर मेराजा रतनसिह ने 1836 ई . में अपने सभी कामों औरण बाकीदार की रात में आयोजित कर पद दिलायी थी कि वे अपनी बेटी का वध नहीं करेंगे , परन्तु उदयपुर पराना पिक परम्परा है . र कारण कुरीतियों के विरुद्ध स्वयं को दो तैयार न कर सका ।
लेकिन यह ध्यान तो उस समय सम्म हो ही आज समाप्त हुई है । । त्याग प्रथा को नियमन । राजपूत जाति में विषाह के अवसर पर प्रदेश के दूसरे राज्यों में धारण आदि धमकते थे और लड़की बातों से मुंह मांगी दान - दक्षिण प्राप्त करने का आ करते थे । इसी । ' त्याग ' कहा जाता था । इससे सड़को पालों की स्थिति काफी दयनीय हो जाती थी । इस ' त्याग ' को मन - के लिए प्राय : उत्तरदायी रहा । आ र । इलिए ब्रिदिश अधिकारियों ने शासकों के सहयोग से इस मन करने के लिए आवश्यक कदम उराश्ये । सर्वपम 1931 में त्याग प्रथा को गैर - कानो पोषित करने । महाराजा मानसिः । शत्पश्चात् बीकानेर महाराजा रतनसिंह में 1544 १ में , जयपुर महराया रामसिंह 1 । महाराणा स्वरूपसिंह में भी पाग १८ को 1 $ 44 ई . में नियमित कर दिया ।
डाकन प्रधा का अन्त : राजस्थान में अनेक जातियों , विशेषकर भौल व मीणा जातियों में त्रिों पर कर । का आरोप लगाकर उनकी हत्या कर देने की कृपा प्रचलित पी । 1853 ई . में जय ' भेवाह स कोर के । एक स्त्री को ज्ञान होने के सन्देश में भी डाली तय कालीन ए . जी . सी . में भारत सरकार ने इन प्रणाम हेतु आवश्यक कार्यवाही करने की स्वीकृति माँगी । भारत सरकार ने एजी को निर्देश दिया कि कपूर । को अपने - अपने राज्य में इसे कुपी को गैर - कानूनी घोषित करने के लिए विवश की और इस त में लिए । के विरुद्ध संत सज्ञा की स्थिी करें ।
सर्वप्रथम औरवाड़ा ( उदयपुर ) में महाराणा स्वरूपसिंह ने मेवाड़ भील कोर के कमाडेर जे सी इक । । प्रयासों से अम्बर , 1853 में क पा को गैर - कानूनी घोषित कर दिया और इसका पर सर । कारावास की सजा देने की घोषणा की । फिर भी य में यह कुप्रथा समाप्त नहीं हुई । जापाचा कोश शरण । जसपर महाराजा सवाई रामसिंह द्वितीय एवं पूदी महाशय वारिनेह ने भी ज्ञान प्रा को गैर - कागदी घोषित ॥ किन्न । यो शताब्दी के अन्त तक यह भी स्मापा नहीं हुई । 20वीं शताब्दी में अंग्रेजी शिक्षा के प्रारद से | समाप्त हो सकी । अभी भी इस प्रकार की घटनाएं घटती होती रहती हैं ।
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